पानी की कॉरपोरेट लूट पर पाकिस्‍तान में न्‍यायिक हलचल

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बीते सप्ताहांत पाकिस्तान के सर्वोच्च न्यायालय ने बोतलबंद पानी से जुड़े अहम मसलों का स्वत: संज्ञान लेते हुए सभी कंपनियों के प्रमुखों को तलब किया है. प्रधान न्यायाधीश मियां साकिब निसार की अध्यक्षतावाली दो सदस्यीय खंडपीठ ने सरकार को भी रिपोर्ट देने को कहा है. इस मामले में जल संसाधनों का अत्यधिक दोहन, पानी में खनिज की मात्रा और भारी मुनाफा जैसे मुद्दे हैं. पाकिस्तान की संघीय सरकार की ओर से पेश वकील ने अदालत को जानकारी दी है कि कंपनियां सरकार को प्रति लीटर 25 पैसे का भुगतान करती हैं, जबकि बाजार में एक लीटर पानी की कीमत 50 रुपये है.

प्रधान न्यायाधीश ने स्पष्ट कहा है कि इस प्राकृतिक संसाधन की लूट को जारी नहीं रहने दिया जाएगा. जिन कंपनियों को नोटिस दिया गया है, उनमें नेस्ले, कोका कोला, पेप्सी, गुरमे जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी शामिल हैं. इस प्रकरण के संदर्भ में बोतलबंद पानी के बाजार और दोहन की भारत समेत वैश्विक स्थिति पर नजर डालना प्रासंगिक है क्योंकि पाकिस्तान जैसी ही हालत पूरी दुनिया में है.
मिनरल वाटर का वैश्विक बाजार और अधिकारों पर बहस
साल 2005 में नेस्ले के तत्कालीन सीईओ और मौजूदा चेयरमैन एमेरिटस पीटर ब्राबेक लेटमाथे ने एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘वी फीड द वर्ल्ड’ में साक्षात्कार देते हुए कहा था कि पानी को मानवाधिकार मानने का विचार एक अतिवाद है और किसी भी खाद्य पदार्थ की तरह इसका भी बाजार मूल्य होना चाहिए. इस बड़े कॉरपोरेट का यह बयान संयुक्त राष्ट्र अन्य सामाजिक संगठनों की राय से उलटा था. पानी से जुड़े अधिकारों की वकालत करनेवाली स्वयंसेवी संस्था डिगडीप के संस्थापक जॉर्ज मैक्ग्रा ने उस समय प्रतिक्रिया देते हुए कहा था कि लोग ब्राबेक के अमानवीय बयान से उचित ही चकित हैं और ऐसा लगता है कि यह बड़ा कॉरपोरेट समूह करीब 80 करोड़ लोगों के खिलाफ खड़ा है जो जिंदा रहने भर के लिए थोड़े पानी के लिए भी परेशान रहते हैं. उन्होंने यह भी कहा था कि यह बयान ऐसे समय में आया है, जब नेस्ले पर अनेक गरीब समुदायों को पानी से वंचित करने के आरोप लग रहे हैं और कंपनी उनका खंडन कर रही है.
इस चर्चा के एक दशक बाद यानी 2015 में बोतलबंद पानी का दुनियाभर में कारोबार 185 बिलियन डॉलर पहुंच गया था. जुलाई, 2018 में बाजार पर नजर रखनेवाली एक संस्था रिसर्च एंड मार्केट की रिपोर्ट में बताया गया है कि 2023 तक यह आंकड़ा 334 बिलियन डॉलर तक पहुंच सकता है. इसमें सबसे अधिक कमाई और कुल उपभोग एशिया-प्रशांत में है, जो कि 33 फीसदी है. यूरोप का हिस्सा 28 फीसदी है. शेष खपत अन्य इलाकों में होती है. उत्तरी अमेरिका यानी संयुक्त राज्य अमेरिका और कनाडा में बाजार अपने चरम पर है तथा एशिया में बोतलबंद पानी की तेजी से बढ़ती मांग की अगुवाई चीन और भारत कर रहे हैं. इस साल मार्च में जारी शोध संस्था मिंटेल की रिपोर्ट को मानें, तो भारत में 2016 और 2017 के बीच इस कारोबार में 19 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है, जो किसी भी अन्य बाजार से अधिक है. यूरोमॉनीटर का आकलन बताता है कि 2012 से 2017 के बीच देश में 1.38 बिलियन डॉलर का बोतलबंद पानी बेचा गया. इस अध्ययन का कहना है कि खपत में वृद्धि की यह दर 184 फीसदी है. फिलहाल यूरोमॉनिटर का कहना है कि सालाना 20 फीसदी से ज्यादा की बढ़त होती रहेगी.
एक दिलचस्प तथ्य यह है कि चूंकि पानी का धंधा बड़ा चोखा है जिसमें मामूली निवेश से बड़ा मुनाफा कमाया जा सकता है, तो 60 फीसदी से ज्यादा का वैश्विक कारोबार क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर की कंपनियों का है, बहुराष्ट्रीय कंपनियां बाकी में हिस्सेदार हैं. इस संदर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि प्लास्टिक बोतलों के निर्माण में भारी तेजी के कारण भी पानी के कारोबार को बढ़ने में बड़ी मदद मिल रही है. कुछ और संबद्ध पहलू- प्लास्टिक से पर्यावरण को नुकसान, कानूनी कोशिशें, बोतलबंद पानी में प्लास्टिक के कण होना आदि- भी बेहद अहम हैं. पर, इन पर चर्चा फिर कभी.
भारत में बोतलबंद पानी
बीते अगस्त में जल संसाधन की संसदीय समिति ने एक रिपोर्ट में बताया है कि देश के पांच राज्यों- आंध्र प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश- में भूजल के स्तर में गिरावट और उनके दोहन की समस्या के बावजूद बोतलबंद पानी के 7,426 संयंत्रों के लाइसेंस निर्गत किये गये हैं. इनमें सबसे ज्यादा लाइसेंस तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश में जारी हुए हैं. नियम यह है कि उन क्षेत्रों में ऐसे लाइसेंस नहीं दिये जा सकते हैं, जहां भूजल का स्तर बहुत नीचे हो.
अफसोस की बात यह भी है कि सरकारी या संसदीय रिपोर्टों को हमारे मीडिया में लंबे समय से कोई तरजीह नहीं दी जाती है और न ही इन पर कोई राजनीतिक चर्चा होती है. डाउन टू अर्थ पत्रिका ने इस पर रिपोर्ट बनायी थी. इस पत्रिका को प्रकाशित करनेवाली संस्था सेंटर फॉर साइंस एंड इंवायरन्मेंट की एक हालिया रिपोर्ट में बताया गया है कि तमिलनाडु में जितना भूजल रिचार्ज किया जाता है, उससे 77 फीसदी ज्यादा निकाल लिया जाता है. उत्तर प्रदेश के लिए यह आंकड़ा 74 फीसदी है. देश के ज्यादातर राज्यों में भी कमोबेश यही हिसाब है.
ये तो रही बोतलबंद पानी की बात, जिसमें जमीनी पानी का दोहन भी बेतहाशा हो रहा है, नियमों को ठेंगे पर रखकर लाइसेंस दिये जा रहे हैं, जो बोतलबंद पानी खरीद रहे हैं-उसमें भी प्लास्टिक के खतरनाक कण हैं, प्लास्टिक पर्यावरण को तबाह कर रहा है और आम लोगों के हिस्से का पानी बेचकर कंपनियां भयानक मुनाफा बना रही हैं. इसमें अगर हम सामान्य पानी की आपूर्ति, उसकी गुणवत्ता और उपलब्धता को संज्ञान में लें, तो स्थिति की गंभीरता का अहसास हो जायेगा. इसमें जल एवं अन्य प्रदूषणों को जोड़ें तथा सरकार और उसकी एजेंसियों की हरकतों को भी जोड़ें, समझ में आ जायेगा कि आम नागरिक को पानी भी आज एक अहसान है.