राजदीप जैसे एंकर को नमूना और ख़ुद को कार्टून बना रहा है इंडिया टुडे !

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 ऐसा लगता है, हम सरगम इलेक्ट्रॉनिक्स आ गए हों !

 

इन दिनों इंडिया टुडे का न्यूजरूम जहां से ग्राउंड जीरो की खबरें प्रसारित हुआ करती हैं, ऐसा लगता है जैसे नवरात्र और दीपावली में बंपर बिक्री होने की संभावना को लेकर किसी इलेक्ट्रॉनिक शॉप/ शोरूम की तरह सजाए गए हो. चारों तरफ भक-भक दीया-बत्ती.

आतंकवाद और देश में असुरक्षा का माहौल समाचार चैनलों के लिए उत्सवधर्मिता है, ये आपको ऐसे चैनलों के स्टूडियो का हुलिया देखकर ही समझ आ जाएगा. नहीं तो जहां बात हत्या की, हमला की, मौत की हो रही हो वहां इतना ज्यादा चमकीलापन भला क्यों जरूरी है ?

आप दो मिनट पर खबर को लेकर ध्यान नहीं टिका सकते. एक ड्रोन सायं से गुजरता है और बम गिराकर फिर एक चक्कर काटता है. अभी इससे कपार बैलेंस में आए नहीं कि एक सैनिक ठांय. आपके मन में सीधा सवाल उठेगा कि अरुण पुरीजी जब आपको कार्टून में इतनी ही दिलचस्पी है तो अलग से कार्टून चैनल ही क्यों नहीं खोल लेते ? आपको भला किस चीज की कमी है ? जैसे दर्जनभर चैनल पहले से हैं, उसमे एक और सही.

कम से कम हम जैसे दर्शक जो दिनभर की चिल्ल-पों से बड़ी मुश्किल से प्राइम टाइम में आपके आगे जुटते हैं, उसे बार-बार ये आभास तो न हो कि सामने वीडियो गेम चल रहा है और हम बार-बार प्वाइंट स्कोर करने से रह जा रहे हैं.

आपको शायद अंदाजा न लगता हो कि ऐसे ग्राफिक्स, क्रोमा का दर्शकों पर क्या असर पड़ता है और इन सबके बीच एंकर कैसा दिखता है ? हमें एकदम से ऐसा लगता है कि स्क्रीन पर एंकर सबसे गैरजरूरी एलिमेंट है. वो न रहे तो इस गोलाबारी में हम कुछ ज्यादा ही प्वाइंट स्कोर कर लें.

ये सब सीएनएन इंटरनेशनल की बहुत ही भद्दी नकल है. ये सब धूम-धड़ाके वाले कारनामे वो भी करता है लेकिन अपने एंकर को कबाड़ बनाकर नहीं. मुझे नहीं पता कि एक ही तरह की कई मिनटों तक ग्राफिक्स और वॉल से दर्शकों का क्या भला होता होगा लेकिन हमें ये जरूर महसूस होता है कि ऐसे में राजदीप सरदेसाई जैसे अनुभवी, बेहतरीन एंकर ( जो दुर्भाग्य से न्यूज चैनल में इक्का-दुक्का ही हैं) नमूने की शक्ल में नजर आते हैं.

इंडिया न्यूज, इंडिया टीवी, सुदर्शन जैसे चैनल ये सब करे तो बात समझ आती है कि न्यूज गैदरिंग में खर्चे की कटौती के लिए इन्हीं सब ताम-झाम में अपने दर्शकों को अपने में उलझाए रखना चाहते हैं लेकिन

आपके संवाददाता तो सीधे ग्राउंड जीरो पर मौजूद होते हैं. वो उडी, एलओसी से रिपोर्टिंग कर रहे होते हैं. ऐसे में इस तरह के झंडीमार न्यूजरूम की क्या जरूरत रह जाती है ?

विनीत कुमार

(लेखक प्रसिद्ध मीडिया विश्लेषक हैं।)