देश के चुनिंदा ” स्वयंभू राष्ट्रवादी” पत्रकारों की लिस्ट में इंडिया टुडे के गौरव सावंत का नाम काफ़ी ऊपर है। ‘पाकिस्तान को सबक सिखाने’ और जिहादी आतंकवाद से लेकर मुस्लिम औरतों को न्याय दिलाने को लेकर उनकी तत्परता देखते ही बनती है। इन मसलों को हल करने के लिए वे देश की बाक़ी समस्याओं से आँख मूँद चुके हैं ताकि ‘ध्यान भंग’ ना हो। मुश्किल यह है कि इस मिशन में आमतौर पर वे बाइनरी (BINARY) की बीमारी के शिकार हो जाते हैं और फिर किसी नीमहक़ीम की तरह इलाज बताने लगते हैं। 31 मार्च को उन्होंने तीन तलाक़ को लेकर उनके चैनल इंडिया टुडे पर होने वाले एक कार्यक्रम के बारे में जो ट्वीट किया, वह बाक़ी दुनिया की तुलना में मुस्लिम औरतों को जाहिल साबित करने वाला था। इस पर कड़ी प्रतिक्रिया हुई। हालाँकि उनकी दलील है कि ये उनका निजी विचार नहीं, बल्कि कार्यक्रम में शामिल किसी प्रतिभागी का ‘कोट’ है, लेकिन इसमें क्या शक़ कि आप उन्हीं बातों को आगे बढ़ाते हैं जिसे बढ़ाना चाहते हैं। और फिर अगर कोई बात तथ्यों की कसौटी पर खरी नहीं उतरती तो उसे कोट करना साफ़-साफ़ बदनीयती ही है। युवा पत्रकार और न्यूज़ 18 इंडिया की ऐंकर फ़रहा ख़ान ने ‘गौरव के गर्व’ को ‘पत्रकारिता के सांप्रदायिक पर्व’ से जोड़ कर कुछ अहम सवाल उठाए हैं, जिसे आप नीचे पढ़ सकते हैं। मुख्यधारा के पत्रकारों में यह साहस कम ही दिखता है कि वे अपनी ही बिरादरी की गड़बड़ियो को नाम लेकर चिन्हित करें। इसके लिए फ़रहा की तारीफ़ की जानी चाहिए–संपादक।
इंडिया टुडे समूह के पत्रकार गौरव सावंत 31 मार्च की रात मुस्लिम औरतों पर एक ट्वीट करके बुरे फंसे. तीन तलाक़ के बहाने उन्होंने अपने ट्वीट में मुसलमान औरतों को अबला नारी बताने की कोशिश की. मगर ट्विटर यूज़र्स ख़ासकर मुस्लिम औरतों को उनकी पत्रकारिता का ये अंदाज़ फूहड़ और जहालत भरा लगा. लिहाज़ा, एक ख़बरनवीस की जमकर ख़बर ले ली गई.
सिर्फ गौरव सावंत नहीं बल्कि भारतीय मीडिया का एक बड़ा वर्ग है जो मुस्लिम समाज और इस्लाम को लगभग नहीं के बराबर जानता है. मुसलमानों के प्रति पूर्वग्रह से भरा हुआ और बीमार है. इसका नंगा प्रदर्शन टीवी, अख़बार और न्यूज़ वेबसाइट्स में हर दिन देखा जा सकता है. गौरव सावंत का ट्वीट और शो इसी बीमारू मानसिकता का एक नमूना है.
उन्होंने 31 मार्च की रात ट्वीट किया, ‘कल्पना चावला अंतरिक्ष में पहुंच गईं, किरण बेदी आईपीएस बन गईं. मगर मुस्लिम औरतें अभी भी तीन तलाक़ से लड़ रही हैं. मुस्लिम औरतों का दर्द इंडिया टुडे पर रात 10 बजे.’ इसके बाद उन्होंने इसी तरह के दो और ट्वीट किए.
गौरव सावंत के इस असंवेदनशील ट्वीट से ऐसा लगता है कि मुसलमान औरतें हमेशा-हमेशा से एक मध्ययुगीन प्रथा की शिकार रही हैं. वो हिंदू धर्म की औरतों की तरह आगे बढ़ने की बजाय आज भी तीन तलाक़ से लड़ रही हैं. मगर ट्विटर पर मौजूद मुसलमान औरतों से गौरव सावंत की क्लास ले ली. यूज़र्स ने #MuslimWomenAchievers हैशटैग चलाकर मुसलमान औरतों की तरक़्क़ी के कुछ नमूने सामने रख दिए. मुस्लिम महिला आईपीएस अफ़सर, वैज्ञानिक, जज, खिलाड़ी के नाम और फोटो गौरव सावंत को भेज दिए गए.
राणा सफ़वी ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के विमंस कॉलेज की प्रिंसिपल मुमताज़ जहां और सुप्रीम कोर्ट की पहली महिला जज फातिमा बीबी का नाम याद दिलाया. शबनम हाशमी ने आईपीएस अफ़सर नुज़हत हसन, निधि राज़दान से सानिया मिर्ज़ा, कौसर ने डीज़ल ट्रेन चलाने वाली पहली महिला ड्राइवर मुमताज़ काज़ी और एक यूज़र प्रिंस ने कश्मीरी पायलट आयशा अज़ीज़ का नाम गिनाया.
ये आर्टिकल लिखते वक़्त मुझे अमरोहा शहर के एक मोहल्ले चागौरी की ख़ुशबू की याद आ रही हैं. एएमयू से बी. टेक के बाद ख़ुशबू ने इसरो ज्वाइन किया था और 2008 में चंद्रयान-1 जैसे महत्पूर्ण अभियान की टीम का हिस्सा रही थीं. तब एक इंटरव्यू में ख़ुशबू ने कहा था कि वो भारतीय विज्ञान की प्रगति में ज़्यादा से ज़्यादा योगदान देना चाहती हैं.
मुझे अनुशेह अंसारी भी याद आ रही हैं. वो भारतीय नहीं बल्कि ईरानी मूल की अमेरिकी नागरिक और सफल कारोबारी हैं मगर उनका ज़िक्र ज़रूरी लग रहा है. अनुशेह अपने ख़र्च पर अंतरिक्ष की सैर करने वाली पहली ट्रैवलर हैं.
क्या गौरव सावंत को इन मुसलमान औरतों के बारे में नहीं पता है? क्या वो कमअक्ल हैं? या उस बीमारी के शिकार हैं जिसकी चपेट में आजकल ज़्यादा पत्रकार दिखाई दे रहे हैं. एक ट्विटर यूज़र सानिया सईद ने गौरव सावंत के लिए लिखा है कि मुसमलान औरतों की उपलब्धियां जानने के लिए भगवा चश्मा उतारने की ज़रूरत है. सावंत की पत्रकारिता के चंद नमूने देखने के बाद उनपर लगे ये आरोप सही मालूम पड़ते हैं. मगर क्या गौरव सावंत भगवा चश्मा उतारेंगे ? ऐसा लगता नहीं है.
ख़ैर, सच तो ये है कि तीन तलाक़ के नाम पर मुस्लिम समाज को अपमानित करने का एक घृणित अभियान पिछले एक साल से चल रहा है. मुसलमानों के ख़िलाफ़ दुष्प्रचार का यह अभियान आरएसएस, भाजपा और मीडिया का एक बड़ा वर्ग साथ मिलकर अंजाम दे रहे हैं और तीन तलाक़ इन वन सिटिंग की समस्या को बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रहे हैं. एक हौव्वा खड़ा किया जा रहा है कि तीन तलाक़ की वजह से मुस्लिम समाज की औरतें ज़माने के साथ आगे नहीं बढ़ पा रही हैं, मगर यह दुष्प्रचार निहायत खोखला है.
इंस्टेंट ट्रिपल तलाक़ की कितनी मुस्लिम महिलाएं शिकार हैं, इसका सही आंकड़ा उपलब्ध नहीं है. आरएसएस, भाजपा और मीडिया के अलावा इस विषय पर काम कर रहे ज़्यादातर सामाजिक संगठन और कार्यकर्ता भी हवा में तीर चला रहे हैं. ऐसा करने में सभी के अपने-अपने फायदे हैं. इस मुहिम की मंशा इंस्टेंट ट्रिपल तलाक़ की प्रथा ख़त्म करने की बजाय महज़ अपनी-अपनी दुकानें चमकाना है.
होना तो यह चाहिए कि इंस्टेंट ट्रिपल तलाक़ झेलने वाली महिलाओं की पहचान की जाए और उन्हें अदालत तक ले जाने का बंदोबस्त किया जाए जहां से उन्हें इंसाफ़ मिलने की 100 फीसदी गारंटी है. इंस्टेंट ट्रिपल तलाक़ को सुप्रीम कोर्ट 2002 में शमीम आरा के मामले में ही ग़ैर क़ानूनी क़रार दे चुका है, मगर गौरव सावंत टाइप पत्रकारों से सजा भारतीय मीडिया और एक हद तक हमारा समाज भी एक ऐसी अंधी सुरंग में घुस गया है जिसमें से बाहर निकलने का रास्ता दूर-दूर तक नज़र नहीं आ रहा.