दिल्ली स्थित यूजीसी मुख्यालय पर आज जेएनयू के शिक्षकों और छात्रों ने प्रदर्शन किया। इस दौरान पुलिस ने लाठियाँ भाँजीं जिसमें कुछ छात्रों को चोट भी आई। जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष मोहित पांडेय समेत कुछ छात्रों को पुलिस ने हिरासत में भी लिया। यह मुद्दा सीट कटौती को लेकर यूजीसी के नोटीफिकेशन का है जिससे रिसर्च की सीटों में ज़बरदस्त कटौती हुई है। यह सिर्फ़ जेएनयू का मुद्दा नहीं, उन सभी विश्वविद्यालयों का मुद्दा है जहाँ पर शोध होता है। आने वाले दिनों में यह मुद्दा राष्ट्रव्यापी छात्रांदोलन को जन्म दे सकता है। पूरे मसले को समझने के लिए पढ़िए ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन का यह पर्चा–
*यूजीसी नोटिफिकेशन, मई 2016 के जरिये शोध से छात्रों की बेदख़ली का षड्यंत्र के ख़िलाफ एकजूट हों !*
साथियों !
21 मार्च की रात जेएनयू वीसी और उनकी कंपनी ‘आधी रात को प्रकट होने वाले’ अपने चिरपरिचित अंदाज में जेएनयू प्रोस्पेक्टस के माध्यम से यह घोषणा करते हैं कि-
– यहां के एमफिल/ पीएचडी की कुल 970 सीटों को घटाकर 102 कर दिया गया है। अर्थात्, 83% की सीट कटौती।
– इतिहास, समाजशास्त्र, राजनीतिक शास्त्र, रशियन स्टडीज, हिन्दी, उर्दू, अरबी, फारसी जैसे प्रमुख केन्द्रों में एमफिल/ पीएचडी के लिए कोई सीट नहीं।
– स्कूल औफ सोशल साइंसेज (SSS) में एमफिल/ पीएचडी के लिए केवल 14 सीटें, स्कूल ऑफ़ इंटरनेशनल स्टडीज़ (SIS) में सिर्फ 11 और स्कूल ऑफ़ लैग्वेजेज़ में 32 सीटें। साइंस के सभी स्कूलों को मिलाकर एमफिल/ पीएचडी के लिए सिर्फ 29 जबकि आर्ट्स एंड एस्थेटिक्स में महज़ 16 सीटें दी गई हैं। संस्कृत सेंटर और लॉ एंड गवर्नेन्स में कोई सीट नहीं।
– एमफिल/ पीएचडी में वंचित तबके से आने वाले छात्र-छात्राओं को डिप्राइवेशन प्वाइंट नहीं दिया जाएगा।
– प्रवेश परीक्षा में वाइवा का वजन बढ़ा कर 100% कर दिया गया है।
यह देश भर के छात्रों के लिए शोध का दरवाज़ा बंद करने की एक साज़िश है। भाजपा सरकार अपने दरबारी वीसी के जरिये जेएनयू की सभी मान्यताओं और निमयों-कानूनों की धज्जियाँ उड़ाकर सीट कटौती पर उतारू है।
*एक राजनीतिक साज़िश*
1. यूजीसी नोटिफिकेशन, 2016 से पहले इस सरकार ने नॉन नेट फेलोशिप को रोकने में अपनी पूरी ताक़त लगा दी थी। लेकिन, जब हमारे ‘ऑक्यूपाई यूजीसी’ जैसे आंदोलनों ने उनके मंसूबों को पीछे धकेल दिया तो अब उन्होंने अपना पैंतरा बदल दिया है। अब वे छात्रों के दाख़िले को ही रोक देना चाहते हैं। रिसर्च में एडमिशन ही नहीं होगा तो फिर कौन सा फेलोशिप!
2. यह सरकार अपनी राजनीतिक विचारधारा से जिस प्रकार पूरे देश को मध्ययुग में धकेलना चाहती है वहाँ भला शोध का क्या काम! शोध और अनुसंधान न हों और लोग यह मानना शुरू कर दें कि हवाई जहाज का राइट बंधुओं से काफी पहले किसी द्वापर या त्रेता युग में आविष्कार हो चुका था- संघ, उसकी सरकार और ABVP जैसे उसके अन्य संगठन यही तो चाहते हैं। देश के तमाम जगहों और संस्थानों को खोदकर शंख और त्रिशुल ढूँढने की उनकी फितरत को शोध और अनुसंधान से ख़ासी दिक़्कत है। देश और यहां के लोग मध्ययुगीन और सामंती मूल्यों-साज़िशों में मरे-खपे और नीचे-नीचे ये देश की संपदा और संभावनाओं को धन्नासेठों के हाथों निलाम करते रहें, यह इनकी राजनीति के केन्द्र में है।
3. अपनी उन्मादी ‘देशभक्ति’ की आड़ में देश की संप्रभूता को ख़तरे में डालकर यह सरकार द्वारा विश्व-बाज़ार की जी-हुजूरी में बनाई गई नीति है। ग्लोबल कैपिटल यही चाहता है कि वे अपने मुनाफ़े को ध्यान में रखकर शोध करें; और हम उनके ख़रीददार और शिकार बनें। वे हमारे सपनों में सेंध मारें; और हम उनके लिए सस्ते श्रम की फौज़ में तब्दील हो जाएं।
4. यूजीसी नोटिफिकेशन, 2016 को पहले यह सरकार बनवाती है और फिर उसे लागू करवाने के लिए अपने एडिशनल सौलिसेटर जेनरल तुषार मेहता को हाईकोर्ट में भेजकर उसे जेएनयू व अन्य विश्वविद्यालयों पर ‘बाध्यकारी’ बनाती है। कोर्ट में मोदी-अमित शाह के ख़ासम-ख़ास तुषार मेहता का ‘तर्क’ और ‘निर्णय’ यह साफ़ कर दे रहा है कि मामला ‘राजनीतिक’ है। अफसोस कि इस राजनीतिक हमले का निशाना छात्रों के एक बड़े समूह को और देश में शोध-अनुसंधान की संभावनाओं को बनाया जा रहा है।
5. यह जुमलों और प्रपंचों पर टिकी हुई सरकार है। जुमला यहाँ भी है। इस नोटिफिकेशन के उपर मुलम्मा चढ़ाया गया है- शोध की गुणवत्ता बढ़ाने का। लेकिन, नतीजा है सीट-कट। ‘रेगुलेशन’ की मानें तो शिक्षक और शोधार्थियों का एक निश्चित अनुपात होना चाहिए। इसके दो रास्ते हो सकते हैं। पहला तो यह कि शिक्षकों की संख्या बढ़ायी जाए, और दूसरा रास्ता, कि शोधार्थियों की संख्या कम कर दी जाए, यानि कि शोध में नामांकन को ही रोक दिया जाए। साज़िश यह कि जेएनयू समेत सभी विश्वविद्यालयों को यह कहा जा रहा है कि शोध में नामांकन को रोक कर ही इसे लागू करना पड़ेगा। अर्थात्, अगले कई सालों तक शोध में नामांकन रूक जाएगा। जुमला देखिए कि कहा जा रहा है गुणवत्ता, और होगा सीट कट!! मजे की बात देखिये कि जेएनयू के शिक्षक तो छात्रों को पढ़ाना-शोध कराना चाहते हैं, उनकी ओर से ज़्यादा बोझ की कोई शिकायत नहीं है बल्कि वे इस सीट कटौती के ख़िलाफ लड़ाई में छात्रों का साथ दे रहे हैं। लेकिन सरकार को यह बात नहीं पच रही! और देखिये, वर्तमान शिक्षक-छात्र अनुपात से उपजी गुणवत्ता के आधार पर अभी-अभी जेएनयू को ‘बेस्ट यूनिवर्सिटी’ का दर्जा मिला है दूसरी तरफ वीसी-सरकार उसी अनुपात का बहाना बनाकर इस ‘बेस्ट यूनिवर्सिर्टी’ पर हमला साध रहे हैं। यह नियत का खोटापन नहीं तो और क्या है जहाँ शिक्षकों की नियुक्तियां बढ़ाकर उस अनुपात को पा लेना था वहाँ छात्रों को बाहर धकेल कर संभावनाओं के दरवाज़े बंद किए जा रहे हैं। इनकी ‘देशभक्ति’ का लेवल देखिए ज़रा!
*अतार्किक यूजीसी नोटिफिकेशन, 2016 के ख़तरनाक दूरगामी परिणाम*
1. आज जेएनयू में सीटों की जो संख्या है वह सीइआई अर्थात् सेंट्रल एजुकेशनल इंस्टीच्यूसंस एक्ट 2006 (93वां संविधन संशोधन) के तहत निर्धरित है। अर्थात्, 27% ओबीसी आरक्षण को लागू करने के लिए 54% की सीट बढ़ोतरी के कानून ने शैक्षणिक संस्थानों में सीटों की संख्या तय की है। क्या इसे किसी अन्य कानून के द्वारा घटाया या इसके साथ छेड़छाड़ किया जा सकता है? हैरानी की बात ये है कि इस सवाल का जवाब न तो सरकारी वकील दे रहे हैं और ना ही जज। सरकार बस अपनी राजनीतिक ताक़त का दुरूपयोग कर इसे थोपने पर आमादा है।
2. सिद्धांत के स्तर पर भी यह नोटिफिकेशन कितना अतार्किक और शिक्षा-विरोधी है, आप खुद देखिए। अगर किसी विश्वविद्यालय में पहली बार शोध की पढ़ाई शुरू होती है तथा छात्रों का नामांकन शिक्षक-शोधार्थी अनुपात के ‘फ़ॉर्मुला’ के मुताबिक होता है। लेकिन उसके आगे क्या? क्योंकि एम.फिल 2 साल और पीएच.डी 5 साल का कोर्स है, इसलिए वहां अगले 2 साल तक एम.फिल में और अगले 5 सालों तक पीएचडी में एडमिशन तो हो ही नहीं पाएगा! अर्थात् आप किस साल अपना एम.ए पूरा करते हैं, इससे तय होगा कि आप आगे की पढ़ाई जारी रख पायेंगे या नहीं! अलग-अलग साल में अपना एम.ए पूरा कर रहे छात्रों का समान अधिकार का यह खुलेआम उल्लंघन है।
3. यह भी देखिये कि नेट-जेआरएफ का नियम ये कहता है कि आपकों जेआरएफ होने के बाद अगले दो साल के अंदर शोध के लिए अपना नामांकन करवा लेना होगा, केवल तभी आप जेआरएफ की छात्रावृत्ति पाने के हक़दार होंगे। लेकिन इस नये नियम से जब सारे संस्थानों में दाख़िला ही रूक जाएगा तब मास्टर्स के बाद नेट-जेआरएफ की तरफ जाने का औचित्य भी ख़तम हो जाएगा!
4. जब किसी भी विभाग में नामांकन के लिए सीटें अनियमित और कम (टुकड़ों में) हो जाएगी तब आरक्षण लागू करना भी लगभग असंभव हो जाएगा। ऐसी स्थिति में आरक्षण से आसानी से खिलवाड़ किया जाएगा।
5. एम.ए के बाद सीट कटौती यह साफ़ कर देगी कि ‘आगे का रास्ता बंद कर दिया गया है’। एम.ए पूरा कर लेने के बाद अगर एम.फिल-पीएच.डी में नामांकन का रास्ता अनिश्चित या बंद रहेगा और नेट-जेआरएफ करने का कोई मतलब नहीं बचेगा, तो फिर एम.ए भी क्यों? इस प्रकार छात्रों को एम.ए में दाखिला लेने से भी हतोत्साहित कर दिया जाएगा। राजनीति स्पष्ट है। सरकार को उच्च शिक्षा से लैस युवा पीढ़ी नहीं बल्कि विश्व पूंजी के लिए सस्ते श्रम की फौज तैयार करना है।
6. सरकार जिस तरह से यूजीसी नोटिफिकेशन को विश्वविद्यालयों पर थोपने के फिराक में है वह सिर्फ शोध की संभावनाओं को ही नहीं ख़त्म कर रहा है, बल्कि इसके दूरगामी परिणाम भी सामने आयेंगे। एम.फिल/ पीएच.डी और नेट/जेआरएफ अगर समाप्त होता है तो प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के लिए शिक्षक कहां से आयेंगे! उनके लिए पाठ्यक्रम कौन तैयार करेगा! उनकी पुस्तकों को कौन तैयार करेगा! क्या और कैसे पढ़ाया जाना है, इसकी ट्रेनिंग कैसे होगी!
यह पूरी साज़िश ग्लोबल कैपिटल के स्वार्थ में रची जा रही है। विश्व पूंजी यह नहीं चाहती कि विकासशील देशों में शोध और अनुसंधान हो। शोध वे करें, हम उनके खरीदार बने रहें साथ में उन्हें सस्ता श्रम मुहैया करवाते रहें। देश भर में उच्च शिक्षा को समाप्त कर सरकार यूजीसी नोटिफिकेशन के सहारे उसके इसी मंसूबे को साधने में लगी हुई है।
*इस मुद्दे पर ABVP की स्थिति और छिपकली की कटी हुई पूँछ का नृत्य*
एबीवीपी सन्नाटे में है कि छात्र-विरोधी, शोध-विरोधी और इसलिए देश-विरोधी उनके राजनीतिक मंसूबों का पर्दाफाश हो गया! अलबलाहट में धीरे से ‘वीसी मुर्दाबाद’ के नारे भी लग जाते हैं और कभी कोर्ट का हवाला देकर अपनी राजनीतिक गद्दारी को ढँकने की कोशिश भी होती है। उनकी स्थिति तब हास्यास्पद हो जाती है जब *आप उनसे पूछिये कि ‘सीटकट’ को लेकर उनके ‘क़रीबी’ मि. वाइस चांसलर और सरकार की मंशा क्या है?* वे क्या कहेंगे! उनसे पूछा जाना चाहिए कि *सरकार कोर्ट में अपने एडिशनल सोलिसिटर जेनरल को भेज कर कौन सा ‘गेम’ खेल रही है। तुषार मेहता और मोदी-शाह के राजनीतिक संबंधों पर उनसे पाँच वाक्य बोलने को कहिए*। वे बचकर या सरककर निकलना चाहेंगे। उनकी राजनीति का ‘बोल बंम’ यहीं तक है।
*गुमराह करने की हर कोशिश को नाकाम करो*-
अपनी राजनीतिक मिलीभगत को छुपाने के लिए वीसी, एमएचआरडी और एवीबीपी दिल्ली हाई कोर्ट की एक सदस्यीय बैंच के फैसले के बारे में छात्र समुदाय को दिग्भ्रमित करने के लिए मिल कर काम कर रहे हैं। आइये, पहले देखते हैं कि अदालत का फैसला क्या-क्या कहता है – और क्या नहीं कहता।
दिल्ली हाई कोर्ट की एक सदस्यीय बैंच ने आदेश पारित किया है कि जेएनयू यूजीसी नोटिफिकेशन से ‘बच नहीं सकता‘। यह आदेश कई तरह से समस्याग्रस्त है। किसी भी विश्वविद्यालय या संस्थान द्वारा यूजीसी के किसी नोटिफिकेशन को लागू कराने के लिए जरूरी है कि वह ए.सी, ई.सी (AC, EC) जैसे निर्णय लेने वाले निकायों के माध्यम से उसे पारित कराये, और जेएनयू में यही नहीं किया गया।
यूजीसी के नोटिफिकेशन केन्द्रीय, राज्य, डीम्ड व अन्य प्रकार के विश्वविद्यालयों के लिए सामान्य मार्गनिर्देशक होते हैं और प्रत्येक संस्थान उन्हें अपने यहां के विशिष्ट कानूनों जिनके द्वारा वह संचालित है, के अनुरूप संगतिपूर्ण स्वरूप देता है। इसीलिए जेएनयू जैसे केन्द्रीय विश्वविद्यालय के लिए जरूरी है कि यूजीसी नोटिफिकेशन की विशिष्ट धराओं को सेण्ट्रल यूनिवर्सिटीज के तमाम कानूनों, जिसके तहत जेएनयू व अन्य केन्द्रीय विश्वविद्यालय संचालित हैं, के अनुरूप संगतिपूर्ण बनाया जाय। *उच्च न्यायालय की बैंच ने सेण्ट्रल ऐजूकेशनल इन्स्टीट्यशन्स एक्ट 2006 के तहत जेएनयू जैसे केन्द्रीय विश्वविद्यालय के लिए सीटों की संख्या तय करने के प्रावधन और यूजीसी नोटिपिफकेशन के आधार पर सीटें घटाने के फार्मूले के बीच मौजूद असंगति पर न तो विचार किया और न ही कोई जबाव दिया।*
कुल मिला कर, सरकार और जेएनयू वीसी का यह दावा बिल्कुल गलत है कि अदालत का आदेश ही अंतिम सत्य है और इसे आगे चुनौती देना सम्भव नहीं है, और कि यूजीसी नोटिफिकेशन की गलत/असंगत धराओं को एमएचआरडी और यूजीसी द्वारा अपने स्तर पर सुधारा नहीं जा सकता। एमएचआरडी या यूजीसी, और जेएनयू द्वारा यह कहना कि अदालती आदेश से उनके हाथ बंध गये हैं बिल्कुल झूठ है।
यह स्पष्ट है कि- अदालत ने छात्र-शिक्षक अनुपात पर लाये गये यूजीसी नोटिफिकेशन की वैधता या जरूरत के बारे में कोई टिप्पणी नहीं की है। विश्वविद्यालयों में शोध के वातावरण को नष्ट करने का काम श्री जावडेकर के मंत्रालय और यूजीसी के द्वारा स्वेच्छा से किया गया है। अदालत ने इस तरह के नोटिफिकेशन जारी करने के लिए कोई आदेश न एमएचआरडी को और न ही यूजीसी को कभी दिया । इसीलिए यह स्पष्ट है कि यूजीसी अथवा सरकार के हाथ अदालत ने किसी भी रूप में बांध कर नहीं रखे हैं! इस यूजीसी नोटिफिकेशन को उलट कर देश के विश्वद्यिालयों में शोध के माहौल को बरबाद होने से बचाने के लिए श्री जावडेकर और उनके अधीन आने वाली यूजीसी के हाथ पूरी तरह से आजाद हैं।
*यूजीसी गजट नोटिफिकेशन को वापस लेने या बदले जाने का एक ताजा तरीन उदाहरण मौजूद है। इसी यूजीसी ने 4 मई 2016 को लाये गये ऐसे ही एक गजट नोटिफिकेशन को वापस लिया था – जो अध्यापकों के वर्कलोड के बारे में था और इससे अकेले डीयू में 4000 से ज्यादा एडहौक अध्यापकों की नौकरी जाने वाली थी। जब हजारों अध्यापक सड़कों पर उतर आये तो भाजपा सरकार ने डूटा की राजनीति में भाजपा के नुकसान होने के डर से उस नोटिफिकेशन को वापस ले लिया और कई धाराओं में संशोधन किया। तब वे हजारों युवा छात्रों का भविष्य बरबाद करने वाले 5 मई 2016 के यूजीसी नोटिफिकेशन को वापस क्यों नहीं ले सकते?*
*यह मायूस होने का नहीं, लड़ाई को विस्तार देने का समय है*
साथियों !
शोध में दाख़िले के दरवाज़े सबके लिए खुले हों, यह इस देश के छात्रों का अधिकार है। अगर कानूनी जामे में आकर कोई राजनीतिक मंशा हमसे यह अधिकार छिनना चाहे तो हमें प्रतिरोध की आवाज़ बुलंद कर देनी होगी। जेएनयू छात्र समुदाय ऐसी राजनीतिक हमलों का जवाब देना जानता है। वह आंदोलन जानता है। ‘लड़ो पढ़ाई करने को, पढ़ों समाज बदलने को’ का नारा इस कैंपस का मूल्य रहा है। पढ़ने के लिए लड़ना होगा, शोध करने के लिए भी लड़ना होगा। एकजूट और तैयार रहना होगा। लड़ाई सीधी है। संभव है लंबी चले, लेकिन कई मोर्चों पर चलेगी। *इस कैंपस की विरासत उन तमाम छात्रों के साथ खड़ी है जो अभी मास्टर्स के दूसरे साल में हैं और एमफिल में दाख़िला लेना चाहते हैं। हम सब इस संघर्ष में साथ हैं।*
शिक्षकों की भर्ती करने के बजाय छात्रों का निष्कासन किए जाने की इस कोशिश का सामाजिक, शैक्षणिक और दूरगामी परिणाम के मद्देनज़र हमें सरकार की राजनीतिक साज़िश को चुनौती देनी ही होगी। हमारी लीगल लड़ाई जारी रहेगी। सरकार अगर ऐसी कानून बनवाती है तो वह उसे हटा या बदलवा भी सकती है। यूजीसी का कोई कानून स्वयं यूजीसी या एमएचआरडी पर तो बाध्य नहीं है न! यह साफ़ दिख रहा है कि ‘लीगल फ्रंट’ की हमारी लड़ाई का रास्ता राजनीतिक और वैचारिक संघर्ष से होकर जा रहा है।
हम हर स्तर पर इस साज़िश का विरोध और पर्दाफाश करें। *ज़रूरत है कि कैंपसों में ‘ज्ञान-शील-एकता’ का अदृश्य लबादा ओढ़कर छात्रों और इस देश के भविष्य के साथ गद्दारी रचने वालों से सवाल किए जाए।* जुमला-जुमला खेलने वाले उसके आकाओं और सरकार के ख़िलाफ राजनीतिक और वैचारिक संघर्ष तेज़ किए जाने की ज़रूरत है। सोशल मीडिया से लेकर सड़कों पर और संसद से लेकर अदालत तक हम इन्हें अलग-थलग और मजबूर कर दें।
*हम इस ‘नोटिफिकेशन’ के ख़िलाफ देश भर के विश्वविद्यालयों, छात्रासंघ, शिक्षकों और प्रगतिशील नागरिकों की साझी मुहिम और एकता के लिए प्रतिबद्ध हैं। आइये देश और हमारा भविष्य, उच्च शिक्षा और शोध के भविष्य को बचाने के लिए इस संघर्ष में एकजूट होकर आगे बढ़ें।*
#AISA