प्रकाश के रे
कुछ स्त्रियों द्वारा बिना मेकअप की सेल्फ़ियाँ लगाने के फ़ेसबुक अभियान के पक्ष-विपक्ष में पोस्टों और कमेंटों को पढ़ते हुए मुझे नाओमी वूल्फ़ की किताब ‘द ब्यूटी मिथ’ का ध्यान आया. इस शानदार किताब में उन्होंने यह साबित करने का प्रयास किया है कि ब्यूटी/सुंदरता वह आख़िरी और सबसे अच्छा आस्था तंत्र/बिलीफ़ सिस्टम है जिसने पुरुष वर्चस्ववाद को बरक़रार रखा है. वूल्फ़ इसे सांस्कृतिक षड्यंत्र की संज्ञा देती हैं जिसने स्त्रियों के लिए सौंदर्य के कुछ मानक निर्धारित कर दिया है- आपको छरहरी और सुडौल होना चाहिए, चेहरे पर चमक होनी चाहिए, आपकी त्वचा मुलायम और बाल रेशमी होने चाहिए, आपके स्तन तने हुए होने चाहिए आदि आदि.
सुंदर और आकर्षक दिखने की चाहत आदिम युग से ही हमारी सभ्यता का हिस्सा है और भिन्न-भिन्न संस्कृतियों में उसके हिसाब-किताब भी अलग-अलग रहे हैं. पर आधुनिक युग में जब सब कुछ ख़रीदने-बेचने का मामला बन गया, तो सौंदर्य के भी प्रतिमान गढ़े गये. वूल्फ़ रेखांकित करती हैं कि इस बेचने की प्रवृत्ति ने स्त्रियों को वह सारी चीज़ें बेचनी शुरू कर दीं, जिनकी असल में कोई ज़रूरत नहीं थी. कुछ समय पहले एक ख़बर पढ़ रहा था कि मुंबई में एक ऐसा क्लिनिक खुला है जहाँ डिज़ाइनर वेजाइना बनाया जाता है. क्लिनिक के रिसेप्शन पर आफ़्टर और बिफ़ोर की तस्वीरें बताती हैं कि यह चलन ज़ोर पकड़ रहा है और नोज़ करेक्शन तथा ब्रेस्ट इन्हैंसिंग की तरह ‘ब्यूटीफ़ुल’ वेजाइना भी एक ‘ज़रूरत’ बन जायेगा.
वूल्फ़ ने लिखा है कि सुंदरता के मिथ को मेनस्ट्रीम बनाने में स्त्री-केंद्रित पत्रिकाओं की बड़ी भूमिका रही है. वे कहती हैं कि हालांकि स्त्रीवाद के प्रचार-प्रसार में इन पत्रिकाओं ने योगदान दिया है, पर खान-पान, त्वचा की देखभाल और सर्जरी के जो हिस्से हैं, वे उनकी स्त्री-पक्षधरता को कमज़ोर बनाते हैं. उन्होंने इसके लिए विज्ञापनदाताओं की ओर संकेत किया है जो उनकी नज़र में ‘पश्चिम के भद्र सेंसर’ हैं.
विज्ञापनदाताओं का क़हर हम अपने देश की राजनीति से लेकर समाज तक पर बरपा देख ही रहे हैं. कॉरपोरेट का फ़ायदा इसी में है कि ज़्यादा-से-ज़्यादा स्त्रियाँ अपने को बूढ़ाता हुआ और कुरूप समझें तथा इससे निज़ात पाने के लिए ब्यूटी प्रोडक्ट ख़रीदें. लेकिन वूल्फ़ ने पुरुषों को भी चेताया है कि बाज़ार यह अवधारणा उन्हें भी बेचेगा. बेच ही रहा है. मेन ब्यूटी प्रोडक्ट्स की लंबी रेंज मार्केट में है.
हमारे देश में पॉपुलर सिनेमा ने तरह-तरह के ब्यूटी मिथ गढ़े हैं और इस काम को अब टेलीविज़न से सँभाल किया है. मुकुल केसवन ने ‘अगली इंडियन मेल’ में बहुत मज़ेदार ढंग से इस बात को लिखा है. हर भारतीय पुरुष को वह लेख पढ़ना चाहिए. वूल्फ़ की किताब तो महत्वपूर्ण है ही. उसके बहुत नज़दीक जो किताब मेरे ज़ेहन में आती है, वह है नीलिमा चौहान की ‘पतनशील पत्नियों के नोट्स’. बाज़ार, विज्ञापन, सिनेमा, टीवी और पॉर्न मिलकर नये तरह के कृत्रिम स्त्री और पुरुष को रच रहे हैं जो बाहर से तो आकर्षक दिखते हैं, पर भीतर-भीतर ज़ॉम्बी होते जाते हैं.
बहरहाल, अब आते हैं इस अभियान पर जो दो दिन से फ़ेसबुक पर चल रहा है और बहुत दम से चल रहा है. तस्वीरें पोस्ट करने के साथ कई स्त्रियों ने टिप्पणियाँ भी लिखी हैं जिनसे इस बात को समझने में और इसे आगे ले जाने में मदद मिल रही है. किसी भी मुद्दे की तरह इस मसले पर भी असहमतियों की गुंजाइश बराबर है, लेकिन मेरी सलाह यह है कि इसका विरोध करने, इस पर अँगुली उठाने या इसे ख़ारिज़ कर देने से पहले ‘थर्ड वेव फ़ेमिनिज़्म’ के मूल बातों पर नज़र डाली जाये. यह समझने की कोशिश हो कि इस अभियान को शुरू करनेवाले और उनका साथ देनेवाले क्या कह रहे हैं. यह भी टटोला जाये कि ऐसे हस्तक्षेप क्या मायने रखते हैं. प्रतिक्रिया देने की हड़बड़ी क्यों होनी चाहिए? और, मेरा आग्रह उनसे- स्त्री और पुरुष दोनों- है जो भलमनसाहत रखते हैं, समझ रखते हैं और स्त्रीवादी और अन्य प्रगतिशील विमर्शों से नाता रखते हैं. हँसी मे उड़ानेवालों और इसे मनोरंजक मान कर स्टेट्स लिखनेवालों और लिखनेवालियों से मुझे कुछ नहीं कहना है, सिवाए इसके कि कुछ सोचना शुरू करो.
आलोचनाओं और असहमतियों पर अभी कुछ नहीं कह रहा हूँ, पर अपनी समझ रख देता हूँ. पहली बात तो यह कि सौंदर्य पर एक बहस का माहौल बना इस अभियान से. दूसरी बात यह कि स्त्रीवाद के नये चरण का प्रांरभ मुझे दिख रहा है जो आनेवाले दिनों में रंग दिखायेगा. तीसरी बात यह कि सोशल मीडिया- जहाँ न सिर्फ़ हमारी तस्वीरें एडिट और इन्हैंस होकर जाती हैं, बल्कि हमारी बातचीत भी सधी हुई ही जाती है- में ‘नेचुरल’ दिखने और होने का यह आग्रह एक ज़रूरी दख़ल है.
चौथा असर जो मैं समझ रहा हूँ, वह है महिलाओं की नयी सॉलिडारिटी का बनना-बढ़ना जहाँ अन्य पहचानें कुछ पृष्ठभूमि में जाती दिख रही हैं. ध्यान रहे, कोई भी सकारात्मक परिवर्तन या हस्तक्षेप शरीर और व्यक्तिगत के आधार पर ही संभव हो सकता है. चाहे मसला मानवाधिकार का हो, जाति तोड़ने का हो या जेंडर जस्टिस का हो.
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और फिल्म समीक्षक हैं