संजय कुमार सिंह की नज़र में पत्रकारिता के दिन !

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संजय कुमार सिंह औरों के लिए वरिष्ठ पत्रकार और उद्यमी आदि होंगे, हमारे लिए तो एक प्यारा दोस्त है। बरसों हमने साथ काम किया, हालाँकि हमारे डेस्क अलग-अलग रहे। लेकिन संजय के व्यक्तित्व की बहुत सी खासियतें हमेशा प्रभावित करती रहीं, खासकर उसकी बेबाकी और खबरों के मर्म को समझ लेने वाली पैनी निगाह। संजय को मैं उन लोगों में से मानता हूँ जिनकी प्रकृति और प्रवृत्ति ‘जनसत्ता’ के अपने विद्रोही तेवरों के ही अनुकूल थी। एकदम सटीक फिट। मैंने उसे कभी हालात से समझौता करते हुए नहीं देखा। और अगर मन में सकारातमक-नकारात्मक कुछ है तो उसे कहने में संजय कोई गुरेज नहीं करते।

संजय निर्विवाद रूप से एक बहुमुखी प्रतिभा हैं, मगर फितरतन विशुद्ध पत्रकार। भले ही उसने बरसों पहले सक्रिय पत्रकारिता से अलग राह बनाकर अनुवाद के क्षेत्र में अपना अलग उद्यम बना लिया हो लेकिन आज भी कभी सोशल मीडिया तो कभी पत्रकारीय जमावड़ों और चर्चाओं में संजय का रचनात्मक और प्रभावी दखल मौजूद है। बहुत से अच्छे, स्तरीय और प्रतिष्ठापूर्ण अनुवाद भी संजय ने किए हैं।

संजय सिंह के विविध विचारों, अनुभवों और मंथन को सहेजते हुए पिछले दिनों उसकी किताब ‘पत्रकारिताः जो मैंने देखा, जाना, समझा’ आई है। मैंने किताब की सूचना मिलते ही संजय से कहा था कि इसे पढ़ने में मज़ा आएगा।

वजह साफ़ थी- संजय पत्रकार और अनुवादक होने के साथ-साथ गज़ब का किस्सागो भी है और ऊपर से उसकी बेबाकी… फिर जनसत्ता के दिनों में संजय के साथ अनुभव भी शायद हम सबसे ज़्यादा ही हुए। और यह हिम्मत भी उसी में थी कि प्रभाषजी को मजाक में ही सही, यह पूछ ले कि यह कौनसा रैकेट है! उसकी किताब में भी संजय की बेबाकियाँ खूब दिखती हैं। जैसे ओम थानवी के बारे में यह स्पष्ट कथन कि वे अच्छे संपादकों में नहीं गिने गए। या फिर राहुल जी के दौर में हुई पदोन्नतियों पर उसका निजी आकलन, जिससे हम असहमत भले ही हों, अपने विचारों को खुलकर जाहिर करने की बेबाकी से प्रभावित ज़रूर होते हैं। हममें से कितने लोग ऐसे हैं जो खुलकर अपने मन की बात कह सकते हैं, बिना आगा-पीछा सोचे? लेकिन संजय ऐसा ही है- बेबाक, शरारती मगर निश्छल। और हाँ, यारों का यार। हमारे दौर में संजय सिन्हा के साथ उसकी दोस्ती बहुत प्रगाढ़ हुआ करती थी और है भी।

संजय, तुम्हारी किताब ने कुछ दशक पुराने अध्यायों पर जमी धूल को झाड़कर खिड़की से बाहर का रास्ता दिखा दिया। कितनी ही यादें ताज़ा हो गईं, कितने ही किस्से फिल्म की रील के फ्रेमों की तरह एक के बाद एक सामने आकर खड़े हो गए। तुमने जनसत्ता और अपने निजी पेशेवराना जीवन के परे जाकर भी पत्रकारिता की स्थितियों, विडंबनाओं, विशेषताओं और घटनाक्रमों पर अच्छी नज़र रखी है। यह किताब अपने दौर की हिंदी पत्रकारिता और पत्रकारिता के पीछे की कहानियों की मीमांसा करता एक उपयोगी दस्तावेज है। बहुत बहुत बधाई प्यारे दोस्त और तुम्हारे शानदार भविष्य के लिए खूब शुभकामनाएँ। और हाँ, किताब पढ़ने में वाकई बहुत मज़ा आया।

(बालेंदु शर्मा दधीच की फ़ेसबुक दीवार से साभार।)