बीबीसी पॉप-अप की संपेरों वाली ट्वीट पर देश के इकलौते राष्ट्रवादी समाचार चैनल Zee News समेत खुद को राष्ट्रवादी कहने वाले तमाम लोगों ने जिस तरीके की भड़काऊ प्रतिक्रिया दी है और ट्विटर पर बीबीसी को कोसा है, वह इस बात का सबूत है कि कथित राष्ट्रवादियों की पढने-लिखने में कोई दिलचस्पी नहीं है और वे किसी भी बात का सन्दर्भ जाने बगैर स्वतंत्रता आन्दोलन में कूद पड़ने के आदी हैं.
सबसे ज्यादा आश्चर्य तब होता है जब मीडिया संस्थानों में पढ़ाने वाले शिक्षक भी सन्दर्भ को जाने बगैर फेसबुक पर तथ्यात्मक रूप से गलत पोस्ट लिख कर खुद को देशभक्ति का प्रमाण पत्र दे देते हैं. गुरु गोबिंद सिंह इन्द्रप्रस्थ यूनिवर्सिटी में जनसंचार विभाग के डीन रह चुके प्रो. चंद्रकांत प्रसाद सिंह ने बीबीसी पॉप-अप की ट्वीट पर जो लिखा है, उसकी पहली लाइन है:
“अभी हाल में बीबीसी ने अपनी वेबसाइट पर एक पाॅप-अप डाला कि भारत साँप-सँपेरों का देश है या नहीं?”
अव्वल तो बीबीसी पॉप-अप का पोल यह था ही नहीं कि “भारत साँप-सँपेरों का देश है या नहीं”! पहली ही पंक्ति तथ्यात्मक रूप से गलत लिखी गई है. आइए, देखें बीबीसी पॉप-अप ने क्या ट्वीट किया:
Should India erase its snake charming culture to embrace modernity? 🐍🏢
— BBC Pop Up (@BBCpopup) April 18, 2016
इस ट्वीट को पढ़कर जिन देशभक्तों का खून उबाल मार रहा है, उन्हें एक बार बीबीसी पॉप-अप के ट्विटर खाते पर नीचे जाकर थोड़ी नज़र और मारनी चाहिए थी कि इस ट्वीट का सन्दर्भ क्या है. दरअसल, बीबीसी पॉप-अप बीबीसी का एक घुमंतू ब्यूरो है जिसका काम दूसरों के दिए हुए आईडिया पर फिल्म बनाना है. बीबीसी पॉप-अप की टीम दिल्ली के बाहरी इलाके में अब प्रतिबंधित हो चुके संपेरों पर एक स्टोरी करने गई थी. उसने अपनी फिल्म में यह जाने की कोशिश की थी कि आखिर संपेरे आज कैसे अपनी ज़िंदगी काट रहे हैं और बदलते समय का उनकी ज़िंदगी पर क्या असर पड़ा है. उसे यह स्टोरी कवर करने से रोक दिया गया. इस बारे में टीम ने एक और ट्वीट किया था:
When #BBCPopUp was asked not to cover snake charmers in India, we decided to find out why. https://t.co/actqwtDSlV pic.twitter.com/en0m0e4Kz0
— BBC Pop Up (@BBCpopup) April 18, 2016
इसके बाद आखिरकार जो वीडियो बना, उसे बीबीसी की वेबसाइट पर लगाया गया और केवल इतना ही नहीं, संपेरों पर सरकारी प्रतिबन्ध के बारे में टीम ने दिल्ली सरकार के एक मंत्री कपिल मिश्र का साक्षात्कार भी लिया. पहले आप इस फिल्म को देखिये और समझिये की कैसे सरकारी प्रतिबन्ध के कारण संपेरे आज भुखमरी की ज़िंदगी बिताने को मजबूर हैं.
इस भरे पूरे सन्दर्भ के बाद बीबीसी की पॉप-अप टीम ने एक सवाल पूछा. इस सवाल को इस रूप में ले लिया गया कि बीबीसी भारत को संपेरों का देश कह रहा है जबकि इसका आशय बिलकुल साफ़ था कि क्या विकास और आधुनिकता की दौड़ में संपेरे जैसे समुदायों को उनके हाल पर मरने के लिए छोड़ दिया जाएगा?
यह ट्वीट विकास के नव-उदारवादी मॉडल की विसंगतियों पर एक सवाल था. याद करें कि हमारे प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने भी मैडिसन स्क्वायर के अपने भाषण में कहा था कि हमारे पूर्वज साँपों से खेला करते थे, लेकिन आज हम माउस से खेलते हैं. बीबीसी का पोल उस भाषण से इस रूप में ताल्लुक रखता है कि क्या माउस चलने वाला एक देश सांप नचाने वाले समुदायों को मरने के लिए ऐसे ही छोड़ देगा?
अफ़सोस, कि एक छुपी हुई स्टोरी के बहाने पूछे गए इस अहम सवाल पर भी राष्ट्रवाद का मुलम्मा चढ़ा दिया गया. बहुत संभव है कि ट्वीट की भाषा को बदला जा सकता था, लेकिन उसे मूल आशय से काट कर जिन लोगों ने भी पेश किया, उनसे यह सवाल ज़रूर पूछा जाना चाहिए कि आप गंभीर पत्रकारिता को अपनी ज़हालत का शिकार क्यों बना रहे हैं. यह सवाल Zee News से उतना नहीं है, जितना हर साल बाज़ार में दर्ज़नों नए पत्रकारों को भेजने वाले सी.पी. सिंह जैसे मीडिया शिक्षकों से है, जो आज से दस साल पहले IIMC जैसे प्रतिष्ठित संस्थान में पढ़ा चुके हैं और जिनके रखवाए पत्रकार आज तमाम चैनलों में अहम पदों पर बैठे हैं.
पत्रकारिता के पतन के लिए सबसे पहले ऐसे शिक्षकों को दोष दिया जाना चाहिए क्योंकि उनके भक्त पत्रकार ही आज Zee जैसी जगहों पर राष्ट्रवादी करामात कर रहे हैं.