बमुश्किल एक हफ्ता पहले ‘दि कारवाँ’ पत्रिका के राजनीतिक सम्पादक हरतोश सिंह बल प्रेस क्लब के दालान में बैठे हुए जिस बात का ज़िक्र अनौपचारिक तौर पर कर रहे थे, कौन जानता था कि उसे लिखित रूप में दर्ज कर के वे इस दौर की पत्रकारिता पर एक ऐतिहासिक टिप्पणी में तब्दील कर देंगे.
उस दिन किसी मित्र ने हरतोश से यूं ही पूछा था कि क्या अब भी वे टाइम्स नाउ की परिचर्चा में जाते हैं. इस सवाल का जवाब हरतोश ने जो उन्हें दिया, वह बात तफसील से उन्होंने २२ फरवरी को ‘दि कारवाँ’ पर एक अहम टिप्पणी में दर्ज कर दी है जिसका शीर्षक है ‘The path away from Arnab Goswami cannot lead us back to Barkha Dutt‘.
हरतोश इस लेख में लिखते हैं:
“मैं पिछले पांच साल से पैनलिस्ट के तौर पर टाइम्स नाउ के परदे पर आता रहा हूं। बमुश्किल बीते दो महीनों से मेरा यहां आना बंद हो गया जब मैंने भारत के वित्त मंत्री और सूचना व प्रसारण मंत्री अरुण जेटली के बारे में अपनी राय को चैनल के लिए नरम करने से मना कर दिया था।”
वे बताते हैं कि बीते पांच वर्षों में टाइम्स नाउ के बारे में उनकी प्रतिक्रिया मिश्रित रही है! “मैंने इसकी सराहना भी की है और मुझे इससे नफ़रत भी हुई है। इसकी अतिनाटकीयता को छोड़ दें, तो यह बात सच है कि चैनल ने सत्ता के मुंह पर सच को बोलने का साहस किया था जब यूपीए की सरकार थी। इसने सत्ताधारी गठबंधन को नए-नए तरीकों से चुनौती दी थी, खासकर राडिया टेप के मामले में, चूंकि उस सरकार और एनडीवी की कंसल्टिंग एडिटर बरखा दत्त जैसे पत्रकारों के बीच मधुर रिश्ते थे। मुझे दिक्कत 2014 के चुनाव के दौरान अर्नब गोस्वामी की उस विरोधाभासी मुद्रा से हुई जब उन्होंने राहुल गांधी का बेहतरीन लेकिन आक्रामक साक्षात्कार लिया जबकि इसके उलट नरेंद्र मोदी का साक्षात्कार लेते वक्त वे नरम दिखे। यह आशंका हालांकि काफी हद तक दूर हो गई जब जून 2015 में ललित मोदी के मामले में चैनल ने राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे और विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को आड़े हाथों लिया।”
इसके बाद हालांकि चैनल से उन्हें असली दिक्कत होने लगी. वे लिखते हैं:
“किसी स्टोरी में अगर कोई पत्रकार घुस जाता है तो वह आसानी से उसे नहीं छोड़ता, लेकिन आश्चर्य था कि ललित मोदी की स्टोरी रहस्यमय तरीके से पूरी तरह गायब हो गई। यह कॉमनवेल्थ खेलों की कवरेज के बीचोबीच उसके घोटाले की खबर के गायब होने जैसा था। इसके बाद गोस्वामी ने लेखकों और कलाकारों द्वारा पुरस्कार वापसी के मसले पर सरकार के समर्थन का पक्ष अपना लिया। ऐसे मसलों पर उनका पक्ष और उनके विचार एक जैसे थे। गोस्वामी द्वारा ललित मोदी वाली खबर को बीच में छोड़ दिए जाने और सरकार का पक्ष अपना लेने के सिलसिले ने मेरे लिए गंभीर शक्ल तब अख्तियार कर ली जब मुझसे चैनल की जरूरतों के हिसाब से अपने विचार संपादित करने को कहा जाने लगा। इससे यह समझ में आ रहा था कि यह एंकर अपनी बात कहने के बजाय सत्ता की ओर से बोल रहा है। जेएनयू वाले मसले के दौरान गोस्वामी ने जो कुछ भी किया है, उससे उनके बारे में यह धारणा और पुख्ता हुई है।”
इस लेख में पत्रकारिता की उदार आवाजों को भी हरतोश अपने निशाने पर लेते हुए राडिया टेप काण्ड में बरखा दत्त आदि की संलिप्तता का हवाला देते हैं और कहते हैं कि “अर्नब गोस्वामी से छुटकारा पाने के लिए हम वापस बरखा दत्त के पास नहीं जा सकते। ठीक वैसे ही मोदी से मुक्ति का रास्ता कांग्रेस की ओर हरगिज़ नहीं जाता।”
अर्नब के बारे में हरतोश की अंतिम राय को इन शब्दों में पढ़ा जा सकता है, ”मोदी सत्ता में यह वादा कर के आए थे कि वे राजकाज के स्थापित तरीकों को बदल कर रख देंगे लेकिन वे उसी का हिस्सा बनकर रह गए। ठीक उन्हीं की तरह गोस्वामी ने भी वादा किया था कि वे बरखा दत्त जैसों की सरकारी पत्रकारिता का एक विकल्प मुहैया कराएंगे, लेकिन यह वादा धरा का धरा रह गया और वे भी सत्ता प्रतिष्ठान के पाले में जा बैठे।”