आज के हिंदी/अंग्रेजी अखबारों के संपादकीय: 02 मई, 2018

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नवभारत टाइम्स

कर्नाटक का असर

मंगलवार को तीन रैलियां संबोधित कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कर्नाटक चुनाव प्रचार की तूफानी शुरुआत की। अगले आठ दिनों में वहां वह 12 और रैलियां करने वाले हैं। कर्नाटक में बीजेपी की ओर से यह पहली चुनावी रैली नहीं है। लेकिन मोदी के पीएम बनने के बाद से यह चलन बन गया है कि चुनाव चाहे किसी भी राज्य में हो, बीजेपी का अभियान तभी जोर पकड़ता है, जब खुद प्रधानमंत्री उसमें कूद पड़ें। मोदी की इन रैलियों के साथ ही राज्य में चुनाव प्रचार अपने आक्रामक दौर में प्रवेश कर चुका है। इन चुनावों की एक खास बात यह भी है कि इनमें मोदी को प्रतिपक्षी खेमे में अतीत की अपनी ही चुनावी शैली की परछाईं दिख सकती है। गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए वे वहां के विधानसभा चुनावों में केंद्र के बरक्स गुजरात गौरव का मसला जोर-शोर से उठाते थे। इस बार कांग्रेसी मुख्यमंत्री सिद्धरामैया कर्नाटक में यही रणनीति अपनाते दिख रहे हैं। केंद्र की सरकार के मुकाबले में वह क्षेत्रीय अस्मिता के सवाल को चुनाव की धुरी के तौर पर पेश करने की कोशिश में हैं। राजनीति में धर्म का कंटीला उपयोग भी मोदी युग वाली बीजेपी की रणनीतिक विशेषता है। सिद्धरामैया इस मामले में भी खड्गहस्त हैं। लिंगायत को हिंदू धर्म से अलग एक स्वतंत्र धर्म की मान्यता देने की घोषणा करके उन्होंने बीजेपी के सबसे पक्के वोटबैंक में सेंध लगाने की जो कोशिश की, उसने बीजेपी को सकते में डाल रखा है। उसका दावा है कि यह दांव कांग्रेस के किसी काम नहीं आएगा, लेकिन मतदान से पहले इस बारे में कोई भी पक्के तौर पर क्या कह सकता है/ यह भी साफ दिख रहा है कि बीजेपी ने भले ही येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री प्रत्याशी घोषित कर रखा है, पर चुनाव वह पूरी तरह प्रधानमंत्री मोदी के पीछे खड़े होकर ही लड़ रही है। खुद येदियुरप्पा ने भी पिछले दिनों कहा कि उनकी पार्टी शानदार जीत इसलिए हासिल करेगी क्योंकि प्रदेश में मोदी लहर चल रही है। यह भी महत्वपूर्ण है कि देवगौड़ा और कुमारस्वामी की अगुआई वाली जेडीएस भले ही अपना पूरा जोर लगा रही हो, पर लड़ाई को तिकोना वह नहीं बना पा रही। कुछेक सीटों पर जेडीएस और कांग्रेस के बीच सीधी लड़ाई जरूर है, पर जेडीएस और बीजेपी में मुख्य लड़ाई बताई जा सके, ऐसी एक भी सीट खोजना मुश्किल है। मतलब यह कि चुनाव बाद के समीकरण चाहे जैसे भी बनें, चुनाव से पहले जेडीएस की भूमिका बीजेपी विरोधी वोटों में हिस्सा बंटाने तक ही सीमित है। चुनावी बिसात पर चालें इसी वर्तमान और संभावित समीकरण को ध्यान में रख कर चली जा रही हैं। नतीजा 15 मई को पता लगेगा, पर बीजेपी और कांग्रेस, दोनों के ही लिए यह साल की सबसे कठिन लड़ाई है।


जनसत्ता

दलित दास्तान

कहने को हमारे संविधान में सबको बराबरी का दर्जा हासिल है, लेकिन ऐसी घटनाएं रोज होती हैं जो बताती हैं कि संवैधानिक प्रावधानों और कड़वे सामाजिक यथार्थ के बीच कितना लंबा फासला है। उदाहरण के लिए दो ताजा खबरों को लें। एक खबर उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले से आई कि अगड़ी जाति के कुछ दबंगों ने एक दलित को इसलिए मारा-पीटा, क्योंकि उसने उनके कहने पर उनकी फसल काटने से इनकार कर दिया। उस दलित का आरोप यह भी है कि उसकी मूंछ खींची गई और जबर्दस्ती उसका मुंह खोल कर पेशाब डालने की कोशिश की गई। जिले के पुलिस अधीक्षक ने प्राथमिक जांच में मारने-पीटने के आरोप को सही पाया है, बाकी आरोपों की जांच चल रही है। पुलिस अधीक्षक ने एफआइआर लिखने में टालमटोल और देरी की बिना पर थाना प्रभारी को निलंबित कर दिया है। दूसरी खबर राजस्थान के भीलवाड़ा जिले की है, जहां विवाह की एक रस्म पूरी करने के दौरान दलित दूल्हे का घोड़ी पर सवार होना कुछ लोगों को रास नहीं आया, और उन लोगों ने उस परिवार पर हमला बोल दिया। नतीजतन तीन-चार व्यक्ति घायल हो गए। पीड़ित परिवार का यह भी आरोप है कि उन्होंने पुलिस की मदद लेनी चाही, पर पुलिस हाथ पर हाथ धरे रही। अलबत्ता पुलिस ने मूकदर्शक बने रहने के आरोप को गलत बताया है।

बहरहाल, ऐसी घटनाओं को कानून-व्यवस्था का सामान्य मामला नहीं माना जा सकता। ऐसी घटनाएं बताती हैं कि कानून के समक्ष समानता के सिद्धांत और समाज में जो चल रहा है उसके बीच कितनी गहरी खाई है। सदियों से हमारे समाज में कुछ तबके जैसा भेदभाव, अपमान और उत्पीड़न झेलते आए हैं उसे देखते हुए ऐसी घटनाएं कोई आश्चर्य की बात भले न हों, पर कई कारणों से बेहद चिंताजनक जरूर हैं। जिस पैमाने पर ये घटनाएं हो रही हैं, उन्हें सिर्फ अतीत के भग्नावशेष कह कर उनसे पिंड नहीं छुड़ाया जा सकता। सच तो यह है कि पिछले कुछ बरसों में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों पर हिंसा की घटनाएं बढ़ी हैं और सरकारी आंकड़े भी इसकी गवाही देते हैं। दूसरी तरफ, आरोपियों को सजा मिलने की दर घटी है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक 2010 से 2016 के सात वर्षों के दौरान, साल के अंत में दलितों के खिलाफ लंबित मामले 78 फीसद से बढ़ कर 91 फीसद, और आदिवासियों के खिलाफ लंबित मामले 83 फीसद से बढ़ कर 90 फीसद पर पहुंच गए। यही नहीं, इनमें से ज्यादातर मामलों में आरोपी छूट गए।

दलितों के खिलाफ अपराधों के मामलों में दोषसिद्धि की दर 2010 में अड़तीस फीसद थी, जो कि घट कर 2016 में सिर्फ सोलह फीसद रह गई। आदिवासियों के खिलाफ अपराधों के मामलों में दोषसिद्धि की दर में गिरावट छब्बीस फीसद से आठ फीसद की रही। इसलिए ऐसी घटनाओं और ऐसे मामलों को अतीत की निशानियां कह कर टाला नहीं जा सकता। विडंबना यह है कि दलितों पर अत्याचार की घटनाओं में बढ़ोतरी उन राज्यों में भी दिखती है जो आधुनिक विकास और औद्योगिक प्रगति में आगे हैं। मसलन, गुजरात में। उना कांड से लेकर हाल में भावनगर जिले में घुड़सवारी के शौक के कारण इक्कीस वर्षीय एक दलित नवयुवक की हत्या तक, ऐसी अनेक घटनाएं हुई हैं जो विकास के गुजरात मॉडल पर सवालिया निशान लगाती हैं। क्या विकास का मतलब सिर्फ बड़े बांध, फ्लाइओवर और विदेशी निवेश ही होता है, या सामाजिक बराबरी और सामाजिक सौहार्द भी कोई पैमाना है?


हिंदुस्तान

 

हर कोई फेल
रिकॉर्ड बनाना उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के लिए कोई नई चीज नहीं। इसे देश का और शायद दुनिया का सबसे बड़ा बोर्ड माना जाता है। सबसे ज्यादा छात्र इसी के सहारे शिक्षित होने का अपना उपक्रम आगे बढ़ाते हैं। छात्रों की यह बड़ी संख्या उसे हर तरह के रिकॉर्ड बनाने के अवसर देती है- अच्छे भी, बुरे भी। लेकिन इस बार बोर्ड के नतीजों में जो एक रिकॉर्ड सामने आया है, वह प्रदेश में शिक्षा की स्थिति की अलग ही कहानी कहता है। उत्तर प्रदेश में 150 स्कूल ऐसे हैं, जहां कोई भी छात्र पास नहीं हो सका, यानी सब के सब छात्र फेल। दिलचस्प है कि यह उस साल हुआ है, जब उत्तर प्रदेश बोर्ड में रिकॉर्ड संख्या में छात्रों ने सफलता दर्ज कराई है। यह मामला किन्हीं एक-दो जिलों या कस्बों का नहीं है। शत-प्रतिशत असफलता का रिकॉर्ड दर्ज कराने वाले स्कूलों का भूगोल काफी विस्तृत है। ये स्कूल उत्तर प्रदेश के कुल 75 में से 50 जिलों में फैले हुए हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश का गाजीपुर इनमें अव्वल है। इन 150 स्कूलों में सबसे ज्यादा इसी जिले से हैं। जिस दिन बोर्ड के नतीजे आए थे, उसके अगले दिन अखबारों ने हमें बताया था कि इलाहाबाद की अंजलि ने सर्वोच्च मेरिट लिस्ट में सर्वोच्च स्थान पाकर जिले का नाम ऊंचा किया, पर अब पता पड़ा है कि इसी जिले के छह स्कूल ऐसे हैं, जहां एक भी बच्चा पास नहीं हो सका। इन 150 स्कूलों में सरकारी स्कूल भी हैं, सरकार से आर्थिक मदद पाने वाले स्कूल भी और निजी स्कूल भी। यानी शिक्षा के सभी क्षेत्रों ने इसमें भरपूर भूमिका निभाई है।
यहां महत्वपूर्ण सवाल यह है कि इस उपलब्धि का सेहरा किसके सिर बांधा जाए? छात्रों को कठघरे में खड़ा करना आसान है, क्योंकि असफलता तो उनके खातों में बाकायदा दर्ज हो चुकी है। लेकिन किसी कक्षा, किसी स्कूल, किसी गली, किसी मोहल्ले, किसी गांव के सारे ही छात्र फेल होने लायक हों, इसे न तो कोई शिक्षा-शास्त्र स्वीकार करेगा और न ही कोई समाज-शास्त्र। शिक्षा की एक सोच यह भी कहती है कि फेल छात्र नहीं होते, फेल तो दरअसल शिक्षक होते हैं। इस नाते हम चाहें, तो शिक्षकों को कठघरे में खड़ा कर सकते हैं, लेकिन एक सिरे से सारे शिक्षक नहीं पढ़ाते होंगे या खराब पढ़ाते होंगे, इस बात को किसी भी तरह से स्वीकार नहीं किया जा सकता। ऐसी ही बात स्कूलों के बारे में भी कही जा सकती है। वैसे एक तर्क यह भी दिया जा रहा है कि इस बार उत्तर प्रदेश में सरकार ने नकल को रोकने और पास होने के लिए गलत तरीके अपनाए जाने पर काफी सख्ती बरती थी, इसलिए भी कुछ खास क्षेत्रों में परीक्षा के नतीजे बहुत खराब रहे। लेकिन यह तर्क भी आसानी से हजम होने वाला नहीं है कि प्रदेश के 150 स्कूल नकल और अनुचित तरीकों के भरोसे ही  अपनी व्यवस्था चला रहे थे।

प्रदेश सरकार ने नकल और अनुचित तरीकों के खिलाफ सक्रियता दिखाकर बहुत अच्छा काम किया है। लेकिन इसका अगला कदम ऐसी व्यवस्था बनाने का होना चाहिए कि नकल की नौबत ही न आए। ऐसी व्यवस्था, जिसमें छात्र की प्रतिभा किसी एक परीक्षा के बल पर नहीं, बल्कि साल भर की उसकी पढ़ाई से मापी जाए। ऐसा हुआ, तो उन स्कूलों का भी भला होगा, जो अभी शत-प्रतिशत असफलता की बदनामी ढोने को मजबूर हैं। सबसे बड़ी बात है कि उन छात्रों का भला होगा, जिन्हें पढ़ाई से ज्यादा परीक्षा की तैयारी करनी होती है।

अमर उजाला

लोकतंत्र को बिडंबना

पश्चिम बंगाल में त्रिस्तरीय पंचायत चुनावों के लिएआगामी 14 मई को मतदान होना है, पर उससे पहले ही 34.2 फीसदी सीटों पर सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के उम्मीदवार निर्विरोध चुन लिए गए हैं। इसलिए कुल 58,692 सीटों में से 20,076 सीटों पर चुनाव नहीं होंगे। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि तृणमूल ने इन सीटों पर विपक्ष के किसी नेता को नामांकन पत्र भरने ही नहीं दिया। पंचायत चुनावों की घोषणा के बाद से ही विपक्ष के प्रत्याशियों पर सुनियोजित ढंग से हमले किए गए। पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने सत्तारूढ़ पार्टी द्वारा आतंक पैदा करने की इस प्रवृत्ति की निंदा की है। माकपा के महासचिव सीताराम येचुरी का कहना है कि तृणमूल पश्चिम बंगाल में लोकतंत्र की हत्या कर रही है। इसमें कोई शक नहीं है, लेकिन सूबे में इसकी शुरुआत तो वाम मोर्चे ने ही की थी। एक अध्ययन बताता है कि वहां 1978 से अब तक हुए पंचायत चुनावों में ऐसी सीटों की संख्या लगातार बढ़ी है, जिन् पर एक से अधिक प्रत्याशी न होने के कारण चुनाव नहीं लड़ा गया। 1978 में ऐसी सीटें 0.73 फीसदी थीं, जो 2018 में। बढ़कर 34.2 फीसदी हो गई। वर्ष 2003 में वाम मोर्चे के आतंक के कारण 11 प्रतिशत सीटों पर विपक्ष अपने उम्मीदवार खड़े नहीं कर पाया था। ममता बनर्जी की पार्टी राजनीतिक हिंसा की उस अपसंस्कृति को और निचले स्तर पर ले गई है। पंचायत प्रणाली शासन के विकेंद्रीकरण के कारण महत्वपूर्ण मानी जाती । है, पर यह लोकतंत्र की विडंबना ही है कि विपक्ष को आतंकित कर सत्ता में अपनी पैठ बनाई जाए! यह ‘उपलब्धि’ ममता बनर्जी को गौरवान्वित करेगी या शर्मसार? पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे के लंबे शासन की वजह ग्रामीण इलाकों में उसकी मजबूत पकड़ थी। साफ है कि तृणमूल ने उसी तर्ज पर ग्रामीण क्षेत्रों में अपनी पकड़ बनाई है। अगर आंकड़े देखें, तो पता चलेगा कि विपक्ष को आतंकित करने में तृणमूल दक्षिण बंगाल में सर्वाधिक सफल हुई है, जो उसका मजबूत गढ़ है। वीरभूम में तो 90 फीसदी सीटों पर विपक्ष उम्मीदवार खड़े नहीं कर पाया स्पष्ट है कि जिस परिवर्तन के नारे के साथ ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल में सत्ता हासिल की, वह खोखला नारा ही है। असली परिवर्तन तो तब होगा, जब राज्य में पिछले पचास साल से व्याप्त राजनीतिक हिंसा पर लगाम लगाया जाएगा।


दैनिक भास्कर

ट्विटर के डेटा का मोलभाव और निजता का सवाल 

फेसबुक के बाद अब ट्विटर के डेटा की सौदेबाजी ने एक बार फिर लोगों की निजता के उल्लंघन और सार्वजनिक बहस व जनमत को अनुचित तरीके से प्रभावित करने का विवाद उठा दिया है। माइक्रो-ब्लागिंग प्लेटफॉर्म ट्विटर ने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के शोधार्थी अलेक्सांद्र कोगन को एक दिन के लिए अपना डेटा देखने की छूट दी थी। इस दौरान उन्होंने दिसंबर 2014 से अप्रैल 2015 तक ट्विटर पर उपलब्ध पांच माह के डेटा को एक साथ हासिल करके उनका मनोवैज्ञानिक जीवन वृत्त बनाया और उससे ऐसा उपकरण बनाया, जिसने कैम्ब्रिज एनालिटिका को राजनीतिक प्रचार में मदद की। हालांकि, इस समाचार का ट्विटर ने खंडन किया है और उसका मानना है कि हैकिंग जैसा कुछ नहीं हुआ है। इसके बावजूद कंपनी इस बात से इनकार नहीं कर रही है कि उसने कोगन की कंपनी जीएसआर को एक दिन के लिए डेटा बेचा। कंपनी का दावा है कि डेटा सार्वजनिक हैं और उसे कोई भी देख सकता है। लेकिन, कंपनी जब भी थोक में किसी को डेटा उपलब्ध कराती है तो उसके लिए सौदा करती है और इस मामले में ऐसा हुआ है। कानून की अनुपस्थिति के कारण यह मामला नैतिकता और अनैतिकता के बीच फंसकर रह गया है। सवाल यह है कि अगर डेटा सही हैं और उनका कोई सही उद्देश्य के लिए इस्तेमाल कर रहा है तो इसमें गलत क्या है? गलत इसलिए है कि क्योंकि उन डेटा का इस्तेमाल करके चुनाव में कन्सल्टेंसी करने वाली कंपनियां सार्वजनिक बहस को मनमानी दिशा देती हैं, सार्वजनिक संस्थाओं को प्रभावहीन करती हैं। सबसे बड़ा अपराध तो झूठी खबरों और जानकारियों का परोसा जाना है और वह काम डेटा माइनिंग के माध्यम से ही हो रहा है। ब्रेग्जिट और अमेरिकी चुनाव में हुई धांधली तो हमारे सामने है ही और इसीलिए अपनी करतूतों के लिए माफी मांगते हुए मार्क ज़करबर्ग ने भारत, ब्राजील और दुनिया के अन्य देशों के लिए फिल्टर लगाने की बात की है। फेसबुक के मुकाबले ट्विटर दुनिया के विशिष्ट लोग प्रयोग करते हैं इसलिए उसके 8.7 करोड़ लोगों का डेटा फेसबुक के 2.2 अरब लोगों के मुकाबले कम लग सकता है पर विशिष्ट लोगों के जुड़े होने के कारण ट्विटर का प्रभाव और प्रामाणिकता ज्यादा है। चिंता की बात यह है कि यूरोपीय संघ तो 25 मई से सामान्य डेटा संरक्षण नियमावली लागू करने जा रहा है, लेकिन भारत जैसे देश अभी भी उन कंपनियों के भरोसे बैठे हैं।


दैनिक जागरण

पाकिस्तान से संवाद
पाकिस्तान के साथ सरकार के स्तर पर सीधी बातचीत के बजाय दोनों देशों के कुछ चुनिंदा लोगों के बीच वार्ता का अनौपचारिक सिलसिला कायम होने को लेकर तनिक भी उत्साहित नहीं हुआ जा सकता। इस तरह की बातचीत को भले ही अनौपचारिक कूटनीतिक पहल के तौर पर परिभाषित किया जाए, लेकिन अब तक का अनुभव यही कहता है कि संवाद के इस सिलसिले से कुछ हासिल नहीं होता। इस बार भी ऐसा ही कुछ हो तो हैरत नहीं। इसके बावजूद इस तरह की बातचीत का सिलसिला कायम रखने में कोई हर्ज नहीं, क्योंकि इससे दोनों देशों की सरकारें एक-दूसरे की चिंताओं और अपेक्षाओं से अवगत हो जाती हैं। नि:संदेह इस तरह की अनौपचारिक वार्ता औपचारिक वार्ता का आधार भी बन सकती है, लेकिन पाकिस्तान के मौजूदा हालात को देखते हुए इसके आसार न के बराबर हैं। पाकिस्तान में सत्तारूढ़ दल के मुखिया नवाज शरीफ सेना और सुप्रीम कोर्ट की जुगलबंदी के चलते शासन व्यवस्था से बाहर हैं और जब आम चुनाव करीब आ गए हैं तब उनका राजनीतिक भविष्य बुरी तरह डांवाडोल है। नवाज शरीफ ने अपने स्थान पर जिन शाहिद खाकान अब्बासी को प्रधानमंत्री पद पर बैठाया है वह राजनीतिक रूप से बेहद कमजोर हैं। खुद अपने लोगों की निगाह में वह ऐसे कामचलाऊ प्रधानमंत्री हैं जो तनिक भी प्रभाव नहीं छोड़ सके हैं। आखिर जब राजनीतिक तौर पर ताकतवर नवाज शरीफ के जमाने में सेना पाकिस्तान के सत्ता प्रतिष्ठान पर हावी थी और इसी कारण पठानकोट हमले की जांच भटक गई तब फिर यह उम्मीद कैसे की जाए कि उनके कमजोर उत्तराधिकारी विदेश नीति के मामले में प्रभावी हो सकते हैं? यह भी ध्यान रहे कि नवाज शरीफ के इस्तीफे के बाद पाकिस्तान में सेना प्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा की अहमियत की कहीं अधिक बढ़ गई है। यह तथाकथित बाजवा सिद्धांत की चर्चा से भी जाहिर होता है। 1पाकिस्तानी सेना बाजवा सिद्धांत की चाहे जैसी व्याख्या क्यों न करे, भारत के मामले में उसका रवैया जस का तस है। तमाम मुश्किलों से घिरने के बाद भी पाकिस्तानी सेना भारत से बदला लेने और सबक सिखाने की अपनी पुरानी नफरत भरी मानसिकता का परित्याग करती नहीं दिखती। सीमा के हालात इसकी गवाही भी देते हैं। यह किसी से छिपा नहीं कि सीमा पर संघर्ष विराम एक अर्से से उल्लंघन का पर्याय बना हुआ है। एक ऐसे समय जब पाकिस्तान नई सरकार का इंतजार कर रहा है तब उसके ऐसे लोगों से अनौपचारिक बातचीत का कोई खास महत्व कैसे हो सकता है जो सेना के रवैये में कोई बदलाव लाने में सक्षम न हों? यह संभव है कि पाकिस्तानी सेना ने ऐसे कोई संकेत दिए हों कि वह भारत के प्रति अपने शत्रुतापूर्ण रवैये को छोड़ने के लिए तैयार है, लेकिन जब तक इसके ठोस प्रमाण नहीं सामने आते तब तक पाकिस्तान से सावधान रहने में ही भलाई है। यह सही है कि नीमराना संवाद के तहत अनौपचारिक वार्ता के टूटे हुए क्रम को आगे बढ़ाने की अपेक्षा इस्लामाबाद ने जाहिर की थी, लेकिन इस वार्ता के बाद ऐसा कुछ भी नहीं किया जाना चाहिए जिससे भारत को एक और बार धोखा खाना पड़े।


देशबन्धु

जातिप्रथा से बदसूरत समाज

अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण कानून यानी एससी/एसटी एक्ट में संशोधन के खिलाफ दलित संगठनों ने मंगलवार, 1 मई यानी अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस के दिन प्रतिरोध दिवस मनाया। दलित मूवमेंट फॉर जस्टिस (एनडीएमजे) के महासचिव डॉ. वी ए रमेन नाथन के मुताबिक भारत के मजदूर वर्ग के ज्यादातर लोग अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति से आते हैं। हमें दलितों, आदिवासियों, औरतों और बच्चों के मानवाधिकारों के लिए बहुत कुछ करना है।

वो अब भी हिंसा और भेदभाव झेल रहे हैं। इसलिए 1 मई का ही दिन इसके लिए चुना गया। इससे पहले 30 अप्रैल को बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर गुजरात में 3 सौ से अधिक दलितों ने बौद्ध धर्म अपना लिया। इसमें वह ऊना का वह परिवार भी शामिल है, जिसके सदस्यों को जुलाई 2016 में तथाकथित गौरक्षकों ने कोड़ों से मारा था और बाकायदा उसका वीडियो भी बनाया था। अभी अप्रैल में ही 11 तारीख को महाराष्ट्र के शिरसगांव में 500 से अधिक दलितों ने बौद्ध धर्म अपनाया था।

संविधान निर्माता भीमराव अंबेडकर ने अक्टूबर 1956 में अपने हजारों अनुयायियों के साथ हिन्दू धर्म त्याग कर बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया था और तब से दलित अपना असंतोष और विरोध व्यक्त करने के लिए धर्मांतरण का सहारा लेते हैं। अगर केवल अप्रैल महीने में 8 सौ दलितों के बौद्ध धर्म ग्रहण करने की आधिकारिक सूचना है, तो इससे यह जाहिर होता है कि दलितों पर अत्याचार जारी है और इसके कारण उनमें असंतोष भी बढ़ रहा है।

हाथ कंगन को आरसी क्या, केेंद्र में बैठी मोदी सरकार देख ले कि उसके राज में दलितों की क्या दशा है। अप्रैल माह के ही कुछ उदाहरण उसके सामने है। उत्तरप्रदेश में एक दलित व्यक्ति अपने खेत पर गेहूं की फसल काट रहा था, तब गांव के कुछ दबंगों ने उनके खेत की फसल काटने के लिए उस पर दबाव बनाया। दलित ने ऐसा करने से इनकार किया तो नाराज दबंगोंं ने उसके साथ मारपीट की, फिर पेड़ से बांध कर उसकी मूंछे खींच लीं और अमानवीय व्यवहार किया। दूसरा उदाहरण हरियाणा का है, जहां सवर्ण जाति की एक लड़की के कथित तौर पर एक अनूसूचित जाति के लड़के के साथ प्रेमप्रसंग के कारण घर छोड़ने पर दलितों के घर पर तोड़-फोड़ की गई थी।

पुलिस का कहना है कि गांव के दलितों को डराने के लिए यह किया गया। आरोपी दलितों के घर गए और उनकी संपत्ति को नुकसान पहुंचाया। गांव के सरपंच का भी कहना है कि हमलावरों ने अनुसूचित जाति के सभी लोगों के घरों में तोड़-फोड़ की। तीसरा उदाहरण मध्यप्रदेश का है, जहां धार में पुलिस आरक्षक पद पर भर्ती के लिए आए आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों की छाती पर एससी-एसटी लिख दिया गया। कहा गया कि इससे पहचान आसानी से की जा सके, इसलिए ऐसा किया गया है। जब इस पर विवाद खड़ा हुआ तो अधिकारियों की सफाई आई कि  इस तरह से लिखने का कोई आदेश नहीं दिया गया था। याद करें रक्षाबंधन के मौके पर भोपाल सेंट्रल जेल में अपने परिजनों से मिलने पहुंचे लोगों के चेहरे पर जेल प्रशासन द्वारा मुहर लगा दी गई। दो अबोध बच्चों के गाल पर जेल की मुहर वाली तस्वीर सार्वजनिक हुई तो मानवाधिकार आयोग, बाल आयोग सभी हरकत में आए।

जेल प्रशासन का कहना था कि यह मुहर जान-बूझकर उनके गाल पर नहीं लगाई गयी थी, गलती से हाथ पर लगने की बजाय गाल पर लग गया होगा। इस मामले के बाद कड़ी कार्रवाई करने का भरोसा दिलाया गया था। लेकिन वह कड़ाई अब तक नजर नहींआई। दीवार फिल्म का वह डायलाग तो कोई भूल नहीं सकता कि जाओ पहले उससे साइन करा के लाओ, जिसने मेरे हाथ पर लिखा कि मेरा बाप चोर है। क्या हकीकत में भी हम इसी तरह का अमानवीय समाज बनाना चाहते हैं? पुलिस भर्ती में अगर आरक्षण की व्यवस्था है, तो क्या इसके साथ अपमान करने की भी व्यवस्था है? पुलिस की वर्दी पर तमगे सुंदर लगते हैं, लेकिन क्या छाती पर किसी की जाति का लिखा जाना समाज की सुंदरता बढ़ाएगा या जातिप्रथा से बिगड़े हमारे समाज को और बदसूरत बनाएगा?


Times Of India  

Justices Lash Out

The Indian system is often long on legislation and litigation and short on justice. The Supreme Court’s dismay over Union government engaging in frivolous litigation by repeatedly filing appeals on already settled identical questions of law puts the onus on the executive to reform. “When will the Rip Van Winkleism stop and Union of India wake up to its duties and responsibilities to the justice delivery systems?” Justices Lokur and Gupta asked, recalling the carefree fictional character who slept 20 years only to wake up to a changed world, while highlighting government’s failure to finalise a National Litigation Policy and reduce pendency of cases.

Only lawyers on either side seem to be benefiting. The court was piqued that the Centre engaged as many as 10 lawyers to fight redundant matters, a case of ‘non-application of mind’ as courts like to put it. A 2016 study had found that high court judges could devote just 5-6 minutes on average to decide a case if they were to hear all the matters listed daily. The tearing hurry can have an impact on quality of justice dispensed while leaving hapless litigants shortchanged. Last year, the Union law ministry noted that 46% of 3.2 crore pending cases were filed by central or state governments.

India’s ease of business ranking is stymied by long pendency of cases. While government calls on judiciary to reform, the judgment said the “boot is really on the other leg”. However, this will be contested as judges too contribute to inconclusive litigation. Judges cannot evade blame for entertaining matters better dealt with by executive like the highway liquor ban, or patently frivolous PILs, or indulgence towards petitioners seeking interim relief in matters progressing in lower courts, or Delhi’s relentless sealing drive.

While it may be counterproductive and even dangerous to restrict private litigants from filing appeals, government needs to be circumspect on persevering with bad cases after unfavourable verdicts. Ideally, SC and HCs being constitutional courts should have more time to focus on constitutional cases. The US model of evolving a “national court of appeal” was mooted and should be followed up. Meanwhile, government must expedite judicial appointments and fill vacancies. 20% of sanctioned posts in SC and 38% in HCs are lying vacant. The judiciary’s angst over government’s twin failures as a responsible litigant and appointing authority deserves to be heeded.


The Indian Express

 

Lost Opportunity
A reshuffle of the Jammu & Kashmir cabinet was on the cards for months, with the People’s Democratic Party and the BJP, the two partners in the ruling coalition, keen to induct new faces. But clearly, the matter was precipitated by the resignations of Chowdhary Lal Singh and Chander Prakash Ganga, after national outrage over their participation in a rally organised by the openly communal Hindu Ekta Manch (HEM) condemning the J&K police investigation and arrests in the Kathua rape case. The BJP had asked the two to step down. Ram Madhav, the BJP pointman for J&K, had said at the time that the ministers had committed an “indiscretion” by attending the rally, and that by getting them to resign, the party “has done our bit to address or allay fears and misconceptions in the minds of the people not only in Jammu or Kashmir but also the entire country”. So then, what to make of the inclusion of the Kathua MLA Rajiv Jasrotia, who was also present at the same rally, though he did not have a speaking part in it?
The most generous explanation is that as the elected representative of the area, he had to be present when two senior party men, both ministers, visited his constituency. But it does give room for the fears that Madhav spoke about two weeks ago in Jammu, especially when read together with other signals emerging from the reshuffle. Nirmal Singh, who had refused to be drawn into the clamour for handing over the rape-murder investigation to the CBI, has been dropped from the cabinet and is the next Speaker. He has traded places with Kavinder Gupta, whose first remarks after being sworn in were that the Kathua rape was a “small incident” that had been “hyped” up by the media. Though he later claimed the statement had been misinterpreted, it appears the BJP does not want to be seen as acknowledging that some of its members actively, and unacceptably, polarised a gruesome crime along religious lines.
Nor does it want to be seen as “surrendering” to the PDP: Madhav stressed after the reshuffle that there was no question of “surrender”. Such talk can only serve to polarise people more, and perhaps that is the idea. But it sits ill with two parties that are coalition partners who have a mutually agreed Agenda for Alliance. The cabinet reshuffle indicates that despite their ideological mismatch, the PDP and BJP have decided they will complete the remaining three years of this government’s term. But unless they stop conducting themselves like the adversaries they clearly are, they are not going to be able to govern the state together, nor use the time they have left to fulfill any of the promises they have made to the people of J&K.


The New Indian Express

 

The Grey Area Between Light and Darkness
Prime Minister Narendra Modi recently took to Twitter to announce that the country had finally achieved 100 per cent electrification seven decades after Independence. The village of Leisang in Manipur bore the distinction of being the last village to be connected to the power grid.When he took his oath of office in May 2014, Modi identified 18,400 villages without electricity as his focus of attention; and 12 days before the announced deadline, these areas of darkness had been lit up, or so the story goes. After a round of celebrations, questions have poured in.

What does this ‘electrification’ mean? A village is officially ‘electrified’ if 10 per cent of the households, and major public places like schools and administrative buildings have power connections. A Bloomberg survey estimated that just 8 per cent of the households in the newly electrified villages had electricity.Recognising that more ‘intensive’ electrification was needed, a $2.5 billion programme called Sahaj Bijli Har Ghar Yojana—a project to bring power to every household—was launched last year. Of the 36 million households identified, just 13 per cent have been given power connections so far. Such has been the level of scepticism that the Centre was forced to put out a press release saying “household electrification level in rural areas is more than 82 per cent, ranging from 47 to 100 per cent across states.”

In this debate, the quality of power distribution and delivery has been forgotten. Does an electric pole in the village square with wires running to a few households signify people enjoying uninterrupted power? Large swathes of rural India continue to be dark as load-shedding ensures barely four to six hours of power supply a day. In the remote villages of mountainous Uttarakhand, people see their bulbs light up perhaps twice a month! India’s power distribution system, operated by state electricity boards, is notorious for its inefficiency. Mere connectivity is not enough. To spark an economic revolution we need continuous and good quality power. Till then, it is better to mute our celebrations.


The Telegraph

Deeper Malaise
The sacred may not be divine in India. Last week, a Jodhpur special court convicted the 77-year-old Asaram, famed as godman, of raping a teenage girl. His fanatical followers – of whom there are many – cried foul and thronged his ashram. In a similar incident last year, the followers of Gurmeet Ram Rahim, a supposed messiah who awoke a similar devotion, unleashed terror on public life when their leader was convicted of raping two women. Blatant support for the convicted babas is, perhaps, not the new low: there has been a rally in support of those accused of raping and killing an eight-year-old girl in Kathua. But these reactions, stemming from an imagination of the leader as sacrosanct, call for an understanding of the phenomenon of quasi-religious cults in India. It is to be remembered that these institutions draw their supporters mostly from vast sections that still feel deprived. For them, the State is a distant – and often inaccessible or bewildering – entity that seems to have done little to solve their daily travails arising from the lack of education, employment and also discrimination. The ashrams, often through social work, address some of their grievances while apparently providing spiritual support, thus opening up the way to indoctrination and loyalty to the guru. It has been observed that cults flourish during times of intense social and political change. In such times, characterized by lawlessness and the crisis of identity, the need to rely on a higher authority becomes foremost. With the State perceived as unable to provide assurance, it is the charisma of the cult leaders – irrespective of how it is produced – that draws many of those who feel lost or let down.
In India, religion and politics often work hand in hand. Cults thrive in this environment. The supporters that these groups gather are seen by the political elite as possible vote banks. Is that why law-enforcing institutions often turn a blind eye to the doings of cults? By extending such privileges as tax exemption or lawyers’ patronage to these outfits, a political leader can be assured of an electoral backing. The dependence is mutual, for cults rely on political largesse – they are rich in land and money – for influence. If, suddenly, the law appears to turn against the cult leader, it is perceived by the followers as a hostile force. So, unless there is dedicated effort towards education, more such cults will rear their heads and bring with them irrationality and violence.