आधार कानून के तहत पहली FIR का शिकार बना दिल्‍ली का पत्रकार

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साल भर पुराने आधार कानून की खामियों को लेकर अब भी बहस जारी है, लेकिन इस बीच इस कानून के अंतर्गत दिल्‍ली में पहली एफआइआर दर्ज हो चुकी है। यह मामला सीएनएन न्‍यूज़ 18 के पत्रकार देबायन रॉय के खिलाफ़ दर्ज किया गया है जिन्‍होंने आधार के पंजीकरण में मौजूद खामियों को दर्शाने के लिए एक स्‍टोरी की थी। इस स्‍टोरी का नतीजा यह हुआ कि उन्‍हीं के खिलाफ इस आरोप में मुकदमा मढ़ दिया गया कि उन्‍होंने एक ही पहचान के आधार पर दो नामों से आधार कार्ड बनवाने की कोशिश की।

देबायन द्वारा रिपोर्ट की गई न्‍यूज़ 18 की स्‍टोरी में यह दिखाने की कोशिश की थी कि एक व्‍यक्ति एक ही सूचना के आधार पर दो आधार संख्‍याएं हासिल कर पाने में सक्षम है। चूंकि रॉय को इस पूरी प्रक्रिया के बाद आधार कार्ड नहीं प्राप्‍त हुआ, तो ज़ाहिर है यूनीक आइडेंटिफिकेशन अथॉरिटी (यूआइडीएआइ) के पास कहने को यह होगा कि उसकी प्रक्रिया फुलप्रूफ है और उसने एक गलत काम होने से रोक लिया। सवाल हालांकि इससे कहीं ज्‍यादा व्‍यापक है जिसे न्‍यूज़ 18 की स्‍टोरी उठाती है।

https://youtu.be/tOeTkSizUfc

बड़ा सवाल यह है कि कोई भी विदेशी नागरिक जो अवैध तरीके से देश की सीमा में आया हो, वह मात्र 700 रुपये खर्च कर के एक आधार कार्ड बनवा सकता है और उसके बाद तमाम तरीके की सुविधाएं हासिल कर सकता है। यूआइडीएआइ ने स्‍टोरी के इस पहलू को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया है। ऐसे मामले वास्‍तव में सामने आ चुके हैं जहां एक ही व्‍यक्ति एक ही तरह की सूचनाएं देकर दो आधार कार्ड बनवा चुका है।

न केवल इंसानों का बल्कि कुत्‍तों का आधार कार्ड भी बन चुका है और भगवान हनुमान का आधार कार्ड तो बहुत पहले बन चुका था।

 

कुछ दिन पहले देश के जाने-माने अर्थशास्‍त्री ज्‍यां द्रेज़ ने आधार कानून की खामियों पर सवाल उठाते हुए टाइम्‍स ऑफ इंडिया से कहा था, ”कानून के पहले मसविदे और आखिरी स्‍वरूप के बीच एक बड़ा भारी बुनियादी अंतर रहा है- पूर्ववर्ती मसविदा अथॉरिटी द्वारा प्रमाणन के मसले पर ‘हां और ना’ में बात करता था जबकि 2016 के कानून में व्‍यक्तियों की सूचना के एजेंसियों तक हस्‍तांतरण की बात शामिल है।” उनका कहना है कि कोई भी व्‍यक्ति या एजेंसी अगर यूआइडीएआइ से किसी व्‍यक्ति के विवरण प्राप्‍त करने का अनुरोध करे, तो उसे डेमोग्राफिक सूचना एक निश्चित शुल्‍क अदा करने के बाद हासिल हो जा सकती है, जिसमें बेशक बायोमीट्रिक विवरण नहीं होंगे।

नागरिक द्वारा कंसेन्‍ट यानी सहमति का मामला इतना भर है कि ऐप डाउनलोड करने के बाद उसे एक लंबे से टेक्‍स्‍ट पर ‘आइ अग्री’ (मैं सहमत हूं) का निशान लगाना होता है। इतने भर से कोई एजेंसी चाहे तो उसकी सूचना यूआइडीएआइ से खरीद सकती है।

आधार कार्ड के मामले में पहले भी एक एफआइआर स्‍कॉच डेवलपमेंट फाउंडेशन के चेयरमैन और मोदीनॉमिक्‍स नामक पुस्‍तक के लेखक समीर कोचर के खिलाफ की जा चुकी है, लेकिन चह मुकदमा आइटी कानून के अंतर्गत दर्ज किया गया था क्‍योंकि उस वक्‍त दिल्‍ली पुलिस के सिस्‍टम में आधार कानून की धारा के तहत एफआइआर करने की सुविधा नहीं थी। कोचर ने अपनी पत्रिका Inclusion में एक लेख लिखा था जो आधार प्रणाली पर सवाल उठाता था। लेख का शीर्षक था- Is a deep state at work to steal digital India.

दो हफ्ते बाद एजेंसी ने कोचर पर एफआइआर दर्ज कर दी। इस मामले पर scroll.in ने पूरे विवरण के साथ एक स्‍टोरी प्रकाशित की थी। उसे यहां देखा जा सकता है और समझा जा सकता है कि क्‍यों और कैसे आधार प्रणाली की खामियां उजागर करने वालों के खिलाफ़ मुकदमे कायम किए जा रहे हैं।

(इस ख़बर में मीडियानामा पर छपी एक ख़बर से कुछ सामग्री साभार ली गई है)