पिछले दिनों एक टीवी पत्रकार से मुलाकात हुई। उम्र तीस के करीब थी और वेतन लगभग 20 हज़ार रुपये महीना। वह किसी छोटे-मोटे चैनल में नहीं बल्कि टीआरपी चार्ट में ऊपर के तीन में शुमार रहने वाले एक चैनल का मुलाज़िम है। पाँच साल से पत्रकारिता के पेशे में हर दिन औसतन 12 घंटे दफ्तरी काम-काज में ख़र्च करने वाले इस डेस्क पत्रकार के पास अगर कुछ सपने होंगे भी तो उनमें रंग भरने के लिए न अवकाश है और न क्षमता। आगे बहुत कम समय है जिसमें शादी-ब्याह और घर-गृहस्थी जैसी घटनाओं को भी घटना है। एनसीआर में पाँव टिकाने की कोशिश में दस साल साल कब बीत जायेंगे पता नही चलेगा। अगर इस बीच उसने किसी तरह तेज़ तरक्की का हुनर हासिल किया तो भी 40 तक पहुँचते-पहुँचते चैनल के लिए बोझ बन ही जाएगा और नहीं की तो ख़ुद अपने लिए।
40 पार वक़्त सिर्फ़ उनका है जो किसी संयोग की वजह से ख़ुद को ब्रैंड में तब्दील करने में क़ामयाब हुए हैं। ऐसे टीवी पत्रकारों को लाखों का वेतन मिलता है लेकिन इनकी तादाद कुल मिलाकर पूरी इंडस्ट्री में 150-200 से ज़्यादा नहीं है। उन्हीं को देखकर लाखों नौजवान टीवी पत्रकारिता के लिए मरे जा रहे हैं जबकि अंदर का हाल यह है कि पत्रकारों की बड़ी तादाद 15-25 हज़ार रुपये महीने में जवानी सड़ा रही है। ऊपर से अवसाद एक नियमित बोनस की तरह है क्योंकि कुछ भी सार्थक न कर पाने की छटपटाहट हमेशा बनी रहती है। 90 फ़ीसदी से ज़्यादा टीवी पत्रकारों का हाल यही है। न काम के घंटों का हिसाब और न सेवा सुरक्षा की गारंटी। किस्तों में मकान-गाड़ी का इंतज़ाम कर लेने के बाद तो रीढ़ को शरीर से निकाल कर फेंक देने में ही समझादारी मानी जाती है।
यह सब लिखने की वजह पत्रकार अरविंद शेष की नीचे दी गई फ़ेसबुक पोस्ट है जो कुछ दिन पहले आँख से ग़ुज़री थी। पूरा कारपोरेट वर्ल्ड 40 पार लोगों से छुटकारा पाने में लगा है ऐसे में एक ईमानदार पत्रकार के लिए ख़ुदकुशी करने का रास्ता ही बचता है। मजीठिया की लड़ाई के दौरान और कई चैनलों की बंदी या बंदी जैसी हालत में कुछ जाने जा भी चुकी हैं।
वाक़ई यह समय पत्रकारों के चेत जाने का समय है…..नहीं बेईमान होने http://cialisfrance24.com की ज़रूरत नहीं है, लेकिन पत्रकारिता को ज़िंदगी का आदि-अंत समझने के भ्रम से बाहर निकलने का वक़्त आ पहुँचा है। दुनिया इस कुएँ से बाहर और बहुत विशाल है। बचकानी पत्रकारिता के दौर में यूँ भी पकी उम्र और अनुभव सम्मान नहीं, मज़ाक का मसला है।
याद रहे, मरना नहीं…लड़ना है…जीना है !
ख़ैर पढ़िये अरविंद शेष की पोस्ट–
इस देश में चालीस साल से ऊपर के जिन लोगों के पास पुश्तैनी जमींदारी नहीं हैं या जो लोग सरकारी नौकर नहीं हैं, वे अब या तो अपना कोई धंधा करें और पूंजी नहीं है या किन्हीं हालात में ऐसा नहीं कर सकते हैं तो फिर आत्महत्या कर लें!
इस बीच यह खबर आम हो चुकी है कि ‘द हिंदू’ जैसे अखबार में भी चालीस साल से ऊपर वाले पत्रकारों को बाहर करने का इंतजाम कर दिया गया है। यह महज कोई हंसी-खेल नहीं है। शक तो पहले से ही था, जब संस्थानों में तीस से ऊपर वालों को नौकरी पर नहीं रखने की घोषणा खुलेआम की जा रही थी, अब यह रिपोर्ट भी आ चुकी है कि इंडिया-इंक, यानी इस देश की ज्यादातर निजी कंपनियों, कॉरपोरेटों ने अपने यहां नौकरी करने वालों के बीच ‘जेनरेशन गैप’ को लगभग खत्म कर दिया है, उनके सारे कर्मचारी, ठेके पर हों या कोई भी, चालीस साल से कम उम्र के हैं।
तो चालीस साल से ज्यादा उम्र में पहुंच चुके लोग कहां गए? जाहिर है, चालीस के ऊपर वालों की बहाली नहीं हुई, उन्हें किसी बहाने निकाल दिया गया या इस्तीफा देने पर मजबूर कर दिया गया, कॉन्ट्रैक्ट री-न्यू नहीं किया गया, वीआरएस या सीआरएस दे दिया गया…! ऐसा हो क्यो नहीं…! जब बाईस-तेईस या पच्चीस साल के नए लड़के नाम की तनख्वाह या इंटर्न के नाम पर मुफ्त खटने को तैयार हैं, तो अपने दस साल झोंकने के बाद चालीस साल की उम्र पार करने वाले और थोड़ी तनख्वाह बढ़ जाने के बाद कंपनी के लिए ‘बोझ’ बन चुके लोगों को क्यों रखा जाए..!
अब यह तकनीकी तौर पर अघोषित नीति निजी क्षेत्र की नौकरियों में एक व्यवस्था बन जाती है, तब? चालीस साल से ज्यादा उम्र वाले वे लोग कहां जाएंगे, जिनकी नौकरी पर निर्भरता है? देखिए कि पूंजीपतियों और कॉरपोरेटों की प्यारी सरकारों ने क्या किया है नई ‘उदारवादी’ आर्थिक नीतियों के हथौड़े के जरिए…! अब तो मौजूदा सरकार यह साबित करने पर तुली है कि वह कॉरपोरेटों के लिए, कॉरपोरेटों के द्वारा और कॉरपोरेटों की सरकार है। एक तरफ अट्ठावन से साठ और फिर बासठ साल की सेवानिवृत्ति आयु पर पहुंचते सरकारी नौकर और दूसरी ओर जिनके पास सरकार नौकरी नहीं है, उस चालीस साल से ज्यादा की बेरोजगार फौज…! चलने दिया जाए यही कुछ साल और… तब देखा जाएगा तमाशा कि देश की चालीस साल से ज्यादा की बेरोजगार आबादी किस तरह समूचे समाज के लिए एक अवसाद और तबाही की वजह बनती है।
नोटः हमारी सरकार और निजी कंपनियां जिस अमेरिका दादाजी की दीवानी हैं, उस अमेरिका में कोई भी कंपनी किसी भी उम्र के व्यक्ति को उसकी उम्र बताने के लिए मजबूर नहीं कर सकती है, उसे उम्र के सवाल के बिना नौकरी देनी पड़ती है, कानूनन…!”
तस्वीर अरविंद शेष की है , और उनकी चिंता का सबब यह ख़बर बनी !