टीपू ने मरते दम तक ‘रामनामी अँगूठी’ पहनी, RSS ने ‘हिंदू विरोधी’ बना दिया !

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टीपू सुल्तान भारत का वह महान शासक है जिसने दुनिया में पहली बार रॉकेट का इस्तेमाल किया, जिसने 1857 की क्रांति से आधी सदी से भी पहले अंग्रेज़ों से लगातार मोर्चा लिया और युद्धभूमि में शहीद हो गया। लेकिन मौजूदा दौर में आरएसस और बीजेपी के नेताओं और समर्थकों की ओर से उसे बर्बर शासक साबित करने की लगातार कोशिश हो रही है जिसने हिंदुओं पर अत्याचार किया। इसके लिए तमाम झूठे किस्से गढ़े गये हैं।

यहाँ ध्यान रखना चाहिए कि 1857 की क्रांति के तमाम नायक अंतिम समय तक ‘अपनी रियासत’ को बचाने, दत्तक पुत्र को मान्यता दिलाने या फिर उचित पेंशन के लिए अंग्रेज़ों से समझौते की हर मुमकिन कोशिश करते रहे, जबकि टीपू ने फ्रांसीसियों के साथ मिलकर अंग्रेज़ों को उखाड़ फेंकने की वृहत योजना पर काम किया। उसने पूरी कोशिश की कि ग़ुलामी की व्यवस्था जड़ ना जमा सके। राज्य शासन की उसकी व्यवस्थाएँ इतनी प्रभावशाली थीं कि अंग्रेज़ों ने भी उन्हें आगे बढ़ाया।

अफ़सोस कि सांप्रदायिक विषबेल से सत्ता का तंबू तानने वालों को इस बात से भी कोई मतलब नहीं कि टीपू के तमाम उच्च अधिकारी हिंदू थे, उसकी अँगूठी में राम खुदा था, वह श्रृंगेरी मठ का संरक्षक था, उनकी नज़र में टीपू बस मुसलमान था जिससे सिर्फ़ नफ़रत की जा सकती है।

सच्चाई यह है कि टीपू एक मध्ययुगीन शासक था जिसका ज़ोर तलवार से चलता था और दुश्मनों को ख़त्म करना उसकी भी नीति थी। जैसे मराठों ने मौका पाकर श्रृंगेरी के मठ को लूटने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।

 

( 1799 में श्राीरंगपट्नम की लड़ाई में शहीद हुए टीपू सुल्तान के मृत शरीर से यह अँगूठी निकाली गई थी। इस पर ‘राम ‘ खुदा हुआ है। 41 ग्राम सोने की इस अँगूठी को 2014 में लंदन के क्रिस्टीज़ नीलामघर ने एक लाख 45 हज़ार पाउंड में एक अनाम ग्राहक को बेचा था )

टीपू को मतांध बताने का अभियान बीजेपी शासन में प्रचंड हुआ है लेकिन इसकी शुरूआत काफी पहले हुई थी। टीपू के ख़िलाफ़ तमाम क़िस्से गढ़े गए। ऐसा ही एक क़िस्सा उड़ीसा के पूर्व राज्यपाल और मशहूर गाँधीवादी नेता प्रो.बी.एन.पांडेय ने अपनी पुस्तक “इतिहास के साथ अन्याय” में दर्ज किया है। प्रो.पाण्डेय ने लिखा है कि कि टीपू सुल्तान को मतांध साबित करने के लिए ‘शास्त्रीय साज़िश’ रची गई थी जिसका पता उन्हें अपने शोध के दौरान लगा। नीचे पढ़िए, इस संबंध में उनका यह महत्वपूर्ण लेख–

“जब मै इलाहाबाद में 1928 ई. में टीपू सुलतान के सम्बन्ध में रिसर्च कर रहा था, तो ऐंग्लो-बंगाली कालेज के एक छात्र-संगठन के कुछ पदाधिकारी मेरे पास आए और अपने ‘हिस्ट्री-ऐसोसिएशन‘ का उद्घाटन करने के लिए मुझको आमंत्रित किया।ये लोग कालेज से सीधे मेरे पास आए थे।उनके हाथों में कोर्स की किताबें भी थीं, संयोगवश मेरी निगाह उनकी इतिहास की किताब पर पडी। मैंने टीपू सुलतान से संबंधित अध्याय खोला तो मुझे जिस वाक्य ने बहुत ज्यादा आश्चर्य में डाल दिया, वह यह था : तीन हज़ार ब्राहमणों ने आत्महत्या कर ली, क्योंकि टीपू उन्हें ज़बरदस्ती मुसलमान बनाना चाहता था।

इस पाठ्य-पुस्तक के लेखक महामहोपाध्याय डा. परप्रसाद शास्त्री थे जो कलकत्ता विश्वविद्यालय में संस्कृत के विभागाघ्यक्ष थे। मैंने तुरन्त डा. शास्त्री को लिखा कि उन्होंने टीपू सुल्तान के सम्बन्ध में उपरोक्त वाक्य किस आधार पर और किस हवाले से लिखा है। कई पत्र लिखने के बाद उनका यह जवाब मिला कि उन्होंने यह घटना ‘मैसूर गज़ेटियर‘ (Mysore Gazetteer) से उद्धृत की है। मैसूर गज़टियर न तो इलाहाबाद में और न तो इम्पीरियल लाइब्रेरी, कलकत्ता में प्राप्त हो सका। तब मैंने मैसूर विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति सर बृजेन्द्र नाथ सील को लिखा कि डा. शास्त्री ने जो बात कही है उसके बारे में जानकारी दें। उन्होंने मेरा पत्र प्रोफेसर श्री कन्टइया के पास भेज दिया जो उस समय मैसूर गजे़टियर का नया संस्करण तैयार कर रहे थे। प्रोफेसर श्री कन्टइया ने मुझे लिखा कि तीन हज़ार ब्राहम्णों की आत्महत्या की घटना ‘मैसूर गज़ेटियर’ में कहीं भी नहीं है और मैसूर के इतिहास के एक विद्यार्थी की हैसियत से उन्हें इस बात का पूरी यक़ीन है कि इस प्रकार की कोई घटना घटी ही नहीं है। उन्होंने मुझे सूचित किया कि टीपू सुल्तान के प्रधानमंत्री पुनैया नामक एक ब्राह्मण थे और उनके सेनापति भी एक ब्राहम्ण कृष्णाराव थे।उन्होंने मुझको ऐसे 156 मंदिरों की सूची भी भेजी जिन्हें टीपू सुल्तान वार्षिक अनुदान दिया करते थे। उन्होंने टीपू सुल्तान के तीस पत्रों की फोटो कापियां भी भेजी जो उन्होंने श्रंगेरी मठ के जगद्गुरू शंकराचार्य को लिखे थे और जिनके साथ सुल्तानके अति घनिष्ठ मैत्री सम्बन्ध थे।

मैसूर के राजाओं की परम्परा के अनुसार टीपु सुल्तान प्रतिदिन नाश्ता करने के पहले रंगनाथ जी के मंदिर में जाते थे, जो श्रींरंगापटनम के क़िले में था। प्रोफेसर श्री कन्टइया के विचार में डा. शास्त्री ने यह घटना कर्नल माइल्स की किताब ‘हिस्ट्री आफ मैसूर‘ (मैसूर का इतिहास) से ली होगी।इसके लेखक का दावा था कि उसने अपनी किताब ‘टीपू सुल्तान का इतिहास‘ एक प्राचीन फ़ारसी पांडुलिपि से अनूदित किया है जो महारानी विक्टोरिया के निजी लाइब्रेरी में थी।खोज-बीन से मालूम हुआ कि महारानी की लाइब्रेरी में ऐसी कोई पांडुलिपि थी ही नहीं और कर्नल माइल्स की किताब की बहुत-सी बातें बिल्कुल ग़लत एवं मनगढंत हैं।

डा. शास्त्री की किताब का पश्चिम बंगाल, असम, बिहार, उडीसा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश एवं राजस्थान में पाठयक्रम के लिये स्वीकृत थीं। मैंने कलकत्ता विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति सर आशुतोष चैधरी को पत्र लिखा और इस सिलसिले में अपने सारे पत्र-व्यवहारों की नक़लें भेजीं और उनसे निवेदन किया कि इतिहास को इस पाठय-पुस्तक में टीपू सुल्तान से सम्बन्धित जो ग़लत और भ्रामक वाक्य आए हैं उनके विरुद्ध समुचित कार्रवाई की जाए। सर आशुतोष चैधरी का शीघ्र ही जवाब आ गया कि डा. शास्त्री की उक्त पुस्तक को पाठयक्रम से निकाल दिया गया है। परन्तु मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि आत्महत्या की वही घटना 1972 ई. में भी उत्तर प्रदेश में जूनियर हाई स्कूल की कक्षाओं में इतिहास के पाठयक्रम की किताबों में उसी प्रकार मौजूद थी।

इस सिलसिले में महात्मा गांधी की वह टिप्पणी भी पठनीय है जो उन्होंने अपने अखबार ‘यंग इंडिया‘ में 23 जनवरी 1930 ई. के अंक में पृष्ठ 31 पर की थी। उन्होंने लिखा था कि-‘‘मैसूर के फ़तह अली (टीपू सुल्तान) को विदेशी इतिहासकारों ने इस प्रकार पेश किया है कि मानो वह धर्मान्धता का शिकार था। इन इतिहासकारों ने लिखा है कि उसने अपनी हिन्दू प्रजा पर जुल्म ढाए और उन्हें जबरदस्ती मुसलमान बनाया जबकि वास्तविकता इसके बिल्कुल विपरीत थी।हिन्दू प्रजा के साथ उसके बहुत अच्छे सम्बन्ध थे। ……

मैसूर राज्य (अब कर्नाटक) के पुरातत्व विभाग (Archaeology Department) के पास ऐसे तीस पत्र हैं जो टीपू सुल्तान ने श्रंगेरी मठ के जगद्गुरू शंकराचार्य केा 1793 ई. में लिखे थे। इनमें से एक पत्र में टीपु सुल्तान ने शंकराचार्य के पत्र की प्राप्ति का उल्लेख करते हुए उनसे निवेदन किया है कि वे उसकी और सारी दुनिया की भलाई, कल्याण और खुशहाली के लिए तपस्या और प्रार्थना करें। अन्त में उसने शंकराचार्य से यह भी निवेदन किया है कि वे मैसूर लौट आएं क्योंकि किसी देश में अच्छे लोगों के रहने से वर्षा होती है, फस्ल अच्छी होती हैं और खुशहाली आती हैं।यह पत्र भारत के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखे जाने के योग्य है।

‘यंग इण्डिया में आगे कहा गया है-‘‘टीपू सुल्तान ने हिन्दू मन्दिरों विशेष रूप से श्री वेंकटरमण, श्री निवास और श्रीरंगनाथ मन्दिरों की ज़मीनें एवं अन्य वस्तुओं के रूप में बहुमूल्य उपहार दिए।कुछ मन्दिर उसके महलों के अहाते में थे यह उसके खुले जेहन, उदारता एवं सहिष्णुता का जीता-जागता प्रमाण है।इससे यह वास्तविकता उजागर होती है कि टीपू एक महान शहीद था।जो किसी भी दृष्टि से आज़ादी की राह का हकीकी शहीद माना जाएगा, उसे अपनी इबादत में हिन्दू मन्दिरों की घंटियों की आवाज़ से कोई परेशानी महसूस नहीं होती थी।टीपू ने आज़ादी के लिए लड़ते हुए जान दे दी। लाश अज्ञात फौजियों की लाशों में पाई गई तो देखा गया कि मौत के बाद भी उसके हाथ में तलवार थी-वह तलवार जो आजादी हासिल करने का ज़रिया थी। उसके ये ऐतिहासिक शब्द आज भी याद रखने के योग्य हैं :‘शेर की एक दिन की ज़िंदगी लोमड़ी के सौ सालों की ज़िंदगी से बेहतर है।

उसकी शान में कही गई एक कविता की वे पंक्तियां भी याद रखे जाने योग्य हैं जिनमें कहा गया है- ‘ख़ुदाया, जंग के ख़ून बरसाते बादलों के नीचे मर जाना, लज्जा और बदनामी की जिंदगी जीने से बेहतर है।