हत्यारे इरादों से लैस हैं ‘राजद्रोह’को ‘देशद्रोह’ लिखने वाले चैनल !

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आख़िर न्यूज़ चैनल बार-बार जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया और कई अन्य छात्रों को को ‘देशद्रोह का आरोपी’ क्यों बता रहे हैं। कुछ को तो ‘आरोपी’ शब्द लिखने से भी गुरेज़ है, वे सीधे-सीधे देशद्रोही लिख देते हैं ( बहुत उदार हुए तो विराम चिन्ह यानी ! के साथ) क्या इन चैनलों के संपादकों को वाकई नहीं पता कि भारतीय दंड संहिता में देशद्रोह जैसा कोई अपराध नहीं है ? या फिर ये टीआरपी पाने के लिए जनता को उन्मादी भीड़ में बदलने का सोचा-समझा उपक्रम है।

भारतीय दंड संहिता के तहत ‘देशद्रोह’ नहीं, ’राजद्रोह’ का मामला चलता है। लेकिन ‘राजद्रोह’ लिखने से शायद चैनलों को वह सनसनी नहीं मिल पाती जो वह चाहते हैं। मान लीजिए कि इस उन्माद के नतीजे में कन्हैया या जेएनयू के किसी छात्र पर जानलेवा हमला हो तो क्या इन चैनलों की ज़िम्मेदारी नहीं होगी ? चैनलों ने जिस तरह का वातावरण बनाया है उसमें किसी की हत्या तक हो सकती है।

बहरहाल, कुछ पत्रकार वाक़ई ऐसे हो सकते हैं जिन्हें इस फ़र्क़ का ज्ञान न हो। (वैसे भी पत्रकार बनने के लिए ज्ञान को अब ग़ैरज़रूरी ही समझा जाता है)। उनके लिए मीडिया विजिल कुछ क़ानूनी नुक़्तों की जानकारी लाया है-

 

क्या कहती है धारा 124 ?

राजद्रोह – जो कोई बोले गए या लिखे गए शब्दों द्वारा या संकेतों द्वारा या दृश्यप्रस्तुति द्वारा या अन्यथा भारत में विधि द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा या अवमान पैदा करेगा, या पैदा करने का प्रयत्न करेगा, या असंतोष उत्तेजित करेगा या उत्तेजित करने का प्रयत्न करेगा वह आजीवन कारावास से, जिस में जुर्माना भी जोड़ा जा सकेगा या तीन वर्ष तक के कारावास से जिस में जुर्माना जोड़ा जा सकेगा, या जुर्माने से दंडित किया जा सकेगा।”

धारा में वर्णित शब्द ‘अवमान'(DISAFFECTION) का संबंध ‘वफादारी न होने’ से है और द्वेष की सभी भावनाओं से है। सुप्रीम कोर्ट ने ‘श्रेया सिंघल वर्सेज भारत सरकार मामला’ में  66 A पर अपने फैसले के तहत ADVOCACY (किसी का समर्थन) और INCITEMENT(उकसाना) में भी अंतर किया है।

धारा ‘124 क’ को बाद में आये सुप्रीम कोर्ट के फैसले से बेहतर तरीके से समझा जा सकता है। 1962 का केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य का मामला, जिसमें शीर्ष अदालत के पांच जजों के पीठ ने यह महत्वपूर्ण व्यवस्था दी थी–
“राजद्रोह के तहत तभी सज़ा दी जाएगी जब हिंसा के लिए भड़काया जा रहा हो या लोक अव्यवस्था हो गयी हो।”

कुछ इसी तरह का फ़ैसला ‘इंद्रा दास बनाम असम राज्य मामला’ में भी आया था। खालिस्तान के पक्ष में नारेबाज़ी करने वालों के ख़िलाफ़ भी राजद्रोह का मामला टिक नहीं सका था, क्योंकि अदालत ने साफ कहा था कि सिर्फ़ नारेबाज़ी को राजद्रोह नहीं माना जा सकता। 1870 में बनाये गये राजद्रोह क़ानून में सरकार के अवमान यानी उसके प्रति प्यार न प्रकट करने जैसी बातो का आधुनिक लोकतांत्रिक समाज में कोई स्थान नहीं हो सकता। इसलिए इसे हटाने की बार-बार माँग होती रही है।

ब्रिटेन ने वर्ष 2009 में राजद्रोह कानून समाप्त कर दिया है। 2010 में स्कॉटलैंड में भी राजद्रोह कानून खत्म कर दिया गया था। 1988 में दक्षिण कोरिया ने भी राजद्रोह कानून खत्म कर दी। 2007 में, इंडोनेशिया ने इसे असंवैधानिक बताकर खत्म कर दिया अमरिका में 218 वर्ष पहले का राजद्रोह कानून है, लेकिन  अमेरिका के कई राज्यों में इसे बंद कर दिया गया है।