संजीव चंदन
आज मैं इंडियन एक्सप्रेस में मृणाल पांडेय का महिलाओं की हंसी वाला लेख पढ़कर सोच रहा हूँ कि क्यों हिंदी पट्टी की सवर्ण स्त्रीवादी महिलाएं हँसब, ठेठायब, फुलायब गालू वाले अंदाज में स्त्री विमर्श करना चाहती हैं। उन्हें कुछ दिनों पहले ही ‘बलात्कार होते रहते हैं’ जैसे महान उद्गार व्यक्त करने वाली रेणुका चौधरी की हंसी दुर्गा की हंसी सा दिखती है, महिषासुर के वध के पूर्व। यानी बलात्कार के प्रति अभ्यस्त भाव वाली दुर्गा रेणुका हैं और महिषासुर नरेंद्र मोदी। ऐसे ही और बिम्ब हैं मृणाल पांडेय के लेख में।
यह स्त्रीवाद अनजाने ही बड़बोले प्रधानमंत्री को उनकी जाति के हिसाब से भी ब्राह्मणेतर समुदाय से जोड़ देता है, जबकि उनकी ही पार्टी की मंत्री संसद में दुर्गा के अपमान पर बवाल काट चुकी हैं।
सवाल है कि क्यों मोदी जी और उनके समर्थक तथा उनके विरोधियों के सवर्ण-मन का चित्त एक ही भाव भूमि पर निर्मित है। जब वे रेणुका जी की हंसी को धारावाहिक रामायण से जोड़ रहे थे तो उनका तात्पर्य निश्चित तौर पर रामायण के खल-चरित्रों की हंसी से था- रावण की हंसी हो या मेघनाद की या ताड़का या शूर्पनखा की।
उनके विरोधियों ने उस हंसी को शूर्पनखा से जोड़ दिया। क्यों? क्योंकि रेणुका स्त्री हैं। निश्चित तौर पर पितृसत्ता स्त्रियों की हंसी, उनके ठहाके, पैर फैलाकर बैठना, उनका स्वतन्त्र घूमना, स्वतन्त्र निर्णय बर्दाश्त नहीं करती है। लेकिन क्या पितृसत्ता के खिलाफ लड़ाई लड़ते हुए हम उन मिथकों को हथियार बना सकते हैं, जिन्हें ब्राह्मणवादी पितृसत्ता ने दो उत्पीड़ित अस्मिताओं को लड़ाने के लिए खड़ा किया है।
वह तो भला हो उन महिलाओं का जो शूर्पनखा- हंसी के नाम से अपने ठहाके वाली तस्वीरें लगा रही हैं। मृदु-स्मित हासिनी, गजगामिनी आदि नियंत्रित भूमिकाओं को चुनौती ही नहीं दे रही हैं, वरन शूर्पनखा से खुद को जोड़ भी रही हैं। यह अच्छा है हालांकि बलात्कार को आम घटना मानने वाली रेणुका को शूर्पनखा से नहीं जोड़ा जा सकता। शूर्पनखा बलात्कार विरोधी संस्कृति की नायिका हैं। वह प्रेम की प्रतीक है। वह राम से प्रेम निवेदन करने गई थी, उसे प्रेम निवेदन का दण्ड मिला अन्यथा उसे क्या पता था कि एक पीढ़ी पहले ही जिस समाज में तीन बीवियों की प्रथा थी- दशरथ या दो बीबियों की-जनक, वहां एक पीढ़ी बाद ही राम एक पत्नी व्रत ले चुका है।
अनजाने ही सही शूर्पनखा यदि स्वतन्त्र स्त्री चेतना का प्रतीक बनती है तो वह ब्राह्मण मिथों की आदर्श देवियों से बेहतर होगी। वह अपने अपमान का बदला लेना जानती है, प्रतिकार जानती है, कथित आदर्श देवियों की तरह बलात्कार के बाद चुप्पी के बदले बुद्धिमानी के देवत्व- सरस्वती का दर्जा नहीं लेती।
लेखक स्त्री विमर्श में जाना-पहचाना नाम हैं और स्त्रीकाल वेब पत्रिका के संपादक हैं. यह लेख संजीव चंदन की फेसबुक पोस्ट से साभार है.