‘इंडिया टुडे’ का ताज़ा अंक राष्ट्रवाद को लेकर जारी बहस पर केंद्रित है। लेकिन अंग्रेज़ी और हिंदी संस्करण के कवर पेज पर छपे चित्रों में ऐसा फ़र्क़ है जो बहुत कुछ कहता है। अंग्रेज़ी इंडिया टुडे के कवर पर जो चेहरा है उसके मुंह पर तिरंगे धागों की पट्टी है। यह तस्वीर राष्ट्रवाद के नाम पर जारी फ़ासीवादी अभियान को सटीक ढंग से पेश करती है।
लेकिन ज़रा हिंदी इंडिया डुटे का कवर देखिये। चेहरे पर तिरंगा पोते व्यक्ति को देखकर अंदाज़ा नहीं लगता कि इसका रिश्ता अपने वक़्त से भी है। यह क्रिकेट मैच के दौरान किसी उत्साही हिंदुस्तानी की तस्वीर भी हो सकती है। इस तिरंगी तस्वीर में सौहार्द टपक रहा है, गोकि हिंदी संस्करण में भी बहस राष्ट्रवाद को लेकर ही है।
क्या एक ही पत्रिका के अंग्रेज़ी और हिंदी संस्करणों की तस्वीर में यह फ़र्क़ महज़ संयोग है। यह मुमकिन नहीं। मुँह पर तिरंगी पट्टी बँधी तस्वीर देखकर कौन पत्रकार किसी दूसरी तस्वीर को छापेगा। ज़ाहिर है, यह सुचिंतित फ़ैसला है। इंडिया टुडे निकालने वाले शायद मानते होंगे कि अंग्रेज़ी संस्करण में तर्क और विवेक पर ज़ोर देना ज़रूरी है, लेकिन हिंदी पट्टी पूरी तरह अंधराष्ट्रवाद के हवाले है और मुँह पर पट्टी बँधी तस्वीर उसके पाठकों को भड़का सकती है।
सवाल यह है कि हिंदी समाज के बारे में यह राय इंडिया टुडे के मालिक अरुण पुरी की है या इसके पीछे संपादक अंशुमान तिवारी का दिमाग़ है। सुना है कि इंडिया टुडे का संपादक बनने से पहले अंशुमान तिवारी लंबे समय तक दैनिक जागरण में काम कर चुके हैं।