‘राजद्रोह’ को ‘देशद्रोह’ बताकर सत्ता की चापलूसी कर रहा है मीडिया


1860 में टॉमस मैकॉले ने अंगरेजी राज की रक्षा के लिए यह क़ानून रचा था को 1870 में लागू हुआ।


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ओम थानवी

राजद्रोह और राष्ट्रद्रोह (या देशद्रोह) एक चीज़ नहीं हैं। दोनों में ज़मीन-आसमान का फ़ासला है। फिर भी मीडिया का एक हिस्सा राजद्रोह के आरोपियों को देशद्रोही कहता है। यह शासन और उसकी विचारधारा की चापलूसी है।

कन्हैया कुमार आदि (तत्कालीन) छात्रों पर राजद्रोह (धारा 124-ए) का मुक़दमा है। आजीवन क़ैद की सज़ा के प्रावधान वाला यह मुक़दमा शुरू से इतना कमज़ोर था कि कन्हैया की गिरफ़्तारी, अदालत परिसर में उस पर हमले, बाहर समर्थकों पर भाजपा विधायक के हमले आदि के बीच दिल्ली के (तत्कालीन) पुलिस प्रमुख बस्सी को कहना पड़ा था कि कन्हैया कुमार चाहे तो ज़मानत ले ले, वे (ज़मानत का) विरोध नहीं करेंगे। जबकि राजद्रोह का आरोप बेहद संगीन है और ग़ैर-ज़मानती होता है।

लेकिन तीन साल की मशक़्क़त के बाद, चुनाव की देहरी पर, एक कमज़ोर मुक़दमे ने फिर सिर उठा लिया है। “सबूत” जुट गए हैं। चार्जशीट दाख़िल हो गई है। हर कोई भाँप सकता है कि क़ानून का यह राजनीतिक इस्तेमाल है।

राजद्रोह (sedition) का मतलब है राज अर्थात् शासन/सरकार के ख़िलाफ़ भड़काने का काम। क्या सरकार-द्रोह को देश-द्रोह क़रार दिया जा सकता है? किस दलील से?

1860 में टॉमस मैकॉले ने अंगरेजी राज की रक्षा के लिए यह क़ानून रचा था को 1870 में लागू हुआ। आज राजद्रोह का क़ानून हमारे गणराज्य में काले धब्बे के सिवा कुछ नहीं, जो हर नागरिक को (चाहे वे ग़लतियाँ करते आगे बढ़ते छात्र ही क्यों न हों) शब्दों ही नहीं, इशारों में भी सरकार के ख़िलाफ़ उकसाने को संगीनतम जुर्म बना देता है।

अंगेरज़ों ने राजद्रोह का मुक़दमा अनेक देशप्रेमियों के साथ महात्मा गांधी और लोकमान्य तिलक पर भी चलाया था। ज़ाहिरा तौर पर गांधी-तिलक का देशप्रेम अंगरेज़ों के नज़र में देशद्रोह था। लेकिन क्या आज हम अपने छात्र-समाज के नारों को ही देशद्रोह ठहराने लगेंगे, क्योंकि शासन की विचारधारा उससे आहत महसूस करती है?

ख़याल रहे, गुजरात में हार्दिक पटेल पर भी राजद्रोह का ही आरोप मढ़ा गया था।

लोकतंत्र में राजद्रोह का क़ानून सीधे-सीधे अभिव्यक्ति की आज़ादी (अनुच्छेद 19) की काट है। इसीलिए जवाहरलाल नेहरू ने इस क़ानून को “असंवैधानिक” बताते हुए कहा था कि “इससे हम जितना जल्दी छुटकारा पा लें उतना अच्छा।”

मगर विडम्बना देखिए कि छह महीने पहले विधि आयोग की एक बैठक में इस काले क़ानून को और “सघन” बनाने का विचार रखा गया है।

सब “अच्छे दिनों” के लिए हो रहा है न?

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। इन दिनों राजस्थान पत्रिका के सलाहकार संपादक।