रुक्मिणी सेन
मेरे यौन उत्पीड़न के केस में एक साल तक इंडिया टुडे के अरुण पुरी ने कुछ नहीं किया। यह बात 2012-13 की है।
इंडिया टुडे को पूरा एक साल लग गया एक ‘बेईमान’ कमेटी बनाने में जिसमें अंत तक अनिवार्य प्रावधान के मुताबिक कोई बाहरी सदस्य शामिल नहीं किया। यह ऐसा सदस्य होना था जो वकालत के क्षेत्र में या तो मशहूर हो या फिर महिला आंदोलन से हो।
जब तक उन्होंने बाकायदा एक यौन उत्पीड़न कमेटी गठित नहीं की, मैं अपना केस उनके सामने रखने से इनकार करती रही। मैंने इस बात पर ज़ोर दिया था कि मुझे कायदे से यौन उत्पीड़न कमेटी के सामने पेश किया जाए और मेरे कार्यस्थल की यह जिम्मेदारी बनती है।
डेढ़ साल तक उक्त कमेटी में निष्पक्ष बाहरी सदस्य नहीं रखा गया और मैं अपना केस उनके सामने रखने से इनकार करती रही। इसके बाद कमेटी ने मुझे मेल भेजा कि उन्होंने यह फैसला किया है कि सुप्रिय प्रसाद (मेरे पुरुष बॉस) निर्दोष हैं क्योंकि मैं उन्हें पहले से जानती थी- अब इसका चाहे जो भी मतलब रहा हो।
मैंने फैन्टम फिल्म्स के केस में पीडि़त का बयान पढ़ा है। तरुण तेजपाल के केस को भी करीबी से देखा-समझा है। मुझे समझ में आया कि मात्र एक शिकायत और सार्वजनिक विरोध के चलते कैसे मेरा पेशेवर जीवन और निजी जीवन प्रभावित हुआ (अगर मैं ऐसा न करती तो इंडिया टुडे ने मामले का संज्ञान ही नहीं लिया होता)।
मेरे एक पुराने बॉस और संरक्षक बड़े उदार निकले। मैंने उनसे 2013 में एक नौकरी मांगी थी। उन्होंने मुझे नौकरी दी। ऐसे हज़ारों दोस्तों के चलते ही मैं बीते चार साल से बेरोज़गारी से बची रही हूं।
मैं इसलिए भी काम पाती रही क्योंकि बेशर्मी से मैं काम मांग लेती हूं। जैसे कोई इंटर्नशिप के लिए बेचैन रहता है, मैं उसी तरह काम मांग लेती हूं। मेहनत करने में मुझे कभी कोई शर्म नहीं लगी। मैं मजदूर हूं और मुझे काम चाहिए। और अब तो पेशेवर जीवन को 23 साल होने को आ रहे हैं। मैंने अपने कामकाजी जीवन की रणनीति नए सिरे से तय की है। मैंने खुद को निरंतर शिक्षित और प्रशिक्षित किया है। सुबह मैं एक ही संकल्प लेकर उठती हूं जो बहुत सहज है- कम के लिए मैं लखनऊ से निकली तो मेरी उम्र 21 साल थी। अगर उस वक्त मैं बची रह गई तो आज भी बची रहूंगी। और मेरा कोई भी पुराना फकिंग बॉस मुझे ऐसा करने से नहीं रोक सकता।
मुझे अपनी सुविधाओं और मध्यवर्गीय पृष्ठभूमि का अहसास है। मेरी मां प्रोफेसर रहीं। पिता दृढ़ व्यक्तित्व के धनी रहे। छोटा भाई नारीवादी है। और ढेरों चचेरे ममेरे मौसेरे भाई-बहन व दोस्त हैं ही जो मेरे शुभचिंतक हैं।
इसके बावजूद मैं जिस काम को 18 साल तक प्यार करती रही वहां से दरकिनार किए जाने का अकेलापन मुझे बहुत चुनौतीपूर्ण जान पड़ता है। कभी कभार मुझे ऐसा भी लगता है कि क्या मुझे चुपचाप निकल लेना चाहिए था। मेरे पुराने सहयोगी जब मुझे बताते हैं कि कैसे मेरे कुछ पसंदीदा बॉस, संरक्षक और मित्र मेरे अपराधी के साथ मधुर रिश्ते रखते हैं, उसे खाने पर बाहर ले जाते हैं, तो मैं नर्क की आग में जलने लगती हूं। मुझे बहुत गुस्सा आना चाहिए ऐसी बातों पर, लेकिन मैं थोड़ा भ्रमित महसूस करती हूं। क्या यह मेरे भीतर पैठा स्त्री-द्वेष है? या फिर यह कोई हीन भावना है? मुझे समझ नहीं आता।
मैं सुप्रिय प्रसाद को अदालत में घसीट सकती थी लेकिन मैंने अपनी लड़ाई बड़ी सावधानी से लड़ी। मेरे पिता को 2012 में ब्रेन हैमरेज हुआ। उससे पहले भी उन्हें कई बार दौरा पड़ा था। 2013 से 2016 के बीच जब तक वे जिंदा रहे उन्हें हर महीने खून चढ़ाने के लिए अस्पताल जाना होता था क्योंकि उन्हें आंतरिक रक्तस्राव की दिक्कत थी। मैंने अपनी आत्मप्रतिष्ठा के ऊपर अपने पिता की सेहत को तरजीह दी। जिंदगी इस समाज की गढ़न नहीं है।
(तस्वीर सुप्रिय प्रसाद की जो सबसे तेज़ चैनल आज तक के डायरेक्टर न्यूज़ और ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष हैं। )
मैं हालांकि यह भी जानती हूं कि केवल मेरे केस के चलते आज इंडिया टुडे के भीतर एक यौन उत्पीड़न कमेटी मौजूद है। मैं यह भी जानती हूं कि मेरी शिकायत अब भी अपनी जगह कायम है। उसका निराकरण नहीं हुआ।
मैं पक्के विश्वास से कह सकती हूं कि सुप्रिय प्रसाद जब भी किसी औरत पर हाथ डालने की कोशिश करता होगा, उसे चूमना चाहता होगा या फिर अपनी स्त्रीविरोधी टिप्पणी से उसे शर्मिंदा करना चाहता होगा, वह भीतर से एक बार को परेशान हो जाता होगा। हर एक शिकायत निषेध का काम करती है।
कल को अगर कोई महिला फिर से सुप्रिय प्रसाद के हाथों प्रताडि़त होती है और वह शिकायत करना चाहे, तो वादा है कि सबसे पहले मैं उसके साथ खड़ी रहूंगी। वास्तव में मैं कभी अपने मोर्चे से पीछे नहीं हटी। मुझे इस व्यवस्था ने नाकाम किया है।
मुझे यह बताने में खुशी होगी कि अरुण पुरी और कली पुरी कैसे अपनी महिला कर्मचारियों के साथ बरताव करते हैं। हर साल इंडिया टुडे कॉनक्लेव आयोजित करना और अपनी महिला कर्मचारियों की आत्मप्रतिष्ठा की ओर से गाफि़ल रहना एक साथ कोई मायने नहीं रखता।
मैं यह नहीं कहूंगी कि सुप्रिय प्रसाद ने मुझे छुआ, चूमा या बांहों में कसा था। ऐसा वाकई नहीं हुआ था। मेरा मौखिक यौन उत्पीड़न हुआ था और यह बहुत बुरा था। यह बलात्कार की संस्कृति का ही अंग है। कार्यस्थल पर यौनिक लतीफ़े, यौनिक अपमान, यौनिक आवेग, यौनिकता के आधार पर दरकिनार किया जाना- ये सब अस्वीकार्य है। यह सब यौन प्रताड़ना है। इसने मेरा नुकसान किया है। यह मेरे जैसी हज़ारों महिलाओं का नुकसान कर रहा है।
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रुक्मिणी सेन ज़ी न्यूज़, स्टार न्यूज़ और आजतक में लंबे समय तक सेवाएं देने के बाद संप्रति स्वतंत्र फिल्म निर्माण के क्षेत्र में सक्रिय। स्त्री-प्रश्न पर इस दौर की मुखर आवाज़। मीडिया विजिल सलाहाकर मंडल की सम्मानित सदस्य भी हैं।