( इंडिया टुडे के पूर्व संपादक दिलीप मंडल निजी चैनलों की बहसों में हिस्सा नहीं लेते। हाँलाकि वे ख़ुद आजतक, स्टार न्यूज़ और सीएनबीसी आवाज़ जैसे चैनलों में अहम पदों पर काम कर चुके हैं, लेकिन उनकी नज़र में न्यूज़ चैनल महज़ सर्कस हैं जहाँ जाना अपनी साख पर सवारी करने का मौक़ा देना है। वे नहीं समझते कि सोशल मीडिया के युग में किसी मुद्दे पर अपनी राय प्रसारित करने के लिए अब चैनलों में जाने की ज़रूरत है। दिलीप को यह भी शिकायत है कि चैनल बहुजन समाज की लाचारी पर तो ख़बर दिखाते हैं, लेकिन जैसे ही वह मुट्ठी तानता है, प्रतिरोध का तेवर दिखाता है, चैनल अपने कैमरा फेर लेते हैं। इस संबंध में उन्होंने अपनी फ़ेसबुक दीवार पर दो टिप्पणियाँ की थीं जिन्हें हम यहाँ साभार प्रकाशित कर रहे हैं–संपादक )
इस तस्वीर पर बहस करने के लिए NDTV का मेरे पास फोन आया. मैंने विनम्रता से मना कर दिया कि मैं प्राइवेट चैनलों की बहस में नहीं जाता… मैं कभी कभार सिर्फ राज्यसभा टीवी के कार्यक्रमों में जाता हूं. लोकसभा टीवी पर जाता रहा हूं. बस. और कहीं नहीं. फॉरेन नेटवर्क को मैं इंटरव्यू देता हूं. कल अमेरिकी नेटवर्क- वाइस को इंटरव्यू दिया.
मैं कई बार सार्वजनिक तौर पर कह चुका हूं कि भारतीय प्राइवेट न्यूज चैनल इस लायक नहीं बन पाए हैं कि वहां कोई संजीदा बातचीत की जाए.
वे सर्कस हैं और मुझे सर्कस के रिंग में तमाशा दिखाना अच्छा नहीं लगता.
न्यूज चैनल देखना भी मुझे पसंद नहीं हैं. बावजूद इसके कि मैंने चार न्यूज चैनलों में काम किया है और तीन में तो निर्णय लेने वाले पदों पर रहा हूं. मेरे बनाए कई शो को अवार्ड भी मिले हैं. लेकिन मुझे न्यूज चैनल ठीक नहीं लगते.
इसके बावजूद चैनलों से ऐसे कॉल आते रहते हैं, इसलिए यह बात दोहरानी जरूरी है.
हमारे पास सोशल मीडिया का पावरफुल हथियार है और हम सब मिलकर जब उचित लगे, किसी मुद्दे को राष्ट्रीय बनाने या संसद में उठवाने की हैसियत हासिल कर चुके हैं.
दर्जनों मामलों में सोशल मीडिया में मुद्दा उठा, राष्ट्रीय बना और फिर टीवी ने फॉलोअप किया. टीवी पीछे पीछे चलता है. सोशल मीडिया आगे आगे.
सोशल मीडिया पर हम लाखों ओपिनियन मेकर्स के बीच हैं, जो लिखते – सोचते हैं. टीवी के दर्शकों के बारे में मैं भरोसे से यही बात नहीं कह सकता.
मुझे नहीं लगता कि मुझे टीवी पर जाकर अपनी विश्वसनीयता पर उन्हें सवारी करने का मौका देना चाहिए.
क्या इस बारे में आपकी कोई राय है?
ओडिसा और गुजरात में क्या फर्क है?
गुजरात में ऊना कांड के बाद 9 दिनों तक राज्य में कोहराम मचा रहा. कलेक्टर के ऑफिस में मरी गाय फेंक दी गई. सड़के जाम हुईं. राज्य सरकार तबाह हो गई. लेकिन 11 जुलाई से लेकर 20 जुलाई तक इसकी कोई खबर एक भी राष्ट्रीय चैनलों और समाचार पत्रों के पहले पन्ने पर नहीं आई.
डेल्टा मेघवाल के मामले में पूरा पश्चिमी राजस्थान खौलता रहा. लेकिन राष्ट्रीय चैनलों और अखबारों ने आखिर तक उसकी अनदेखी की. रोहित वेमुला के मामले में भी विरोध की खबरों को दबाया गया.
वही मीडिया ओडिशा में पत्नी की लाश ढो रहे आदमी पर पहले ही दिन आधे आधे घंटे का शो कर रहा है. खूब खबरें दिखाई जा रही हैं. आंसू की नदी बह चली है. एंकर रो रहे हैं.
जानते हैं क्यों?
गुजरात विद्रोह की कहानी है. ओडिशा लाचारगी और बेबसी की दास्तान है.
लाचार बहुजन सबको पसंद है. विद्रोही बहुजन से डर लगता है. मीडिया में उत्पीड़न की खबर मिलेगी. प्रतिरोध की दास्तान नहीं.
यह मीडिया आपके काम का नही है. ओडिशा में आदिवासियों के किसी आंदोलन पर किसी चैनल ने कब कोई कार्यक्रम किया है? दिल्ली में आदिवासियों के किसी भी आंदोलन का कोई कवरेज नहीं होता.
नागपुर और मुबंई में 10,000 से 50,000 तक बहुजन सड़कों पर आए. राष्ट्रीय चैनलों पर 10 सेकेंड की खबर नहीं.
आप रोएंगे, तो मीडिया आपको दिखाएगा. आपने जैसे ही अपनी मुट्ठी तान ली, आप मीडिया से लापता.