वैज्ञानिक चेतना के प्रसार पर यह नोट ज्ञान-विज्ञान प्रसार न्यास द्वारा करवाए जाने वाले जे.सी. बोस व्याख्यान का परिचयात्मक हिस्सा है। यह व्याख्यान 2016 के मध्य में दिल्ली में होना प्रस्तावित था। कार्यक्रम टल गया और व्याख्यान नहीं हुआ, तो नोट भी धरा का धरा रह गया। इस नोट को मीडियाविजिल अपने पाठकों के बीच रख रहा है। समाज में बुनियादी वैज्ञानिक चेतना के अभाव पर इसमें कुछ सवाल उठाए गए हैं और कुछ चुनौतियां गिनाई गई हैं। ‘विज्ञान’ नामक स्तंभ के आरंभ के लिए यह बहसतलब विषय है जिसे हम पाठकों के समक्ष रख रहे हैं। प्रतिक्रियाएं आमंत्रित हैं। -संपादक
अभिषेक श्रीवास्तव
आज़ाद भारत के सात दशकों में वैज्ञानिक चेतना को लेकर काफी काम हुआ है। जवाहरलाल नेहरू से लेकर उन समकालीन विद्वानों की मार्फत बहुत कुछ लिखा और कहा जा चुका है जो देश में वैज्ञानिक चेतना और जागरूकता के प्रसार का काम करते हैं। आज़ादी के बाद तमाम सरकारी संस्थान बने और जागरूकता अभियान चलाए गए। करोड़ों रुपये का बजट आज भी वैज्ञानिक चेतना के प्रसार पर व्यय हो रहा है, उसके बावजूद अधिसंख्य जनता वैज्ञानिक चेतना से अब तक महरूम है। पढ़े-लिखे मध्यवर्ग के बीच जो कुछ भी जागरूकता आई है, उसका श्रेय जागरूकता अभियानों के बजाय प्रौद्योगिकी के विकास को कहीं ज्यादा जाता है जिसने जीवन को आसान बनाकर कुछ चीज़ों में से आस्था के तत्व को गायब कर डाला है- वे चीज़ें जो आज से बीस साल पहले तक काल्पनिक मानी जाती थीं। इसका एक दूसरा पहलू यह है कि शहरी मध्यवर्ग के बीच ईश्वर और ईश्वरीय एजेंटों का बाज़ार भी उतनी ही तेज़ी से पनपा है। अवैज्ञानिक आस्था अगर गांवों में अपने आदिम रूप में मौजूद है, तो शहरों में उसे बाज़ार की चाशनी में लपेट कर बेचा जा रहा है। यह दोहरा संकट है। इस संकट पर बात नहीं होती।
वैज्ञानिक चेतना के नाम पर परंपरागत व्याख्यानों और परचों से बहुत काम लिया जा चुका। वे सब नाकाम साबित हुए जबकि अवैज्ञानिकता नए लिहाफ़ में कई गुना ज्यादा बढ़ती चली गई। यहां दो सवाल खड़े होते हैं। पहला, क्या वैज्ञानिक चेतना और जागरूकता के प्रसार पर किए गए काम की दिशा गलत थी? दूसरा, क्या जनता से संवाद करने की भाषा और शैली गड़बड़ थी? एक सवाल कंटेंट से जुड़ा है और दूसरा फॉर्म से। दोनों को एक साथ संबोधित करना होगा और सबसे पहले यह जानने का प्रयास करना होगा कि वैज्ञानिक चेतना प्रसार कार्यक्रमों में आखिर दिक्कत क्या है जो वे जनता को प्रभावित नहीं कर पाते। क्या भारत के संदर्भ में समाज और विज्ञान दो अलग-अलग इकाइयां हैं? अगर विज्ञान समाज की ही देन है, तो वैज्ञानिक चेतना को समाज दोबारा क्लेम क्यों नहीं कर पा रहा? इस क्षेत्र में काम करने वाले आखिर कहां चूक रहे हैं?
इसके बाद का चरण यह होगा कि हम रोज़मर्रा की जिंदगी में वैज्ञानिक चेतना का समावेश कराने वाले उदाहरणों को गिनाएं और उनके बारे में बात करें। विज्ञान को समाज के साथ जोड़ने का काम हो। एक ज़माने में प्रोफेसर यशपाल और जयन्त नार्लीकर जैसे लोगों ने इस क्षेत्र में काफी काम किया था, लेकिन आज यह काम हाशिये पर जा चुका है। आम लोगों के जीवन में विज्ञान आधुनिक उपकरणों और रोजमर्रा के जीवन को सरल बनाने वाले आविष्कारों के रूप में प्रवेश करता है। पिछले तीस साल के दौरान ब्लैक एंड वाइट टीवी से लेकर स्मार्टफोन तक का छोटा सा सफ़र विज्ञान की कई गुत्थियों को अपने में समेटे हुए है लेकिन वैज्ञानिक जागरूकता कार्यक्रमों में कभी भी इन उपभोक्ता सामग्रियों को ज्ञान प्रसार का माध्यम नहीं बनाया गया। इस वजह से समस्या यह हुई कि आम लोगों के लिए वैज्ञानिक आविष्कारों का मूल्य केवल उपभोग मूल्य तक सीमित रह गया जबकि उसके भीतर का वैज्ञानिक मूल्य वे ग्रहण नहीं कर पाए। वैज्ञानिक सिद्धांतों के भीतर गए बिना केवल दैनिक उपकरणों के माध्यम से विज्ञान की चेतना का प्रसार करना एक मौजूं और आसान तरीका हो सकता है, जिससे लोग अपने उपकरणों का इस्तेमाल करते वक्त इस बात से वाकिफ़ रहें कि वे विज्ञान के इतिहास में किन मिथकों से कितनी दूर चले आए हैं जबकि अपने जीवन में वे कितने पिछड़े हुए हैं। यह एक आयाम हुआ वैज्ञानिक चेतना के प्रसार का, जिसे हम समाजशास्त्रीय आयाम कह सकते हैं।
दूसरा आयाम कहीं ज्यादा मुश्किल है और राजनीतिक है। वैज्ञानिक शोधों की अपनी दिक्कत यह है कि वह भी बाज़ार का दामन नहीं छोड़ सकता। बाज़ार ही वैज्ञानिक शोधों की दिशा आज तय कर रहा है और ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि विज्ञान के विकास में थियरी और व्यवहार दोनों दो रास्तों पर बरसों पहले निकल पड़े हैं। हाल ही में दुनिया भर के वैज्ञानिकों के एक सम्मेलन में इस बात पर सहमति बनी थी कि विज्ञान का विकास बेमेल हो रहा है- थियरी काफी आगे निकल आई है जबकि उसका परीक्षण करने के लिए वैज्ञानिक प्रयोग अब भी छठवें दशक से आगे नहीं बढ़ सके हैं। दरअसल, वैज्ञानिक चेतना के प्रसार का काम मूलत: व्यावहारिक और प्रायोगिक विज्ञान का अंग होना चाहिए था लेकिन विडंबना यह है कि हमारे यहां इसका ठेका थियरिस्टों ने यानी सिद्धांतकारों ने ले रखा है। इसी वजह से वैज्ञानिक सिद्धांतों को जनता को बताना तो आसान होता है लेकिन आगे बढ़कर उनके साक्ष्य मुहैया कराना मुश्किल हो जाता है और घूम-फिर कर बात वहीं अज्ञात व अद़श्य तक पहुंच जाती है।
इस समस्या के निराकरण के लिए हमें एक बार फिर वैज्ञानिक मॉडलों की ओर देखना होगा और सार रूप में इस बात को समझना व समझाना होगा कि विज्ञान उन्हीं चीजों पर काम करता है जिन्हें प्रमाणित करने का उसे भरोसा होता है। स्ट्रिंग थियरी या लैंगलैंड्स प्रोग्राम भले ही सिद्धांत के बतौर मुख्यधारा का हिस्सा हों, लेकिन वैज्ञानिक प्रयोगों व परीक्षण के अभाव में इन्हें लोगों तक पहुंचा पाना व उनके जीवन के उदाहरणों से इनकी सादृश्यता बैठा पाना असंभव है। कहने का अर्थ यह है कि वैज्ञानिक चेतना फैलाने का काम करने वाले लोग अपनी सीमाओं को भी समझें और जानें ताकि वे जनता के सही-गलत सवालों के कन्विंसिंग जवाब दे पाने में सक्षम हों। यहां इस बात को विनम्रतापूर्वक स्वीकार किए जाने का साहस होना चाहिए कि विज्ञान के पास हर सवाल का जवाब नहीं है, ठीक वैसे ही जैसे ईश्वर के पास हर सवाल का जवाब नहीं होता।
यह दूसरा काम अपने मूल में राजनीतिक है क्योंकि इसके लिए आपको बाज़ार के दबाव से बाहर आना होगा। यहां थियरी प्रधान है लेकिन वह बाज़ार की सीमाओं को नहीं मानते हुए जन उपयोग की कसौटी पर खुद को तौलती है। चूंकि बाज़ार उपयोगितावाद के बजाय मुनाफे पर टिका है, लिहाजा यह समझाना बहुत ज़रूरी है कि बाज़ार की चकमक पन्नी में लपेटा हुआ हर वैज्ञानिक दावा ज़रूरी नहीं कि काम का ही हो, बल्कि कई बार वह जनविरोधी भी हो सकता है। विज्ञान के क्षेत्र में बाज़ार ही है जो थियरी और प्रयोग के बीच आड़े आता है। इस तत्व से मुक्ति ही थियरी को जनता के साथ जोड़ने का काम कर सकती है, बशर्ते इसका कोई सही रास्ता तलाशा जाए।
इन तमाम आयामों के बाद बारी आती है राजनीतिक सत्ता की, जिसका घोषित लक्ष्य भारत में वैज्ञानिक चेतना का प्रसार करना था लेकिन आज की तारीख में इसका उलटा हो रहा है। नेहरू के दौर से लेकर अब तक ऐतिहासिक रूप से किए गए कामों को याद करते हुए और भारतीय संविधान की मूल भावनाओं का दोबारा आवाहन करते हुए राजसत्ता को उसकी जिम्मेदारियां याद दिलानी होंगी। जनता को यह बताया जाना होगा कि अवैज्ञानिकता केवल जीवन में ही नहीं, राजकाज में भी है जो उसे प्रभावित कर रही है। उसे सही और गलत के बीच का फ़र्क समझाया जाना होगा। यह काम दूरगामी है और पूर्णत: राजनीतिक है। मेरे खयाल से भारत में अभी इसका वक्त नहीं आया है गोकि अवैज्ञानिक सत्ताओं के हमले लगातार बढ़ते जा रहे हैं।
बुनियाद पर दूरियों को जब तक नहीं पाटा जाएगा, जनता को यह बताने से कोई लाभ नहीं होगा कि किसी वैज्ञानिक या रेशनलिस्ट की हत्या क्यों कर दी गई। मुझे लगता है कि बुनियादी काम जो ज्यादा ज़रूरी है, वो यह है कि सबसे पहले वैज्ञानिक चेतना के आड़े आ रहे कारकों की पहचान की जाए जिसमें अपनी कमजोरियां भी बेलाग लपेट शामिल हों। इससे जो समझदारी बनेगी, उसके ऊपर एक कामचलाऊ इमारत का निर्माण शुरू हो सकता है।
इस काम की शुरुआत के लिए सबसे पहले हमें रूढि़यों से मुक्त होना होगा। ये रूढि़यां वैज्ञानिक भी हैं और अवैज्ञानिक भी। रूढि़ तो यह भी है कि चूंकि हम वैज्ञानिक चेतना की बात कह रहे हैं, तो किसी न किसी स्तर पर हम ‘दूसरों’ से ज्यादा श्रेष्ठ हैं। यह श्रेष्ठता वाली ग्रंथि बौद्धिक बिरादरी की सबसे बड़ी दुश्मन है जो दूसरों को ”दूसरे” की तरह देखती है। इस देश के ईश्वरप्रेमी अंधविश्वासी आम लोगों को सबसे पहले अपना मानें। उनका मुंह खुलते ही उनके ऊपर ‘संघी’ होने का ठप्पा न लगा दें हम, इसका ध्यान देना होगा क्योंकि यह चलन लगातार प्रगतिशीलों में बढ़ता जा रहा है। प्रतिक्रियावाद की प्रतिक्रिया में एक और प्रतिक्रियावाद जो जन्म ले रहा है, वह वैज्ञानिक चेतना के प्रसार के काम से लक्षित जनता को दूर करता जा रहा है और समाज को खांचों में बांट रहा है।
अगर यह समाज संघियों और गैर-संघियों में ही बंट गया, तो आप विज्ञान का पाठ फिर किसे पढ़ाएंगे? जिन्हें वास्तव में जनता की चेतना की चिंता है, वे जनता को जनता समझना पहले शुरू करें। उसे अपनी या दुश्मन की constituency मानना छोड़ दें। अन्यथा सारी बात बेमानी और रस्मी होकर रह जाएगी।
लेखक गणित विषय में प्रशिक्षित फ्रीलांस पत्रकार हैं, मीडियाविजिल के कार्यकारी संपादक हैं और पिछले कुछ समय से बच्चों के बीच विज्ञान प्रसार के काम में भी जुड़े हुए हैं। यह परचा लेखक द्वारा 2016 में दिए जाने वाले जे.सी. बोस व्याख्यान का आधारपत्र है।