अभिषेक श्रीवास्तव
जब साहित्यिक जगत में कोई उल्लेखनीय घटना न घटी हो, किसी लेखक ने कोई पुरस्कार न लौटाया हो या किसी बड़े कवि की मौत न हुई हो, वैसे में एक कवि का राष्ट्रीय समाचार चैनल के प्राइम टाइम शो पर आना अपने आप में एक अहम परिघटना है। सोमवार को एनडीटीवी पर रवीश कुमार के प्राइम टाइम शो में हमारे समय की सबसे अच्छी कविताएं लिख रहे कवि देवीप्रसाद मिश्र नमूदार हुए। कविताएं लेकर नहीं, कविता पर बात करने के लिए नहीं, बल्कि एक ऐसी घटना के बहाने जो उनके साथ खुद पिछले दिनों घट चुकी है।
दिल्ली के जीटीबी नगर में कुछ लड़कों ने एक ई-रिक्शेवाले को इसलिए जान से मार दिया क्योंकि उसने एक छात्र को सड़क पर पेशाब करने से रोका था। कुछ दिन पहले देवीप्रसाद मिश्र के साथ ऐसी ही एक घटना घटी थी जब उन्होंने एक डीटीसी बस के कंडक्टर को सड़क पर पेशाब करने से रोका था और उन्हें बस के स्टाफ ने मिलकर काफी मारा था। उन्होंने उसका वीडियो बनाया जो फेसबुक पर काफी सर्कुलेट हुआ था। उसके बाद उन्होंने एक लंबी कविता लिखी जिसमें उस घटना का दर्द झलकता था। देवीप्रसाद मिश्र जि़ंदा बच गए, इसलिए किसी मीडिया हाउस ने परवाह नहीं की कि एक कवि के सरेराह पिटने को ख़बर बनाया जाए। रिक्शेवाला मर गया, तो चैनल को मिश्र की याद आ गई। एक लिहाज से यह ठीक भी है और दूसरे लिहाज से बुरा भी।
ठीक इसलिए क्योंकि मिश्र ने रवीश कुमार के शो में जो कुछ कहा, वह अतिमानवीय और तर्कपूर्ण बात है। उन्हें मानसिक रूप से बीमार होते इस समाज की चिंता है और वे मानते हैं कि इस समाज में क्रूरता का बराबरी से बंटवारा हो रहा है क्योंकि ऐसे लोग राजनीतिक सत्ता में आ गए हैं जो हिंसक व क्रूर रहे हैं। वे साफ़ कहते हैं कि जिस बसवाले ने उनकी पिटाई की, वह उनका वर्ग शत्रु नहीं है। वे कभी नहीं चाहेंगे कि उसकी नौकरी चली जाए। हर तरफ़ चीख-चिल्लाहट और उकसावे के दौर में इतनी मानवीय बात एक कवि ही कह सकता है। पेशाब के बहाने ही सही, हिंदी का दर्शक समाज यह जान पाया कि हिंदी का एक कवि दुनिया के बारे में क्या सोचता है।
एक लिहाज से यह गलत भी कहा जा सकता है। अव्वल तो इसलिए क्योंकि जब यह घटना देवीप्रसाद मिश्र के साथ घटी तो उन्हें ऐसी स्पेस नहीं मिली। दूसरे, एक लेखक को उसके लेखन या विचार के बजाय उसके साथ घटी एक घटना के सदृश किसी दूसरी घटना के बहाने मीडिया में याद किया जाए, यह उसकी पहचान को धुंधला करने जैसी बात है। इससे एक परिपाटी भी बनती है कि आगे जब कभी सड़क पर पेशाब करने के संबंध में कोई घटना घटेगी, तो पत्रकारों को देवीप्रसाद मिश्र याद आएंगे।
बहरहाल, पुरस्कार वापसी वाले प्रकरण के दौरान 2015 के अक्टूबर के बाद से देखें तो ऐसा पहली बार है जब किसी लेखक को टीवी के समाचार चैनल पर बुलाया गया और उससे बात की गई है। रवीश कुमार इसके लिए धन्यवाद के पात्र हैं। पुरस्कार वापसी के प्रकरण में जिस तरीके से मीडिया ने लेखकों को खलनायक और देशद्रोही बना दिया था, उसके बाद से साहित्यिक जगत के एक्टिविज्म में ऐसी ठंडक पड़ी कि लगा गोया देश भर की अच्छी-बुरी हलचलों के बीच लेखक नाम का जीव अप्रासंगिक हो चुका है। सामाजिक-राजनीतिक सवालों पर लेखकों को दरकिनार करने का काम जिस तरीके से पिछले दो साल में हुआ है, ऐसा पत्रकारिता के इतिहास में कभी नहीं हुआ था। पत्रकारिता और साहित्य का अन्योन्य रिश्ता हुआ करता था। वह रिश्ता टूट गया था। पेशाब जैसी अनिवार्य जैविक बाध्यता लेकिन एक बेहद सामान्य क्रिया के बहाने ही सही, मीडिया ने कवि को आखिरकार याद तो किया।
देवीप्रसाद मिश्र ने भले लिखा हो कि ”मेरे पास क्या है, एक बेज़ुबान आं है…”, लेकिन सोमवार का प्राइम टाइम दिखाता है कि इस समाज को देने के लिए एक लेखक के पास बहुत कुछ शेष है। शर्त ये है कि लेने वाला कोई हो। मौका है और दस्तूर भी, और चूंकि रवीश ने देवी से उनकी किसी कविता के बारे में बात नहीं की, तो एक कवि के साथ सबसे बड़ा न्याय यही होगा कि उसकी सबसे ताज़ातरीन और मारक कविता को दोबारा पढ़ा जाए।
पता नहीं यह रुलाई कैसी सी है
देवीप्रसाद मिश्र
मैं लिखित कविता की किसी तरह आती जाती साँस हूँ
उदास हूँ
मैं साहित्य से बाहर की बदहवासी हूँ मैं हवा को हेलो कहता पेंटागन का नहीं बच्चों का बनाया कागज का हेलीकॉप्टर हूँ अंधड़ हूँ मैं ईश्वर के न होने के उल्लास में सोता हुआ बेफिकरा लद्धड़ हूँ।
चकबंदी, नसबंदी और नोटबंदी
के गलियारों से गुज़रता मैं खुले जेल का बंदी
मैं ढूंढ़ रहा हूं चंदूबोर्डे की अपने समय की सबसे निर्भीकता से छक्के के लिये उड़ाई लाल गेंद की मर्फी रेडियो से छनकर आती मासूमियत।
इस बदहवासी में मैं कौन सी फिल्म देखने जाऊं सिनेमा थियेटर स्टाक मार्केट में बदल गये हैं क्रिकेट कैसिनो में।
मैं कितने ही चैनलों में ढूंढ़ता रहा सईद अख्तर मिर्जा की कोई फिल्म लेकिन बार बार गुजरात के गिर फॉरेस्ट में हिरण को दौड़ाता व्याघ्र मिलता रहा और गुजरात दंगों का छुट्टा अभियुक्त और बुलेट ट्रेन के सपनों में मदमाता देशभक्त और अमिताभ बच्चन का गुजरात आने का आमंत्रण लेकिन उनके बुलाने के पहले ही मैं तो गुलबर्ग सोसायटी हो आया था
और रो आया था
पता नहीं यह रुलाई
वैसी ही थी या नहीं कि जैसी भारतेंदु हरिश्चंद्र रोये होंगे बनारसी और बनिया नवजागरण की शैली में कि
भारत दुर्दशा देखी न जाई।
मतलब कि पर्यटन में आप पर यह मुमानियत तो हो नहीं सकती कि आप क्या न देखें
और इतिहास के किस दौर की किस शैली में
किस कोने में किस अंधेरे में किस उजाले के लिये रोएँ।
कोई मेरे कान में कहता है कि कारपोरेट हमारे भ्रष्ट ऐस्थेटिक्स में निवेश करता है और हमारी राजनीतिक मनुष्यता से डरता है। वह कोई कौन है कि जैसे सरकारी अस्पताल के कोने में बजती हुई खाँसी
और लक्ष्मीबाई के गिरने के बाद रौंदी हुई झाँसी।
एक तरफ पूरे देश की हाय है
जिसके बरक्स
प्लास्टिक चबाती बाल्टी भर राजनीतिक और अमूल दूध देती गाय है
और स्मृति के तुलसीत्व की रामदेवीय दंतकांतीय महक।
दहक……………ता है दिल।
निर्वासित है तो कहीं भी मिल।
नवाज़ुद्दीन को उनके अपने ही नगर में शिवसैनिकों ने मारीचि तक नहीं बनने दिया राम बनने की ललक उन्होंने दिखायी होती तो क्या होता कहा नहीं जा सकता
मैं रामलीला में कुछ नहीं बनूंगा
मैं भारतीय नागरिक के पात्र की भूमिका से ही हलकान हूं
मुक्तिबोध की तरह सबको नंगा देखता
और उसकी सज़ा पाता कंगले बनारसी बुनकर की कबीरी थकान हूं
नरोदा में एक के बाद दूसरा
जलाया गया मकान हूँ कह लीजिये अपने को कोसता हिंदुस्तान हूँ।
ईश्वर को धोखा देने की रणनीति से मैं काफी विह्वल हूँ
इतना संशयालु हूँ कि सम्भल हूँ और इतना म्लान हूँ कि धूमिल हूँ।
समकालीन
साम्यवाद किसी सुखवाद का नमूना है
होगा कोई विस्मृत आत्म-निर्वासित जिसे वैचारिक निमोनिया है
अगर देश को हिंदू राष्ट्र घोषित किया ही जाना था तो ठीक उसके पहले अखलाक की हत्या के अभियुक्त की मृत देह को तिरंगे में लपेटकर बर्फ में रखा गया।
जेल में वह चिकिनगुनिया से मरा या अपराधबोध से यह पोस्टमार्टम रिपोर्ट में निकलने से रहा फिर भी काबीना स्तर का मंत्री पूरे लाव लश्कर, राजनीतिक कार्यभार और सांस्कृतिक ज्वर के साथ पहुंचा। अफसोस यह कि आत्म सम्मान और सांप्रदायिकता के सात्विक क्रोध से कांपते हिंदुओँ से यह वादा न कर सका कि जन्मजात अब कोई शूद्र न होगा।
हिंदू सत्य इस समय लगभग हरेक की जेब में है स्मार्ट फोनों के ऐप में है श्रीराम सेना वालों के पास पड़े पड़े वह इतना कोसा हो गया है कि तीन साल पुराना मीथेनमय समोसा हो गया है
उत्तर-सत्य की इस महावेला में।
अब तो काफी लोगों का मानना है कि जाति पर अगर सोच समझकर राजनीतिक नीरवता में सर्जिकल स्ट्राइक किया जाय तो वह खत्म हो सकती है लेकिन फिर इसके लिये कम से कम एक कैबिनेट मीटिंग तो बनती है।
स्वातंत्र्योत्तर भारत में आज़ादी का नारा सबसे सांगीतिक तरीके से लगाने वाले कन्हैया ने हमारे पराभव के कुछ दिनों को आशावाद में बदल दिया
लेकिन काहे यार,
लालू का पैर छू लिया
फिर भी धन्यवाद एक डेढ़
पखवाड़े की झनझनाती टंगटड़ांग उम्मीद के लिये।
लालू हमारे अंत:करण के लिये ज़रूरी पदार्थमयता है।
सेक्युलरिज्म के लिये यह अच्छी खबर है कि हम सब भूल गये हैं कि लालूपोषित शहाबुद्दीन पूर्व जेएनएयू अध्यक्ष चंद्रशेखर का हत्यारा था मतलब कि लालू हमारे सेक्युलरीय गणित के लिये अनिवार्य अंक है
एक गल्प है कि हमारे पास विकल्प है।
आइये एक सवाल पूछते हैं मोदी से नहीं खुद से
कि
राष्ट्र के तौर पर हम कौन हैं-
यह द्विवेदी बताएंगे जो चैनलों में घूमता वैचारिक डॉन हैं
एक खूं
आलूदा पर्दे के सामने स्तब्ध बैठे हम स्साले निस्सार निरीह माशा छटांक आधा और पौन हैं।
मेरे पास क्या है एक बेजुबान आं है
सामने ढहता जग
है ठग है अपमान भूलने के लिये मेरे झोले में पंजाब से लायी ड्रग है
और काव्यगुणों में न लिथड़ता रेटरिक
और लाल सलाम वाला कटा हुआ हाथ
और जो आदिवासी मार दिया गया खाते समय
उसका न खाया भात