अरविंद दास
मैं टेलीविजन पत्रकार और एंकर रवीश कुमार का मुरीद हूँ. उन्हें टीवी पर तो कम देख पाता हूं, पर उनके लिखे पर गाहे-बगाहे नज़र चली ही जाती है. ख़ास कर जब वे मीडिया पर टिप्पणी करते हैं तो गौर से पढ़ता- गुनता हूँ. पर पिछले कुछ महीनों (मोदी सरकार के आने के बाद) से मीडिया, ख़ास कर टीवी के प्रति, उनके लिखे में घोर निराशा देखने-पढ़ने को मिलती है.
उनका चर्चित ब्लॉग-कस्बा, आजकल ‘द वायर’ वेबसाइट पर लगातार छप रहा है. पिछले दिनों उनके दो लेख पर नज़र पड़ी. एक जगह वे लिखते हैं-“भारत के लोकतंत्र से प्यार करते हैं तो अपने घरों से टीवी का कनेक्शन कटवा दीजिए. आज़ादी के सत्तर साल में गोदी मीडिया की गुलामी से मुक्त कर लीजिए ख़ुद को.” दूसरी जगह वे लिखते हैं- “जिस मीडिया से आप उम्मीद करते हैं, उसे ख़त्म करने में आपने भी साथ दिया है. इसलिए अब बादशाह की यह जूती आपके लिए बेकार हो चुकी है.”
पता नहीं वे अभिधा में लिख रहे हैं या व्यंजना में. पर मीडिया रिसर्चर और एक मीडियाकर्मी के नाते, संकट के बावजूद, मुझे लगता है कि इतनी निराशा ठीक नहीं है. पिछले दो दशकों में भारतीय समाज और लोक मानस पर ख़बरिया चैनलों का प्रभाव किस रूप में पड़ा इसकी ठीक-ठीक विवेचना संभव नहीं. ना ही अभी अंतिम रूप से कुछ कहा जा सकता है. लेकिन इस बात से शायद ही किसी को इंकार हो कि हज़ार कमियों के बावजूद भारतीय राजनीति और लोकतंत्र के विस्तार में इन चैनलों की महती भूमिका है. ये ख़बरिया निजी चैनल दूरदर्शन की तरह सरकारी भोंपू बन कर नहीं रह गए, ना ही इन्हें राज्य सत्ता के विचारधारात्मक उपकरण (Ideological State Apparatus) के रूप में हम खारिज कर सकते हैं.
अमर्त्य सेन और ज्यां द्रेज (2013) ने ठीक ही नोट किया है : भारत अपने यहाँ अख़बारों के वृह्द प्रसार (दुनिया में सबसे ज्यादा) और रेडियो, टीवी के दूर-दराज तक कवरेज पर गर्व कर सकता है. चौबीसों घंटे चलने वाले चैनलों में अन्य बातों के अलावे मौजूदा राजनीतिक सूरते हाल का विभिन्न रूपों में विवेचन-विश्लेषण भी होता रहता है. निस्संदेह एक स्तर पर यह लोकतांत्रिक अवसर की जीत है, जो अन्य लोकतांत्रिक संस्थानों, इनमें निष्पक्ष और बहुदलीय चुनाव भी शामिल हैं, के कामकाज को मजबूती प्रदान करता है.”
यह बात स्पष्ट है कि वर्ष 2014 में केंद्र में मोदी सरकार के आने के बाद इन चैनलों के लिए न्यूजरूम में और बाहर सड़क पर एजेंडा बदल गए हैं. फिलहाल कुछ अपवादों को छोड़कर ये कमोबेश सरकार के एजेंडे पर काम करते दिख रहे हैं. यह लव जिहाद, बीफ बैन, जेएनयू, कश्मीर, राष्ट्रवाद जैसे मुद्दों पर इनके कवरेज और टीवी स्टूडियो में चल रहे बहस- मुबाहिसों से स्पष्ट है (मीडिया विजिल के लिए इस मुद्दे पर लेखक ने लिखा भी है).
पर पता नहीं कि इन चैनलों के मालिकों ने स्वत: घुटने टेक दिए या इन पर सत्ता की तरफ से प्रत्यक्ष दबाव है. परोक्ष रूप से राजनीतिक दबाव तो हर दौर में मीडिया के ऊपर रहा है. हालांकि उदारीकरण-भूमंडलीकरण के इस दौर में राजनीतिक दवाब से कहीं ज्यादा विज्ञापन का दबाव काम करता रहा है. रवीश जिस मीडिया को ‘बादशाह की जूती’ कह रहे हैं उसका खांचा उदारीकरण के साथ ही बनने लगा था, जिस दौर में ये चैनल फल-फूलने लगे थे.
पिछले दिनों टेलीविजन एंकर करण थापर और बरखा दत्त को टीवी पर ना देख कर वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नायर ने लिखा था थापर और बरखा दत्त दोनों को दिमाग में रखना होगा कि उनकी यात्रा लंबी और कठिनाइयों से भरी होगी. उन्हें अपनी तरफ फुसलाने के लिए सत्ता लालच देगा. लेकिन यह उन पर है कि वे बियावान में कठिनाइयां सह पाते हैं. यह आसान नहीं है, लेकिन वे अपने चरित्र के बल पर ऐसा कर सकते हैं. उन्हें मेरा समर्थन है, यह उनके जितने भी काम का हो.”
टेलीविजन चैनलों के चौधरियों और शर्माओं के इस दौर में ऐसे कई नामी चेहरे हैं जिनके लिए इस समय काम करना मुश्किल हो रहा है. ऐसा तो नहीं कि वे बेरोजग़ार है पर टेलीविजन उद्योग इन प्रतिभाओं का सम्यक इस्तेमाल नहीं कर पा रहा. बात करण थापर की हो, बरखा दत्त की या शाज़ी ज़माँ की. क्या यह हमारे समय और समाज पर भी एक टिप्पणी नहीं है? पर क्या निराश हुआ जाए?
लेखक पेशे से पत्रकार हैं। मीडिया पर कई शोधों में संलग्न रहे हैं। नब्बे के दशक में मीडिया पर बाज़ार के प्रभाव पर इनका शोध रहा है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से पढ़ाई-लिखाई। इनकी पुस्तक ‘हिंदी में समाचार’ काफी लोकप्रिय रही है। दो विदेशी लेखकों के साथ धर्म और मीडिया पर एक पुस्तक का संयुक्त संपादन। फिलहाल करण थापर के साथ जुड़े हैं।