उत्तर प्रदेश के मतदाताओं से रिहाई मंच की अपील
दोस्तो,
वंचित समाज के इंसाफ की राजनीतिक लड़ाई के मकसद से 2007 में आतंकवाद के नाम पर कैद बेगुनाह मुस्लिमों की रिहाई से रिहाई आंदोलन शुरू हुआ। हमारा मानना है कि आतंकवाद के नाम पर कैद मुस्लिमों का सवाल लोकतांत्रिक प्रक्रिया से जुड़ा सवाल है ऐसे में इसके हल के लिए जरूरी था कि जो राजनीतिक दल मानते हैं कि एक समुदाय विशेष का होने के नाते मुस्लिमों पर आतंक का ठप्पा लगाया जाता है वो अपने चुनावी घोषणा पत्र में वादा करें कि अगर उनकी हुकूमत आती है तो वे बेगुनाहों को रिहा करेंगे। जनता की व्यापक मांग के चलते 2012 में सपा ने अपने चुनावी घोषणापत्र में इस मुद्दे को रखा और इसी कड़ी में 2014 के लोकसभा चुनावों में भी विभिन्न राजनीतिक दलों ने ये वादा किया।
सत्ता में आने के बाद सपा ने जहां इस वादे को पूरा नहीं किया वहीं बेगुनाहों की गिरफ्तारियां होती रहीं और हम निरंतर इस पर सवाल उठाते रहे। आज जब यूपी में विधानसभा चुनाव हो रहे है ऐसे में सपा के चुनावी घोषणा पत्र से इस वादे का गायब होना अहम सवाल है। ठीक इसी कड़ी में सच्चर-रंगनाथ कमीशन की सिफारिशों के मुद्दे को सिर्फ सपा ने चुनावी घोषणापत्र से गायब नहीं किया बल्कि वंचित समाज के एक बडे़ समुदाय के विकास के एजेण्डों को लोकतांत्रिक प्रक्रिया से गायब करने की साजिश की है।
इन मुद्दों का गायब होना साबित करता है कि सपा शासनकाल में इन मुद्दों को लेकर मुसलमानों में हुई राजनीतिक गोलबंदी से न सिर्फ वह घबराई हुई है बल्कि उसकी कोशिश मुसलमानों में अपने अधिकारों और राजनीतिक प्रतिनिधित्व को लेकर आई जागरूकता को किसी भी तरह रोकने की है। क्योंकि यह गोलबंदी न सिर्फ उसकी राजनीति को खारिज कर है बल्कि मुसलमानों के उन सवालों को भी राजनीतिक गोलबंदी के केंद्र में ला सकती है जिसका जवाब सपा, बसपा, कांग्रेस जैसी पार्टियां नहीं दे सकती हैं वहीं भाजपा की पूरी राजनीति ही इसी पर टिकी है।
हमारी कोशिश रही है कि आतंकवाद के नाम पर कैद बेगुनाहों के सवाल को जिस तरह हमारी राजनीति उसे या तो राज्य बनाम उस व्यक्ति (समाज) के बतौर देखती है या उसे पूर्णतया अदालती मुद्दा मान कर उसे राजनीतिक सवाल ही मानने से इनकार कर देती है या उसे एक गैर चुनावी मुस्लिम मुद्दा बनाने की कोशिश करती है, उसे न सिर्फ बदला जाए बल्कि उसे राजनीति के कंेद्र में लाया जाए। क्योंकि ये मुद्दा सिर्फ मुसलमानों का नहीं है बल्कि इसके चलते हो रही नाइंसाफी से हमारा लोकतंत्र कमजोर हो रहा है। रिहाई मंच जैसा कोई भी
लोकतांत्रिक आंदोलन इसे मुस्लिम सवाल नहीं मान सकता और उसे इस तरह प्रचारित करने का पुरजोर विरोध भी करता है। क्योंकि ऐसा करके आप न सिर्फ राज्य मशनरी और संघ के वैचारिकी से ही लोकतंत्र और उसमें किसी समुदाय के अस्तित्व को देखने लगते हैं बल्कि उसे मजबूती भी प्रदान करते हैं। इसीलिए जब कोई सियासी दल अपने घोषणापत्र में इन मुद्दों को डालने के बाद उसे निकाल देता है तो इससे यही साबति होता है कि वह पार्टी इस मुद्दे के सियासी सवाल बनने से डरती है। जिसके पीछे उसकी यही सोच होती है कि ऐसा करने से जहां साम्प्रदायिक राज्य मशीनरी का मनोबल गिर जाएगा वहीं उसे भी एक बड़े वोट बैंक से हाथ धोना पड़ जाएगा। ठीक जिस तरह बाटला हाऊस फर्जी एनकाउंटर की जांच कराने की मांग को अदालत ने इस तर्क के आधार पर खारिज कर दिया था कि इससे पुलिस का मनोबल गिर जाएगा। अदालत के इस फैसले ने न सिर्फ साम्प्रदायिक पुलिस बल्कि उसके आधार पर की जाने वाली साम्प्रदायिक राजनीति को भी बचाने की कोशिश की थी।
इसी तरह तारिक-खालिद की गिरफ्तारी को संदिग्ध बताने वाले और दोषी पुलिस अधिकारियों को सजा देने की सिफारिश करने वाले आरडी निमेष कमीशन को अखिलेश यादव ने इसलिए लागू नहीं किया क्योंकि इससे दोषी पुलिस-खुफिया विभाग के लोगों का मनोबल गिर जाएगा। जबकि उनके चुनावी घोषणा पत्र में दोषी पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई और पीड़ितों को मुआवजा देने का वादा किया गया था। पर साम्प्रदायिक पुलिस और खुफिया तंत्र और अपनी राजनीति को बचाने के लिए उसने अपने वादे से मुकरते हुए बरी हुए बेगुनाहों को फिर से जेल भेजने की नीयत से फैसले के खिलाफ अपील कर दिया।
सरकार के इसी साम्प्रदायिक रणनीति के कारण सांप्रदायिक हिंसा में सबसे अधिक जान-माल का नुकसान सहने वाले मुस्लिम समुदाय की खुद को हितैषी बताने वाली सपा राज में मुजफ्फरनगर से लेकर फैजाबाद समेत पूरे सूबे में जो 5000 से अधिक साम्प्रदायिक हिंसा व तनाव की घटनाएं हुई उनमें किसी को भी सजा नहीं हुई। कोसी कलां में जिंदा जला दिए गए जुड़वा भाईयों कलुआ और भूरा तो वहीं मुजफ्फानगर में मां-बेटियों के साथ बलात्कार करने वाले इसी समाजवादी रणनीति के कारण आज भी खुलेआम घूम रहे हैं।
अब सपा कह रही है कि मुसलमानों के हालत सुधारने के लिए वह ई रिक्शा देगी। क्या ई रिक्शा सवालों का जवाब है? इन अहम सवालों पर अन्य राजनीतिक दलों द्वारा भी सवाल न उठाना साबित करता है कि वो भी सपा की तरह आतंकवाद के नाम पर कैद या रिहा हुए बेगुनाह मुस्लिमों को आतंकी मानते हैं और मुसलमानों को विकास और सत्ता में भागीदारी देने की कोई ईमानदार कोशिश करना ही नहीं चाहतीं। लिहाजा रिहाई मंच मानता है कि ऊपर से थोपे गए मुद्दों के इर्द-गिर्द रचे जा रहे हार-जीत के समीकरण के बजाए मुसलमानों में आई इस राजनीतिक चेतना को बचाए रखना उसकी प्राथमिक जिम्मेदारी है। यह तब और जरूरी हो जाता है जब सांस्थानिक सांप्रदायिकता भाजपा शासित ही नहीं सपा शासित राज्य में भी सांप्रदायिक हिंसा के दोषियों को बचाने व आतंकवाद के नाम पर बेगुनाहों को फंसाने की कोशिशों में कामयाब हो रही हो।
इस चुनाव में तमाम थोपे गए मुद्दों के बीच हमें वोट देते वक्त यह नहीं भूलना चाहिए कि सरकारें चाहे जिसकी भी रही हों उसने मुसलमानों के खिलाफ समाज और सांस्थानिक साम्प्रदायिक रवैये को ही मजबूत करने की रणनीति पर काम किया है। जिसके कारण हम देखते हैं कि सामाजिक न्याय पर बनी सरकारों ने भी कांग्रेस और भाजपा शाासनकाल में हुए हाशिमपुरा-मलियाना, मुरादाबाद और कानपुर के मुस्लिम विरोधी राज्य प्रायोजित साम्प्रदायिक हिंसा की सरकारी जांच आयोगों की रिर्पोटों को न सिर्फ जारी नहीं किया बल्कि उसके दोषी आपराधिक तत्वों को बचाने के साथ ही दोषी अधिकारियों को प्रमोशन भी दिया। यानी उसकी कोशिश मुस्लिम विरोधी गैर सरकारी और सरकारी दोनों ही तत्वों को संरक्षण देने की रही है।
इसलिए इस चुनाव को हमें राजनीतिक दलों को अपने मुद्दे पर केंद्रित करने के प्रयास के बतौर लेना चाहिए। मुसलमानों को इस अवसर का इस्तेमाल सुरक्षा और खुफिया एजेंसियों पर उठ रहे सवालों को राजनीतिक सवाल बनाने, दूसरी किसी भी जमात से ज्यादा आबादी होने के बावजूद हिस्सेदारी से वंचित कर छले जाने, सच्चर और रंगनाथ आयोग की सिफारिशों को लागू करने की मांग के बजाए इन पर अब तक कोई अमल न करने वाली सरकारों को कठघरे में खड़ा करने, साम्प्रदायिक हिंसा पीड़ितों के लिए आरक्षण, धारा 341, एससीएसटी ऐक्ट की तरह माइनाॅरिटी ऐक्ट, आतंकवाद के नाम पर होने वाली घटनाओं की जांच कराने के लिए विशेष न्यायिक आयोग के गठन जैसे मुद्दों पर हमें राजनीतिक दलों और उनके प्रत्याशियों से अपनी स्थिति स्पष्ट करवाने की रणनीति पर काम करना चाहिए।
इन चुनावों में दलित व महिला उत्पीड़न पर कोई बहस नहीं है जबकि यूपी इस उत्पीड़न के मामले में अव्वल है। समाजवादी पार्टी ने जहां अपना दलित विरोधी चेहरा दिखाते हुए 2012 के चुनावी घोषणापत्र की तरह ही 2017 के अपने घोषणापत्र में भी दलितों के लिए एक शब्द भी नहीं कहा है। वहीं बसपा अब सियासी पार्टी से ज्यादा सामंती तत्वों को दलित वोट ट्रांस्फर कराने वाली स्कीम बनकर रह गई है। इसीलिए बसपा दलित हिंसा पर कोई आंदोलन नहीं करती है और दलितों से मायावती का रिश्ता सिर्फ वोट का रह गया है। रिहाई मंच ने अपने आंदोलन के तहत दलितों के सबसे अधिक उत्पीड़ित क्षेत्र बुंदेलखंड को दलित उत्पीड़ित क्षेत्र घोषित करने की अपनी मांग दोहराता हुए प्रदेश में दलित थानों की मांग करता है। दलितों को इस चुनाव में दलित नेताओं और कथित हितैषी पार्टियों से इन सवालों पर स्पष्ट जवाब मांगना चाहिए। क्योंकि चुनाव सिर्फ आम जनता द्वारा लाईन लगाकर अपने को पांच साल तक लूटने और वादों को भूल जाने का किसी को परमिट देने का नाम नहीं है।
रिहाई मंच प्रदेश कार्यकारिणी द्वारा जारी
110/46, Harinath Banerjee Street, Naya Gaaon (E), Laatouche Road, Lucknow
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