मीडियाविजिल अपने पाठकों के लिए एक विशेष श्रृंखला शुरू कर रहा है। इसका विषय है ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और विकास। यह श्रृंखला दरअसल एक लंबे व्याख्यान का पाठ है, इसीलिए संवादात्मक शैली में है। यह व्याख्यान दो वर्ष पहले मीडियाविजिल के कार्यकारी संपादक अभिषेक श्रीवास्तव ने हरियाणा के एक निजी स्कूल में छात्रों और शिक्षकों के बीच दो सत्रों में दिया था। श्रृंखला के शुरुआती चार भाग माध्यमिक स्तर के छात्रों और शिक्षकों के लिए समान रूप से मूलभूत और परिचयात्मक हैं। बाद के चार भाग विशिष्ट हैं जिसमें दर्शन और धर्मशास्त्र इत्यादि को भी जोड़ कर बात की गई है, लिहाजा वह इंटरमीडिएट स्तर के छात्रों और शिक्षकों के लिहाज से बोधगम्य और उपयोगी हैं। इस कड़ी में प्रस्तुत है ”ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और विकास” पर दूसरा भाग:
हमारे ज्ञान का अब तक अर्जित जो भंडार है, उससे हम खुद को भी उतना ही जान पा रहे हैं जितना अपने से बाहर की प्रकृति को। कुल पांच परसेंट। बाकी 95 परसेंट अज्ञात है, अदृश्य है। जाहिर है, जितना ज्ञात है, बात उसी के बारे में की जा सकती है। उसके आगे तो अंदाजा ही लगाना होगा। अलग अलग अंदाजे लगाए गए हैं और उन्हें पुष्ट करने के लिए प्रयोग भी किए जा रहे हैं। विज्ञान जितने बड़े प्रयोग कर रहा है, उतने ही सूक्ष्म प्रयोग भी कर रहा है। एक तरफ ब्रह्मांड के ओर छोर को जानने की ख्वाहिश है, तो दूसरी तरफ डीएनए के भीतर झांकने की कोशिश है। हमारा सारा ज्ञान विज्ञान पांच परसेंट मैक्रो और पांच परसेंट माइक्रो के बीच फंसा हुआ है। इसीलिए जब भूकम्प आता है, सुनामी आती है, उल्कापात होता है, तूफान आता है, तो हम लोग डर जाते हैं। नियतिवादी हो जाते हैं। भगवान को याद करने लगते हैं। यह डर अज्ञात का डर है, अदृश्य का डर है। अजीब बात है। जो अदृश्य है, अज्ञात है, उससे कैसा डर? उससे काहे डरना? दरअसल इस डर की एक बुनियादी वजह यह है कि मानवता अब तक जितना कुछ जान पाई है, हमारा उसमें भरोसा नहीं है। क्यों? क्योंकि हमने उसे जानने समझने की कोशिश ही नहीं की है।
इसीलिए, हम अब तक के ज्ञात ज्ञान के आधार पर नहीं सोचते। बल्कि ठीक उलटा होता है हमारे साथ। जैसे ही कोई अनिष्ट होता है, सारा ज्ञान अचानक छू-मंतर हो जाता है। हमारी हालत बचपन की कहानी वाली उस लोमड़ी की तरह हो जाती है जिसके सिर पर जब एक नारियल गिरा तो उसे लगा कि जैसे आसमान गिर गया है। वो ”आसमान गिरा” ”आसमान गिरा” चिल्लाते हुए भागती है। मजेदार यह है कि बाकी पशुओं की हालत भी उससे बेहतर नहीं है। उसके कहने पर सब मान लेते हैं कि आसमान गिर गया है। कोई भी इस दावे को जांचने की कोशिश नहीं करता कि वहां क्या गिरा था। हमारा समाज भी उस लोमड़ी की तरह है। भयंकर अवैज्ञानिक और अफ़वाहों में विश्वास रखने वाला। अगर उस लोमड़ी को आसमान के आकार (अगर होता हो तो) और नारियल के आकार में कफर्क पता होता, अगर उसने नारियल गिरते ही यह जानने की कोशिश की होती कि क्या गिरा है, तो पूरे जंगल में अफ़वाह नहीं फैलती।
कुछ साल पहले हमारे यहां हल्ला मचा था कि गणेश की मूर्ति दूध पी रही है। एक जगह से किसी ने यह दावा किया रहा होगा। देखते देखते पूरे देश में यह बात फैल गई। किसी ने उस पागलपन में यह कहने की कोशिश नहीं की कि पत्थरों में छोटे छोटे पोर्स होते हैं, छिद्र होते हैं जहां से कैपिलरी ऐक्शन होता है। आप किसी भी पत्थर को थोड़ा मोड़ा दूध पिला सकते हैं। इसे कहते हैं अवैज्ञानिकता।
ऐसा नहीं है कि हम लोग वैज्ञानिक विधि का सहारा नहीं लेते। बिलकुल लेते हैं, लेकिन हमें उसका पता नहीं होता। घर परिवार में कोई बताने वाला भी नहीं होता। जैसे, आप चावल पकाते हैं तो क्या चावल पका है या नहीं, यह जानने के लिए हर दाना चेक करते हैं? नहीं न? ऊपर से एकाध दाना उठाकर चेक करते हैं और उससे अंदाजा लगाते हैं कि चावल कितना पका होगा। यही वैज्ञानिक मेथडोलॉजी है। साइंस इसी को कहते हैं। हम लोग रोजमर्रा के जीवन में विज्ञान का इस्तेमाल करते हैं, लेकिन सोचते हैं कि विज्ञान कोई बहुत भारी चीज़ है। नहीं। चावल पका है या नहीं, इसे चेक करने का सदियों पुराना परंपरागत तरीका यानी एक दाना उठाकर चेक करना ही साइंटिफिक विधि है। वह दाना आपका साइंटिफिक मॉडल है। एक मॉडल के आधार पर आप जनरलाइज कर रहे हैं और मान रहे हैं कि प्रेशर कुकर में बंद बाकी दानों का हाल भी मोटे तौर पर वैसा ही होगा। यह धरती एक प्रेशर कुकर की ही तरह है। प्रेशर कुकर का उदाहरण याद रखिएगा। बाद में काम आएगा। इस धरती में भी प्रेशर कुकर की तरह तमाम चीजें पकती रहती हैं। जब प्रेशर बढ़ जाता है तो कुकर सीटी मारता है यानी भूकम्प आता है, सुनामी आती है, तूफान आता है। फिर प्रेशर रिलीज़ हो जाता है। सब कुछ संतुलन में आ जाता है। हमारा समाज भी एक प्रेशर कुकर की तरह है। अगर तकनीकी विवरण में न जाएं, तो कह सकते हैं कि यह ब्रह्मांड एक ऐसे विशाल प्रेशर कुकर की तरह है जिसमें जाने क्या-क्या पक रहा है। यह इतना बड़ा है कि हमें इसकी सीटी सुनाई नहीं देता। भाप दिखाई नहीं देता। बस…। फिर सवाल उठता है कि प्रकृति के साथ, अस्तित्व के साथ हम लोग अवैज्ञानिक क्यों हो जाते हैं? जितना कुछ पता है, पहले उसे जानिए। उसके आधार पर जनरलाइज कर लीजिए। फिर देखिए, भूकम्प आने पर आपको डर नहीं लगेगा।
सारे ज्ञान विज्ञान का मूल उद्देश्य यही है कि मनुष्य डरे नहीं। सोचिए, एक ज़माने में आदिमानव बिजली कड़कने से डरता था। आग से डरता था। बारिश से डरता था। उसका ज्ञान सीमित था। उसने सूरज को, चांद को, हवा को, पानी को देवता बना लिया। इंद्र देवता, वरुण देवता, अग्नि देवता, आदि। मतलब, जिससे डर लगता है, जिसके बारे में ज्ञान नहीं है, उसे भगवान बना लो। यही पद्धति रही है जीने की। लेकिन जैसे-जैसे ज्ञान बढ़ता गया, इस पद्धति को भी इम्प्रोवाइज़ होते जाना चाहिए था। वो हम लोगों ने नहीं किया। एक उदाहरण लीजिए। वैज्ञानिक कहते हैं कि ब्रह्मांड में 73 फीसदी डार्क एनर्जी है। इसके बारे में हमें कुछ नहीं मालूम। पानी को लीजिए। इस धरती पर 70 परसेंट से ज्यादा पानी है। सोचिए, अगर हमें यह पता नहीं होता कि पानी क्या है, तो जीवन कितना दुश्वार हो जाता। क्या पानी के बगैर जीवन मुमकिन है? नहीं। हमने पानी को जाना, समझा और उसके सहारे जीने लगे। हो सकता है किसी दिन हम डार्क एनर्जी को भी जान जाएं। शायद वह हमारे काम की हो।
हो सकता है हमें 95 परसेंट अज्ञात का पता कल चल जाए। लेकिन ये जो पांच परसेंट ज्ञात है, इसे तो कम से कम भगवान न मानें। इससे न डरें। इसी को हम साइंटिफिक टेम्पर कहते हैं। जो ज्ञात है, उसे जानकर उसी तरह बरतने का नजरिया। अगर इस समाज के पास यह जानकारी है, नजरिया है, तो कल को दोबारा यह अफवाह नहीं फैलने पाएगी कि गणेश की मूर्ति दूध पी रही है। कल को कोई आकर आपसे कह दे कि सबसे पहली प्लास्टिक सर्जरी गणेश की हुई थी, तो आप ज्यादा से ज्यादा हंस देंगे। बहरहाल, विषय पर लौटते हैं।
पहला भाग भी पढ़ें
हम और हमारा ब्रह्माण्ड: क्या, क्यों और कैसे के जवाब जानने की एक कोशिश