दैनिक भास्कर का ‘नमो अंधकारम् !’

Mediavigil Desk
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क्या समाचार माध्यम झूठ फैलाने की मशीन बन गये हैं ? क्या संपादकीय विवेक नाम की कोई चीज़ बची ही नहीं ? और क्या यह कोई स्वाभाविक परिघटना है या इसके राजनीतिक-सामाजिक संदर्भ भी हैं ?

यह तस्वीर भारतीय पत्रिकारिता के इतिहास के कुछ शीर्ष कलंकों में से एक है। ख़ुद को हिंदी का सबसे बड़ा अख़बार साबित करने में जुटे ‘दैनिक भास्कर ‘ ने 23 जनवरी को एक फ़र्ज़ी पत्र को बैनर बना दिया। लिखा कि नेहरू जी ने नेताजी सुभाषचंद्र बोस को ‘युद्ध अपराधी ‘ लिखा था ! बस, कुएँ में भाँग पड़ गई। नतीजा यह कि सबसे तेज़ अंग्रेज़ी चैनल होने का दावा करने वाले इंडिया टुडे के मैनेजिंग एडिटर राहुल कँवल ने इसे ‘अपने सूत्रों ‘ से हासिल की गई ख़बर बताते हुए इसे ‘राजनीतिक भूकंप’ की संज्ञा दी। मूढ़ता की इस सीढ़ी का इस्तेमाल करते हुए IBN7 ने स्वाभाविक ही इस चिट्ठी को अपने कार्यक्रम में इस्तेमाल किया। सुना तो यह भी है कि तथ्यों के प्रति सजगता का दावा करने वाले NDTV में कादंबिनी शर्मा ने उस दिन प्राइम टाइम पेश करते हुए इस चिट्ठी का इस्तेमाल किया (मैंने देखा नहीं )।

यह सब क्या महज़ संयोग है ? ग़ौर कीजिये समाचार माध्यमों में ऐसी ग़लतियाँ आमतौर एक ख़ास राजनीति को फ़ायदा पहँचाने के लिए होती हैं। शाखामृगों की अफ़वाहें संपादकीय विवेक का लोप यूँ ही नहीं कर देतीं। याद कीजिए कुछ दिन पहले इसी भास्कर ने बैनर छापा था कि सरदार पटेल की अंत्येष्टि में नेहरू जी ने भाग नहीं लिया था। यह भी लट्ठपाणियों का दुष्प्रचार था। ऐसी तस्वीरें बाद में सामने आईं जिसमें नेहरू, पटेल की अंतिम यात्रा में मौजूद दिख रहे थे।

दोस्तो, हम केवल इतना चाहते हैं कि समाचार माध्यम तथ्यों से खिलवाड़ न करें। झूठ प्रसारित न करें। अगर हमें तन स्वस्थ्य रखने के लिए शुद्ध दूध की दरकार है तो फिर मन के स्वास्थ के लिए हम खबरों में मिलावट भी बरदाश्त नहीं कर सकते। सोशल मीडिया हमें यह मौका देता है कि हम झूठ उजागर करें। हाँ, अलग विश्लेषण करने का अधिकार सबको है।

नोट- कुछ मित्रों ने मुझसे पूछा है कि मैने केवल राहुल कँवल को निशाना क्यों बनाया जबकि बहुतों ने यह ग़लती की थी। मेरा निवेदन बस इतना है कि मैं 24 घंटे चैनलों और अखबारों पर नज़र नहीं रख सकता। जिसे देखा उस पर प्रतिक्रिया दी। यह काम तो पूरे समाज को करना होगा। जो भी ग़लत देखे आवाज़ उठाये। अगर आपको लगता है कि बाक़ी लोग परदे के पीछे छिपे रहें और मैं अकेले चैनलों और अख़बारों से मोर्चा लेने में 24 घंटे जुटा रहूँ तो फिर सब मिलकर मेरे घर का ख़र्च उठाने के बारे में सोचिए…

(पत्रकार पंकज श्रीवास्तव के फेसबुक पेज से )