चंद्रभूषण
नॉर्वे की सरकार द्वारा गणित के लिए इसी सदी में शुरू किया गया ऐबेल पुरस्कार न सिर्फ नाम में बल्कि इनाम राशि में भी नोबेल पुरस्कार से बहुत मिलता-जुलता है। लेकिन एक खास मामले में इसकी महत्ता नोबेल पुरस्कार से कहीं ज्यादा है। हम जानते हैं कि दस में से नौ, बल्कि इससे भी ज्यादा नोबेल पुरस्कार वैज्ञानिकों को ‘बिग साइंस’ के लिए दिए जाते हैं। यानी अरबों डॉलर से चलने वाले बड़े वैज्ञानिक संस्थानों से जुड़कर किए गए उनके कामों के लिए। लेकिन ऐबेल पुरस्कार अपनी निजी क्षमता से गणित के बियाबानों में नई जमीन तोड़ने वाले जीनियसों को ही मिलता है। इन्हें वैसी लाइमलाइट में आने का मौका नहीं मिलता तो इसकी मुख्य वजह यह है कि इनका काम लोग समझ ही नहीं पाते।
इस साल बीते 20 मार्च को यह पुरस्कार कनाडा के 81 वर्षीय गणितज्ञ रॉबर्ट लैंग्लैंड्स को दिया गया। इस बारे में काफी खबरें पहले ही छप चुकी हैं, लिहाजा खबर के तौर पर अभी इस पर बात करने का कोई मतलब नहीं है। लेकिन एक बात कहीं चर्चा में नहीं आई कि डॉ. लैंग्लैंड्स कानपुर में जन्मे और इलाहाबाद युनिवर्सिटी में पढ़े विश्वप्रसिद्ध गणितज्ञ डॉ. हरिश्चंद्र के शिष्य रहे हैं, जिनके नाम पर यमुनापार झूंसी में बने गणित और एडवांस फिजिक्स के अध्ययन संस्थान का नाम मेरे जैसे इस विश्वविद्यालय के तमाम भूतपूर्व और वर्तमान छात्र बड़ी इज्जत और खौफ के साथ लेते रहे हैं।
डॉ. लैंग्लैंड्स के काम पर आएं तो गणित में उन्हें पिछले पचास वर्षों से ‘लैंग्लैंड्स प्रोग्राम’ के लिए जाना जाता है, जिसको कुछ लोग भौतिकी की बहुप्रतीक्षित ‘ग्रैंड यूनिफिकेशन थ्योरी’ की तर्ज पर गणित की जीयूटी भी कहते हैं। गणित के बारे में ज्यादातर लोगों की राय यही होती है कि दो दूनी चार अब से हजारों साल पहले भी होता रहा होगा और आज भी यह दो दूनी चार ही होता है, फिर इसमें नई खोज की गुंजाइश कहां से बनती होगी? इससे ऊंचे स्तर वाली समझ के लोग अप्लाइड मैथमेटिक्स यानी मुख्य रूप से भौतिकी के जटिल हिसाब-किताब में काम आने वाली गणित में कुछ खोजबीन की भूमिका देख पाते हैं। लेकिन मजे की बात यह कि ऐसे दुराग्रह खुद उच्च गणित के दायरे में भी मौजूद हैं, जिसका शिकार खुद प्रो. लैंग्लैंड्स को होना पड़ा।
उन्हें गणित के क्षेत्र में अपने दौर का एकमात्र अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार फील्ड्स मेडल सिर्फ इसलिए नहीं मिल सका, क्योंकि संबंधित वर्ष के निर्णायकों की नजर में उनका काम कुछ ज्यादा ही अमूर्त था। वैसे भी फील्ड्स मेडल हर चार साल बाद 40 साल से कम उम्र वाले किसी गणितज्ञ को ही मिलता है। एक बार आप उससे चूक गए तो फिर जीवन भर के लिए चूक गए। असाधारण प्रतिभा वाले रॉबर्ट लैंग्लैंड्स ने अपना पहला महत्वपूर्ण काम यह साबित करने के रूप में किया कि घनों के योगफल के रूप में लिखी जा सकने वाली अभाज्य संख्याएं (प्राइम नंबर्स) हार्मोनिक एनालिसिस के जरिये भी निकाली जा सकती हैं। इस वक्तव्य के अटपटेपन पर हम बाद में आएंगे, पहले इसके शुरुआती हिस्से पर बात करते हैं।
रोजमर्रे के काम आने वाली गिनतियां अपने पीछे जो शाश्वत रहस्य छिपाए हुए हैं, उनका शुरुआती दरवाजा अभाज्य संख्याओं में दिखता है। यानी ऐसी संख्याएं, जिनमें खुद उनको और 1 को छोड़कर और किसी भी संख्या का भाग नहीं जाता। इनके बारे में कई प्राथमिक सिद्धांत हैं, जैसे यह कि इन्हें किसी भी प्राकृतिक संख्या के छह गुने से एक कम या ज्यादा की शक्ल में लिखा जा सकता है (जाहिर है, यह नियम 2 और 3 पर लागू नहीं होता।) इसी तरह एक तरीका प्राइम्स को दो वर्गों के जोड़ के रूप में लिखने का भी है, जैसे 41=16 (4 का वर्ग) + 25 (5 का वर्ग)।
इसी तरीके से देखें तो प्राइम्स का एक दुर्लभ समूह ऐसा भी है, जिसे घनों के जोड़ के रूप में लिखा जा सकता है। जैसे, 73=1 (1 का घन) + 8 (दो का घन) + 64 (4 का घन)। अंकगणित के लिए घनों का योगफल हमेशा एक समस्या रहा है और प्राइम नंबर्स के साथ इनका रिश्ता दोहरी मुश्किल वाला माना जाता रहा है। लेकिन रॉबर्ट लैंग्लैंड्स ने जब कहा कि इन्हें हार्मोनिक एनालिसिस के जरिये भी निकाला जा सकता है तो साठ के दशक में कई गणितज्ञों को लगा कि यह नौजवान सटक गया है। हार्मोनिक एनालिसिस तरंगों के जोड़-घटाव के अध्ययन का गणित है और इसके साथ अंकगणित का तो दूर-दूर तक कोई रिश्ता ही नहीं माना जाता।
लैंग्लैंड्स प्रोग्राम दरअसल आपस में कोई रिश्ता न रखने वाली गणित की विभिन्न शाखाओं की तह में मौजूद किसी ज्यादा गहरे गणितीय सिद्धांत की तलाश का कार्यक्रम है, जिसके कुछ हिस्से उन्होंने खुद खोजे और कइयों की खोज में दुनिया भर की गणितीय प्रतिभाएं लगी हुई हैं। और तो और, उनके इस प्रस्तावित कार्यक्रम के आधार पर डॉ. ऐंड्रयू जे. वाइल्स ने तीन सौ साल से असिद्ध पड़े फर्मा के अंतिम प्रमेय को सिद्ध कर डाला, जिसके लिए उन्हें 2016 में ऐबेल प्राइज का हकदार पाया गया। काफी पहले से माना जाता रहा है कि लैंग्लैंड्स प्रोग्राम एक ऐसी गणितीय प्रस्थापना है, जो आने वाले दिनों में न सिर्फ गणित बल्कि भौतिकी की समझ का खाका भी बदल देगी।
चंद्रभूषण वरिष्ठ पत्रकार हैं। नवभारत टाइम्स से संबद्ध।