कोई भी जनांदोलन जब लम्बा चलता है तो उस पर रिपोर्टिंग करते समय कुछ खास या नई बात नज़र नहीं आती अक्सर. यही बात शाहीन बाग़ में जारी आन्दोलन पर भी लागू होती है. आज इस आन्दोलन का चालीसवां दिन है. बीते कल यानि 23 जनवरी को आन्दोलन का 39वां दिन था और हम वहां मौजूद थे. कल नेताजी सुभाष चंद्र बोस की 124वीं जयंती को शाहीन बाग में बैठी महिलाओं ने भी मनाया. जय हिन्द और आज़ादी के नारे लगे. कविताएं पढ़ी गईं, गीत गाये गये.
शाहीन बाग़ में कई शाहीन बाग़ सज गये हैं. रोज अलग-अलग जगह से नये-नये लोग इस आन्दोलन के समर्थन में आ रहे हैं. हमने कल वहां विदेशी सैलानियों को वहां फोटोग्राफी करते देखा. एक विदेशी महिला से वहां हमने पूछा कि उनके यहां आने के पीछे क्या कारण है. उन्होंने कहा कि वह भारत की यात्रा पर आई थीं ताजमहल देखने और बाकी पर्यटन स्थल देखने. इस बीच उन्हें इस आन्दोलन के बारे में जानकारी मिली तो वह खुद को रोक नहीं पाईं और ताजमहल का कार्यक्रम छोड़कर वहां चली आईं.
उन्होंने इस आन्दोलन के प्रति सरकार की उदासीनता पर दुःख और अफ़सोस जाहिर करते हुए कहा कि यह एक ऐतिहासिक आन्दोलन बन चुका है और यदि दुनिया के किसी अन्य मुल्क में ऐसा आन्दोलन शुरू हुआ होता तो सरकार आन्दोलनकारियों से बात करती न कि आन्दोलन के विरोध में टिप्पणी करती. उन्होंने कहा- “हमने सुना था कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है किन्तु यहां मीडिया में जिस तरह की ख़बरें हैं इस आन्दोलन को लेकर वह दुखद है, क्योंकि महीने भर से ऊपर हजारों महिलाएं ठण्ड में अपने बच्चों को लेकर बाहर बैठी हुयी हैं और सरकार की ओर से इनकी मांगों पर ध्यान नहीं दिया गया. मैं, हैरान और निराश हूँ”.
इस आन्दोलन को लेकर सरकार का पक्ष रखते हुए कथित मुख्यधारा की मीडिया के एंकरों ने सरकारी पक्ष को बार-बार दोहराते हुए इस आन्दोलन की वजह से यातायात में रुकावट और आम लोगों की परेशानी का बार-बार जिक्र किया है किन्तु इन मीडिया रिपोर्टरों ने प्रदर्शन पर बैठी महिलाओं और बच्चों की परेशानियों का जिक्र कितनी बार किया है?
शाम ढलने के साथ ही बढ़ने लगती हैं भीड़
शाहीन बाग़ के आन्दोलन ने देश भर में महिलाओं को प्रेरित किया है. आज देश भर में शाहीन बाग़ की तर्ज पर कई शहरों में आन्दोलन हो रहे हैं. लखनऊ का घंटाघर, इलाहाबाद का रोशन बाग़ (मंसूर अली पार्क) आदि इसका प्रमाण हैं.
शाहीन बाग़ आन्दोलन की सबसे ख़ास बात यह है कि शाम ढलने के साथ-साथ यहां भीड़ बढ़ने लगती है. महिलाएं घर का काम काज निपटाकर टेंट में आकर बैठने लगती हैं. दूर-दूर से छात्र, सामाजिक कार्यकर्त्ता, कवि-साहित्यकार, रंगकर्मी भी आने लगते हैं. ये उन लोगों के अतिरिक्त हैं जो वहां दिन रात बैठे हुए हैं.
मीडिया ने इस आन्दोलन को लेकर जिस परेशानी का जिक्र कर सरकार के समर्थन में खुद को वफादार साबित किया है. दरअसल वह परेशानी उतनी बड़ी नहीं है क्योंकि एम्बुलेंस और स्कूल की गाड़ियों को वहां से जाने दिया जा रहे है. गलियों में दुकानदारों से बातचीत की तो उन्होंने बताया कि कुछ परेशानी बेशक हैं और मेन सड़क पर जो दुकानें बंद हैं उनकी औरतें भी तो इस आन्दोलन में बैठी हैं. सरकार को यह सोचना चाहिए कि लोग अपने आर्थिक नुकसान पर इस आन्दोलन का समर्थन क्यों कर रहे हैं.
एक दुकानदार ने बताया कि बाकी यहां कारोबार सामान्य है, आम लोगों को कोई परेशानी नहीं हो रही है. बच्चे स्कूल जा रहे हैं और स्कूल से लौट कर अपनी माँ-दादी के साथ यहाँ बैठ रहे हैं.
घटनास्थल पर तिरंगा शान से लहरा रहा है. बच्चे हाथों में तिरंगा लेकर घूम रहे हैं. 11 साल की सलमा स्कूल से लौटते वक्त घटनास्थल पर गर्म जोशी के साथ नारे लगाती है…
“बेटी बचाओ बेटी पढाओ” का नारा देने वाली सरकार को इन बेटियों की बात क्यों सुनाई नहीं दे रही है? क्यों सरकार और गोदी मीडिया इस आन्दोलन के खिलाफ दुष्प्रचार कर रही है?
कल इस आंदोलन स्थल पर महिलाओं ने एक ही जवाब दिया- इस असंवैधानिक और भेदभाव वाले कानून को जब तक वापस नहीं लिया जाता यह आंदोलन जारी रहेगा, चाहे परिणाम जो हो.
इस आन्दोलन की सबसे ख़ास बात यह है कि अभी तक वहां की महिलाओं ने.आन्दोलन को किसी भी राजनीतिक पार्टी द्वारा कब्जा करने नहीं दिया है.