जनसत्‍ता के संपादकीय विभाग में कौन है असंवैधानिक सलवा जुड़ुम का हमदर्द?

अभिषेक श्रीवास्तव
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जनसत्‍ता में आजकल पहला संपादकीय कौन लिख रहा है, इसका जवाब जानना दिलचस्‍प हो सकता है। वैसे हो कोई भी, लेकिन पक्‍का है कि उस आदमी को न तो ख़बर की जानकारी है, न संविधान का ज्ञान और न ही इस देश की न्‍यायपालिका का सम्‍मान है। वह कोई विशुद्ध लंपट भक्‍त होगा जो सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवमानना अपने लिखे संपादकीय में कर रहा है और वो इतना नादान भी है कि उसे इसका अंदाज़ा तक नहीं है।


संदर्भ के लिए गुरुवार यानी आज का जनसत्‍ता देखें जिसका पहला संपादकीय है ”नक्‍सली नासूर”। शुरुआती छह पंक्तियों के बाद यह संपादकीय कहता है, ”छत्‍तीसगढ़ में नक्‍सली प्रभाव समाप्‍त करने के मकसद से सलवा जुड़ुम जैसे प्रयोग किए गए, सुरक्षा बलों को अधिक चौकस बनाने का प्रयास किया गया, मगर इन सबका कोई खास असर नहीं दिखा।”

इस संपादक (जो अधिकतम सहायक संपादक या सह-संपादक के पद पर होगा) को सलवा जुड़ुम एक ”प्रयोग” दिखता है और इसे दुख है कि ऐसे ‘प्रयोग’ का ”कोई खास असर नहीं दिखा”। लगता है इसने बरसों पहले अख़बार पढ़ना छोड़ दिया है, वरना इसे पता होता कि सुप्रीम कोर्ट पांच साल पहले सलवा जुड़ुम को ”गैर-कानूनी और असंवैधानिक” ठहरा चुका है।

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प्रोफेसर नंदिनी सुंदर और अन्‍य द्वारा सु्प्रीम कोर्ट में सलवा जुड़ुम के खिलाफ़ दाखिल एक रिट याचिका पर जस्टिस सुदर्शन रेड्डी और एसएस निज्‍जर ने जुलाई 2011 में ही फैसला सुनाते हुए इस अभियान को ”गैर-कानूनी और असंवैधानिक” ठहरा दिया था और इसके तहत भर्ती किए गए एसपीओ यानी ‘कोया कमांडो’ को तुरंत निरस्‍त्र करने का राज्‍य सरकार को आदेश दिया था।

एक राष्‍ट्रीय अखबार के संपादकीय में सुप्रीम कोर्ट द्वारा असंवैधानिक ठहराए गए एक कृत्‍य को ‘प्रयोग’ का नाम देना और उसके नाकाम रहने पर अफ़सोस  की शैली में बात करना संवैधानिक अपराध माना जाना चाहिए। यह संपादकीय प्रेस परिषद में एक औपचारिक शिकायत की मांग करता है।

बहरहाल, इतने बड़े ब्‍लंडर के बाद ज़ाहिर है कि संपादक को आगे और फिसलना था, सो वे फिसले हैं। वे दूसरे पैरा में कहते हैं, ”नक्‍सलियों की लड़ाई सैद्धांतिक स्‍तर पर शुरू हुई थी, पर अब वह अपनी दिशा खो चुकी है। उनके विभिन्‍न संगठनों से तालमेल हो चुके हैं जहां से उन्‍हें गुरिल्‍ला प्रशिक्षण और साजो-सामान उपलब्‍ध हो रहे हैं।” नक्‍सलियों की लड़ाई की दिशा जब ‘खोई’ नहीं थी तब क्‍या यह संपादक नक्‍सलियों के समर्थक हुआ करते थे जो वे अफ़सोस जता रहे हैं? जैसा कि ठीक पहले की पंक्ति में इन्‍होंने कहा है, अगर ”नक्‍सल समस्‍या पर काबू न पाए जा सकने का बड़ा कारण सरकार का उनके साथ बातचीत का व्‍यावहारिक सिलसिला शुरू न कर पाना है और उन्‍हें विश्‍वास में न ले पाना है” तो अचानक उछलकर सिद्धांत बनाम व्‍यवहार के सवाल आ जाने का क्‍या मतलब है।

एक पंक्ति में संवादहीनता के लिए सरकार को दोषी ठहराते हुए दूसरी पंक्ति में नक्‍सलियों के सिद्धांतच्‍युत होने की बात करना एक बेहद भ्रमित मस्तिष्‍क की ही उपज हो सकता है जो अपने लिखे को लीपने-पोतने की कोशिश में सब गुड़गोबर कर देता है।

खैर, नक्‍सलियों के किन संगठनों से तालमेल हो चुके हैं जो उन्‍हें प्रशिक्षण और साजो-सामाना मुहैया करा रहे हैं? इसका स्रोत क्‍या है लेखक के पास? क्‍या उन्‍हें इन संगठनों के नाम पता हैं? एक संपादकीय में ऐसी हलकी बात बिना स्रोत के कहने की छूट कैसे ली जा सकती है? चूंकि उन्‍हें स्रोत नहीं बताना, इसलिए वे अगली ही पंक्ति में कहते हैं, ”यह भी छिपी बात नहीं है…।” यानी वे मानकर चल रहे हैं कि वे जो कह रहे हैं वह पब्लिक डोमेन का हिस्‍सा है और सारे पाठक उसे जानते हैं। इसे कहते हैं विशुद्ध प्रोपगेंडा लेखन, जिसमें जो बात दिमाग में डाली जानी होती है उसका स्रोत बताए बगैर यह कह दिया जाता है कि यह तो सर्वज्ञात तथ्‍य है।

आगे देखिए, ”सुरक्षा बल उनकी लड़ाई को कमज़ोर करने में स्‍थानीय लोगों का विश्‍वास नहीं जीत पा रहे हैं…।” ऐसा लिखकर चुपके से यह संदेश दिया जा रहा है कि लड़ने वाले स्‍थानीय लोग नहीं, बाहरी हैं। वे बाहरी कौन हैं इस पर लेखक चुप है।

अंत तक आते-आते संपादकजी एक नादान जिज्ञासा उछालते हैं, ”पूर्वोत्‍तर के कई विद्रोही संगठन जब बातचीत के जरिए अपना हिंसक रास्‍ता छोड़ने को तैयार हो सकते हैं तो नक्‍सलियों को बातचीत के जरिए समझाना क्‍यों कठिन होना चाहिए।” कोई प्रशिक्षु पत्रकार भी बता सकता है कि पूर्वोत्‍तर और मध्‍य भारत की लड़ाई में क्‍या फ़र्क है। अगर लड़ाई का फ़र्क है, तो समाधान एक कैसे हो सकता है भला? लेकिन दिक्‍कत ये है कि संपादक महोदय ने पूर्वोत्‍तर के मामले में राष्‍ट्रीयता और जातीयता के संघर्ष का नाम ही नहीं सुना होगा। न ही उन्‍हें यह पता होगा कि मध्‍य भारत के आदिवासियों का मसला दरअसल जल, जंगल और ज़मीन की लूट का मसला है, राष्‍ट्रीयता का नहीं।

वे पूरे देश को एक लाठी से हांकने की फिराक में हैं, लेकिन उन्‍हें यह नहीं पता कि अपने ज़खीरे में से कौन सी लाठी निकालनी है। इसीलिए आरंभ में वे सलवा जुड़ुम के हिंसक प्रयोग की पैरवी करते दिखते हैं, बीच में सरकारी संवाद की बात पर आते हैं और उसके बाद सुरक्षा बलों के इंटेलिजेंस आदि से होते हुए फिर से ”व्‍यावहारिक रास्‍ता” निकालने लग जाते हैं।

सबसे दिलचस्‍प पंक्ति इस संपादकीय की आखिरी पंक्ति है, ”अगर नक्‍सल समस्‍या का बारीकी से अध्‍ययन कर व्‍यावहारिक रास्‍ता निकाला जाए तो इस हिंसक प्रवृत्ति पर काबू पाना शायद कठिन नहीं होगा।” संपादकजी को लगता है कि अब तक बारीकी से किसी ने अध्‍ययन किया ही नहीं। उन्‍हें बता दिया जाए कि 2008 में योजना आयोग की संस्‍तुति पर ग्रामीण विकास मंत्रालय ने वामपंथी चरमपंथ से प्रभावित इलाकों का एक बारीक अध्‍ययन कर के अपनी रिपोर्ट आयोग को सौंपी थी जिसमें सरकारी विकास नीतियों को माओवाद की पैदाइश का कारण बताया गया था। वह रिपोर्ट अब भी गूगल पर है, बशर्ते संपादकजी को गूगल करना आता हो। इससे ज्‍यादा बारीक सरकारी अध्‍ययन आज तक नहीं हुआ है।

बहरहाल, ऐसा लगता है कि जनसत्‍ता का यह पत्रकार संपादकीय लिखते वक्‍त बारीकी के चक्‍कर में इतना उलझ गया है कि नक्‍सली हमलों को समस्‍या बताने से शुरू कर के वह अंत में इसे ”हिंसक प्रवृत्ति” करार देता है। ”प्रवृत्ति” एक मनोवैज्ञानिक कोटि है। अगर नक्‍सली हमले सामाजिक-राजनीतिक ”समस्‍या” नहीं बल्कि ”प्रवृत्ति” हैं, तब तो बड़ी मुश्किल है। प्रवृत्तियां मरते दम तक ठीक नहीं होतीं, चाहे कुछ कर लीजिए। बेहतर होता कि संपादकजी अंत में नक्‍सलियों की मनोचिकित्‍सा का भी नुस्‍खा बतला ही देते।

एक राष्‍ट्रीय अख़बार में चाय की दुकान जैसी चर्चा की शैली में पहला संपादकीय लिखने वाले इस गैर-जिम्‍मेदार पत्रकार के ऊपर क्‍या कार्रवाई हो, यह पाठक खुद तय करें। क्‍या संपादक की शिकायत प्रेस परिषद में की जाए? क्‍या अखबार को इसकी औपचारिक शिकायत भेजी जाए? क्‍या इस पर चुप रहा जाए यह मानते हुए कि ऐसे पत्रकार भांग खाकर हर अखबार में पड़े हुए हैं और दरअसल अपनी अज्ञानता के चलते निर्दोष हैं?