अभिषेक श्रीवास्तव
चेतन भगत लोकप्रिय युवा लेखक हैं। उपन्यास लिखते हैं। उनके उपन्यास पर फिल्में बनती हैं। उन्हें अख़बार वाले छापते हैं। संपादकीय पन्ने पर छापते हैं। गंभीर साहित्य के दावेदार उन्हें गाली सुनाते हैं। बदले में वे भी उन्हें खरीखोटी सुनाते हैं। इतना चलता है क्योंकि एक नागरिक के बतौर किसी को भी कहीं भी लिखने का अधिकार है और किसी भी छापने वाले को किसी को भी कहीं भी छापने का अधिकार है। मामला तब गंभीर हो जाता है जब छापने-छापने के नाम पर पाठकों को गंगा बोलकर नाले में कुदा दिया जाता है।
दैनिक भास्कर ने 22 जून के अपने अंक में बिलकुल यही किया है। वो भी ऐलानिया। ‘अभिव्यक्ति’ नामक के संपादकीय पन्ने पर एक काल्पनिक कहानी को वैचारिक अग्रलेख के रूप में छापा है और नीचे डिसक्लेमर दिया है- ‘ये लेखक के अपने विचार हैं’। काल्पनिक ‘विचार’ के लेखक का नाम है चेतन भगत।
यहां चेतन भगत के लिखे पर कोई बात करने का खास मतलब नहीं है क्योंकि मौजूदा ‘लेख’ कल्पना का उत्पाद है जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प के ओवल ऑफिस में कुछ मुद्दों पर बात करने के लिए जाते हैं लेकिन बिना किसी बातचीत के सेल्फी खिंचवा कर लौट आते हैं क्योंकि गाय, बीफ और शराब जैसे मुद्दों पर दोनों में कोई संवाद ही नहीं हो पाता। बाद में प्रेस रिलीज़ आती है कि दोनों देशों के बीच सहयोग के कई मुद्दों पर बात हुई। सेंस ऑफ ह्यूमर के लिहाज से भी देखें तो यह कल्पना बेहद बचकानी है। विचार का तो सवाल ही नहीं उठता। फिर दैनिक भास्कर ने इसे क्यों छापा? केवल इसलिए कि यह चेतन भगत का लिखा हुआ है? चेतन भगत कुछ भी लिख देंगे तो उसे ‘अभिव्यक्ति’ पन्ने का ‘विचार’ मान लेगा यह अखबार?
दैनिक भास्कर में अंग्रेज़ी के लेखकों को संपादकीय पन्ने के अग्रलेखकों के रूप में छापने का ट्रेंड बीते कई साल से चला आ रहा है। पहले भी यहां संपादकीय पन्ने पर रस्किन बॉन्ड आदि छपते रहे हैं, लेकिन गनीमत थी कि जो लेख वैचारिक नहीं होते थे उनमें कम से कम कुछ तथ्य और संस्मरणात्मक बातें होती थीं। काल्पनिक बातें छापने का चलन नहीं था। हिंदी के लेखकों को इस पन्ने पर इसलिए बेहद कम जगह मिलती थी क्योंकि भोपाल ऑफिस से सख्त निर्देश था कि संपादकीय अग्रलेख चार-पांच चेहरों के इर्द-गिर्द ही घूमना चाहिए। लिहाजा दिल्ली से निकलने वाले भास्कर के एडीशन में एक ओप-एड पेज यानी संपादकीय के सामने वाला पेज ‘समय’ के नाम से निकलने लगा जिसमें हिंदी के लेखकों को खपाया जाने लगा। यह 2008-2012 के बीच काफी लोकप्रिय हुआ था।
उस दौरान की ही बात है जब श्रवण गर्ग दैनिक भास्कर दिल्ली संस्करण के संपादक हुआ करते थे। उस वक्त यह लेखक ओप-एड पर काम करता था। लेखिका अरुंधती रॉय का आरोप था कि उनके घर पर ज़ी न्यूज़ वालों ने एक रात हमला करवाया। अफ़ज़ल गुरु का मामला गरम था और सारी बहस उसे समर्थन देने वालों यानी उसकी फांसी का विरोध करने वालों पर आ सिमटी थी। ऐसे में एक दिन अरुंधती ने सप्रमाण लिखा कि कैसे उनके घर पर दो बाइक सवारों ने हमला किया और उनका ज़ी न्यूज़ के साथ क्या ताल्लुक था। वह लेख कुछेक लोगों के बीच निजी रूप से प्रसारित हुआ। इस लेखक के मेल पर भी आया।
वह लेख लेकर यह लेखक अपने संपादक श्रवण गर्ग के पास गया और प्रस्ताव दिया कि इसे अगर ऑल एडिशन लिया जा सके तो इसका अनुवाद किया जा सकता है। संपादक द्वारा बात भोपाल पहुंचायी गई। भोपाल से मंजूरी मिल गई। भास्कर जैसे अख़बार में अरुंधती का लिखा अग्रलेख संपादकीय पर छापे जाने को मिली मंजूरी आश्चर्यनाक थी। बहरहाल, उसका अनुवाद किया गया और लेख अगले दिन के सभी संस्करणों में संपादकीय पन्ने पर सबसे ऊपर छपा।
इसे हम अपनी और पाठकों की उपलब्धि मानकर चल रहे थे लेकिन यह दरअसल अखबार की मार्केटिंग रणनीति की उपलब्धि थी। उसे मुफ्त में बैठे-बैठाए अंग्रेज़ी की एक बड़ी लेखिका का लिखा छापने को मिल गया था। अख़बार को इससे कोई मतलब नहीं था कि उसने क्या लिखा है और क्या नहीं। उसके लिए वह महज एक नाम था। यह अखबार की ब्राडिंग थी, सरोकार नहीं। यह बात हमें तब समझ में आई जब ओप-एड पन्ने पर छपे 800 शब्दों के दूसरे लेख के कंटेंट से आहत होकर तत्कालीन गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने संपादक को तलब कर लिया। वह लेख लिखने वाला न तो अंग्रेज़ी का आदमी था और न ही कोई बड़ी शख्सियत। वह हिंदी का एक पत्रकार था जिसकी ब्रांड वैल्यू नहीं थी। लिहाजा उसके लिखे कंटेंट को सरकार ने भी आपत्तिजनक माना जबकि अरुंधती के लिखे से अख़बार तक को परहेज नहीं हुआ।
चेतन भगत की ऊटपटांग कल्पनाओं को संपादकीय पन्ने पर अग्रलेख के रूप में जगह मिलने की यही वजह है। ब्रांडिंग और बाजार की इन बाध्यताओं ने ही मूर्खता को अभिव्यक्ति बना डाला है और ऊटपटांग कल्पना को विचार। अखबारों की इसी बदफैली ने चेतन भगत को हमारे समय का विचारक बना दिया है। सबसे भयावह यह है कि अखबार अपने इस ‘विचारक’ के ‘विचार’ से दूरी बनाने के लिए डिसक्लेमर तक दे रहा है गोकि कल्पनाओं को मान्यता देना भी कोई राजद्रोह हो। विचार की तो छोडि़ए, जिस अख़बार के संपादक को अपने नियमित स्तंभकार की मूर्खतापूर्ण कल्पनाओं तक से डर लगता हो, ऐसे डरे हुए, बिके हुए और सड़े हुए अखबार का हम क्या करें?