रोहिण कुमार
टीवी चैनलों और सोशल मीडिया पर फिल़हाल दो विडियो छाए हुए हैं. पहले विडियो में कुछ कश्मीरी युवा सीआरपीएफ के जवानों को छेड़ते हुए दिख रहे हैं. ईवीएम ले जा रहे जवानों को वे पैर से धक्का दे रहे हैं. दूसरा विडियो इंडिया टुडे चैनल के ऐंकर राहुल कँवल के डिबेट शो का है जो मेरठ में एक जोड़े को हिंदू युवा वाहिनी के लोगों द्वारा घर से जबरन बाहर निकाल कर पीटने और पुलिस के पास ले जाने वाली कुख्यात घटना पर था. वाहिनी के जिला प्रभारी नरेंद्र सिंह तोमर को टीवी स्टूडियो में बुलाया गया था लेकिन उसे बीच बहस ऐंकर ने बाहर का रास्ता दिखा दिया.
टीवी पर दोनों घटनाओं पर बहसें हो रही हैं और सोशल मीडिया पर लोग अपनी-अपनी सहूलियत के अनुसार विडियो शेयर कर रहे हैं. अलग-अलग वेब पोर्टल इन पर स्टोरी कर रहे हैं. सीआरपीएफ वाली विडियो शेयर कर रहे यूज़र और टीवी मीडिया इसे सेना के बड़प्पन के तौर पर पेश कर रहे हैं, तो स्टूडियो से वाहिनी के आदमी को बाहर निकाल भगाने वाले राहुल कँवल की प्रशंसा हो रही है. दोनों विडियो का संदर्भ और परिपेक्ष्य सहित विश्लेषण होना चाहिए.
टीवी के लिए पाकिस्तान और कश्मीर हमेशा ही मौजूं मुद्दे रहे हैं. मौजूदा वक़्त भी टीवी के लिए अनुकूल है. एक तरफ कुलभूषण जाधव और दूसरी तरफ कश्मीरी युवाओं का ‘हमलावर’ विडियो. कुलभूषण को सकुशल वापस लाने की मुहीम के बहाने समूचे देश में पाकिस्तान विरोधी नैरेटिव को और मजबूत किया जा रहा है. साथ ही एक धारणा यह बनाई जा रही है कि सेना मासूम है और उसे ‘पत्थरबाज़’ कश्मीरी उकसाते हैं. इस तरह प्रकारांतर से सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम (आफ्सपा) को जस्टिफाई करने की कोशिश जारी रहती है. इस नैरेटिव का प्रचार नया नहीं है. जब भी ऐसा कोई विडियो आता है, हर बार कश्मीर के विभिन्न पहलुओं को बिना जाने-समझे, वहां के लोगों का पक्ष जाने बगैर दिल्ली, पटना, भुवनेश्वर में बैठे-बैठे ‘कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है’ कहकर राष्ट्रप्रेम साबित करने की मुहिम शुरू कर दी जाती है. क्या कभी भी मीडिया ने कश्मीर के इतिहास को परत दर परत समझाया है? ऐसे कि दर्शक तय करें क्या सही है और क्या गलत?
हर बार राष्ट्रप्रेम की बूटी बनाकर कश्मीरियों को ख़ारिज करने वाले मीडिया से पूछा जाना चाहिए कि जब कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग बताते हो तो ग्राउंड रिपोर्टिंग में कश्मीरी युवाओं का वक्तव्य लेने से क्यों डरते हो? कभी कश्मीरी पंडितों, कभी पत्थर फेंकते युवाओं के बीच वहां के लोगों का जीवन भी तो दिखाओ. कुनान पोश्पोरा की काली रात का सच भी तो बताओ. आखिर, कश्मीरी युवा सेना से इतना क्यों चिढ़ता है? भारतीय राज्य आज तक वहां के लोगों का विश्वास क्यों नहीं जीत सका है? उपचुनावों में गुरुवार को वहां सिर्फ़ दो फीसदी वोट पड़े, क्यों? इन प्रश्नों को बिना सुलझाए, सिर्फ़ जवानों पर ‘हमले’ वाला विडियो चलाकर टीवी मीडिया कश्मीर और भारत के बीच की खाई को और चौड़ा कर रहा है. करते रहिए. याद रखिएगा, आपके द्वारा वहां की आवाजों को दरकिनार करने की हर कोशिश कश्मीर को भारत से दूर कर रही है. टीवी हमें दिवालिया बनाने की कसम खा चुका है!
राहुल कँवल वाले शो के विडियो को प्रगतिशील, समाजवादी, एंटी-बीजेपी, एंटी-आरएसएस विचार रखने वाले खूब शेयर कर रहे हैं. उसे शेयर करते हुए राहुल कँवल की खूब तारीफ कर रहे हैं. एक ने इस विडियो को शेयर करते हुए फेसबुक पर लिखा- ‘प्रो-मोदी रहने वाले आजतक एंकर ने योगी की सेना को धो डाला.’ कई वाम प्रगतिशील रुझान वाले वेब पोर्टल ने भी इस विडियो को अपने पेज पर लगाते हुए इंडिया टुडे और राहुल कँवल की तारीफ लिखी. खुद राहुल कंवल ने भी अपने फेसबुक पर इसे शेयर किया है. किसी ने भी टीवी ऐंकर के चिल्लाने वाले एटिट्यूड पर शायद ही प्रश्न किया? विडियो में एंकर उंगली दिखाकर, चिल्लाकर बात करता है. उसकी गरदन की नसें तन जातीं है. ऐसा लगता है मानो बस अब मार ही देगा.
इसे पसंद करने वाले अब रोहित सरदाना और अर्णब गोस्वामी को बिलकुल भी याद नहीं करना चाहते क्योंकि कँवल आज इनके ‘अपने’ पाले में खड़ा दिखता है. विडंबना है कि एक ऐंकर की गुंडई इन्हें पसंद आ रही है. ऐसे ही तो न्यूज़रूम की गुंडई को वैधता मिलती है. यहां मीडिया एथिक्स को कैसे दरकिनार किया जा सकता है? अगर इसी तर्ज पर चलना हो, तो बहुत संभव है कि अगले कुछ दिनों में पढ़े-लिखे तरक्कीपसंद सेकुलर मिजाज के लोग योगी आदित्यनाथ की भी सराहना करने लग जाएं. आखिर उन्हीं की सरकार ने तो सांप्रदायिक उन्माद फैलाने वाले सुदर्शन टीवी के मुखिया सुरेश चव्हाणके को पहली बार गिरफ्तार किया है! अगर आप एक घटना से राहुल कँवल को पापमुक्त कर सकते हैं तो गुणवत्ता के लिहाज से उस घटना से कई गुना ज्यादा बड़ी घटना सुरेश चव्हाणके का पकड़ा जाना है। बस सोचते जाइए और देखिए कि ‘लिबरल’ एथिक्स आपको कहां तक ले जा सकती है!
आप हिंदू युवा वाहिनी के कृत्यों की खूब आलोचना कर सकते हैं, उसे प्रतिबंधित तक करवाने की मांग कर सकते हैं, लेकिन उसके विरोध में क्या खुद उसी लहजे में ढल जाएंगे? दर्शकों को इससे अंत में क्या मिला? एक उन्माद का जवाब दूसरे उन्माद से कैसे दिया जा सकता है? जनवाद की संस्कृति को दोनों पक्षों से बराबर का खतरा है. मीडिया इन दोनों पक्षों को भुना रहा है और अपने प्रौपगेंडा में सफल हो रहा है. मीडिया कभी आपको सेना पर पत्थर फेंकता कश्मीरी दिखाएगा तो कभी हिंदू युवा वाहिनी को स्टूडियो से दुत्कार कर बाहर करता दिखेगा. यह चैनलों की खुद को दर्शक की नज़र में ऑब्जेक्टिव बनाए रखने की भी कोशिश है.
इससे दोनों पक्षों के दर्शक केटर होंगे, मालिक के प्रति वफादारी भी कायम रहेगी और एजेंडा सेटिंग जारी रहेगा. कभी वह इस पक्ष में खड़े होकर न्यूज़रूम से उन्माद को हवा देगा तो कभी दूसरे पक्ष से. जनता सुविधानुसार पाला बदलती रहेगी. नुकसान पत्रकारिता का होगा. इस पालाबदल खेल में देश का नागरिक हर वक़्त हारेगा लेकिन उसे बार-बार लगेगा कि वह जीत रहा है.
(लेखक भारतीय जनसंचार संस्थान से प्रशिक्षित युवा पत्रकार हैं)