मीडियाविजिल अपने पाठकों के लिए एक विशेष श्रृंखला शुरू कर रहा है। इसका विषय है ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और विकास। यह श्रृंखला दरअसल एक लंबे व्याख्यान का पाठ है, इसीलिए संवादात्मक शैली में है। यह व्याख्यान दो वर्ष पहले मीडियाविजिल के कार्यकारी संपादक अभिषेक श्रीवास्तव ने हरियाणा के एक निजी स्कूल में छात्रों और शिक्षकों के बीच दो सत्रों में दिया था। श्रृंखला के शुरुआती चार भाग माध्यमिक स्तर के छात्रों और शिक्षकों के लिए समान रूप से मूलभूत और परिचयात्मक हैं। बाद के चार भाग विशिष्ट हैं जिसमें दर्शन और धर्मशास्त्र इत्यादि को भी जोड़ कर बात की गई है, लिहाजा वह इंटरमीडिएट स्तर के छात्रों और शिक्षकों के लिहाज से बोधगम्य और उपयोगी हैं। इस कड़ी में प्रस्तुत है ”ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और विकास” पर पहला भाग:
आज मुझे आप सब के सामने ब्रह्मांड पर बोलने को कहा गया है। मुझे ब्रह्मांड के विकास क्रम पर अपनी बात रखनी है। यह काम बहुत मुश्किल है। मेरे लिए कहीं ज्यादा मुश्किल इसलिए है क्योंकि अव्वल तो खगोलशास्त्र यानी कॉस्मोलॉजी से मेरा कोई लेना-देना नहीं है। दूसरे, मैं पेशे से वैज्ञानिक भी नहीं हूं। मैं पेशे से एक पत्रकार हूं। मेरा काम है लिखना और बोलना। अपनी बात को लोगों तक इस तरीके से पहुंचाना कि उन्हें समझ में आ सके। इस लिहाज से मैं बेसिकली एक कम्युनिकेटर हूं जिसका काम माध्यम का बेहतर से बेहतर इस्तेमाल कर के संदेश को ज्यादा से ज्यादा कम्युनिकेबल तरीके से टारगेट ऑडिएंस तक पहुंचाना होता है। विषय कोई भी हो सकता है। जाहिर है, इस बार यह विषय यूनिवर्स है। कभी मैं राजनीति पर बोलता हूं। कभी फिल्मों पर। कभी शिक्षा पर। विषय बदलता रहता है, ऑडिएंस बदलती रहती है, लेकिन उद्देश्य एक ही होता है- अपनी बात को समझा पाना।
आपकी बात कोई समझ जाए, इससे बड़ा सुख कोई नहीं होता। आपकी बात कोई न समझ पाए, इससे बड़ा दुख कोई नहीं होता। किसी हिंदी के आलोचक ने ऐसा कभी कहा था। मुझे लगता है कि इससे भी बड़ा एक दुख है। शायद वो जीवन का सबसे बड़ा दुख होगा हम सभी के लिए। शायद यह मानवता का सबसे बड़ा दुख होगा। वो दुख है खुद को न समझ पाने का दुख। अपनी आसपास की धरती को, वातावरण को, प्रकृति को न समझ पाने का दुख। कुछ बुनियादी सवाल हम लगातार खुद से पूछते रहते हैं और आजीवन उनके जवाब ढूंढते रहते हैं। जैसे, हम कौन हैं? कहां से आए हैं? कहां जाएंगे? हम क्यों है? हम जब होंगे तो क्यों नहीं होंगे? हमारी नियति क्या है? जीवन कितना अहम है? क्या यह जीवन कहीं और भी है या सिर्फ हमारी धरती पर? क्या धरती से बाहर भी कुछ है? क्या है? यह ब्रह्मांड कितना बड़ा है? हम कितने छोटे हैं? यह जो जीवन और मौत का सिलसिला है, कितना लंबा है? क्या सब कुछ ऐसे ही चलता रहेगा? जैसे मान लीजिए, अभी जून में भूकम्प आया था। खतरनाक था। आप सबने महसूस किया होगा। एक बार को तो हम सब लोग डर गए थे। क्या ऐसा हो सकता है कि कोई भूकम्प आए, सुनामी आए, आपदा आए और सब खेल खत्म? आप समझ रहे हैं कि मैं क्या कह रहा हूं?
कुछ संख्याओं से इस बात को समझने की कोशिश करिए। ये जो हमारी धरती है, पृथ्वी, हमारा ग्रह, जो सूरज के इर्द-गिर्द चक्कर काटता है, उसकी उम्र करीब 5 अरब साल है। हम इसके बारे में कितना जानते हैं? अभी 2015 चल रहा है। क्राइस्ट के पहले इतना ही और जोड़ लीजिए। लिखित इतिहास चार-पांच हजार साल का है। यानी पांच अरब साल में में हमारे पास मनुष्यता का ज्ञात इतिहास ज्यादा से ज्यादा पांच हजार साल का है। कितना परसेंट हुआ? आगे बढि़ए। वैज्ञानिकों के मुताबिक इस ब्रह्मांड की अब तक ज्ञात उम्र 13 अरब साल या उससे ज्यादा है यानी हमारी धरती आठ अरब साल बीत जाने के बाद पैदा हुई थी। इस आठ अरब साल के दौरान क्या हुआ था? कुछ नहीं पता।
अभी यह भी तय नहीं है कि ब्रह्मांड की जो तेरह अरब साल उम्र बताई जा रही है, वह कितनी सही है क्योंकि उसके आगे का पता नहीं लग सका है। वैज्ञानिक कहते हैं यह जो तेरह अरब साल की उम्र वाला ब्रह्मांड है, यह विजिबल है। दृश्य है। इसके आगे अदृश्य है, जो डार्क एनर्जी और डार्क मैटर से बना है। डार्क एनर्जी 73 फीसदी है। डार्क मैटर 22 फीसदी है। यानी हम कितना जानते हैं अपने ब्रह्मांड को? केवल पांच फीसदी। गनीमत है कि ब्रह्मांड की उम्र इनफाइनाइट नहीं है, लेकिन यह जो फाइनाइट है, 13 अरब साल यानी 95 परसेंट अदृश्य, यह भी हमारी क्षमता और ज्ञान के लिहाज से इनफाइनाइट (अनंत) ही है। मतलब जानने के लिए इतना बहुत कुछ बाकी है कि हम जितना जानते हैं, वह उसकी तुलना में तकरीबन शून्य है। अब तक के सारे ज्ञान-विज्ञान की कुल उपलब्धि यह है कि वह मनुष्य के शरीर के बाहर स्थित ब्रह्मांड को केवल पांच परसेंट जान सका है।
ब्रह्मांड को छोडि़ए। आप अपने को ही ले लीजिए। अपने को यानी किसी भी मनुष्य को, जिसकी औसत उम्र साठ सत्तर साल होती है। 13 अरब साल की इस धरती पर साठ सत्तर साल क्या है? हम कह सकते हैं कि इस ब्रह्मांड में सबसे छोटी लेकिन सबसे उन्नत इकाई एक मनुष्य है। मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि हमारा दिमाग एक ऐसे आइसबर्ग की तरह होता है जिसका सिर्फ दस परसेंट पानी के बाहर दिखता है और नब्बे परसेंट पानी में डूबा होता है। बड़ी दिक्कत है। पहले तो इस पानी से ऊपर दिख रहे दस परसेंट को जानना होगा। उसके बाद नब्बे परसेंट को। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि दस परसेंट को जान लेना सबसे उन्नत अवस्था है। इतना जानने के बाद आदमी सामान्य नहीं रह जाता। पागल हो जाता है। सोचिए, दस परसेंट में ही आदमी पागल हो जा रहा है। बाकी नब्बे परसेंट का क्या होगा।
कुछ लोग हुए हैं जो अपने बारे में ज्यादा जानने के बाद पागल नहीं हुए तो भगवान बना दिए गए हैं। जैसे गौतम बुद्ध। वहां भी हालांकि दस परसेंट से कम ही ज्ञान था। औसतन हम सभी अपने बारे में पांच फीसदी इस जीवन में जान पाते हैं। इस दस फीसदी का सबसे कम हिस्सा विजिबल होता है, सचेतन, जिसे हम कॉन्शियस कहते हैं। बाकी अनकॉन्शियस होता है या सबकॉन्शियस। सारा ज्ञान विज्ञान इसी को जानने में जुटा हुआ है। अब तक पांच परसेंट से ज्यादा का दावा कोई नहीं कर पाया है।
(जारी)