(“फख्र है: गू उठाने वाला ये इंडियन बंदा मैग्सेसे जीत लाया”—यह हेडलाइन है टीवी टुडे की वेबसाइट ‘लल्लनटॉप’ की। 27 जुलाई को छपी इस हेडलाइन से जुड़ी ख़बर में हाल ही में मैग्सैसे से सम्मानित बेजवाड़ा विल्सन के संघर्ष और उपलब्धियों को बताया गया है। ग़ौरतलब है कि जिसे गू उठाने वाला बताया गया है, उसने कभी यह काम नहीं किया, उलटे इसके ख़िलाफ़ अभियान चलाया। लल्लनटॉप ख़ुद को नौजवानों के अंदाज और भाषा के साथ नत्थी करती है, लेकिन इस हेडलाइन ने बताया है कि युवा सिर्फ युवा नहीं होता, उसकी भाषा और अंदाज़ में उसकी जाति और वर्ग का नेपथ्य भी झलकता है। सामाजिक प्रश्नों पर मुखर वेबसाइट नेशनल दस्तक का आरोप है कि यह हेडलाइन आपत्तिजनक है और इंडिया टुडे ग्रुप में पसरे जातिवादी सोच की शिनाख़्त कराती है। 31 जुलाई यानी आज हिंदी के महान लेखक प्रेमचंद की जयंती है जिन्होंने अपनी रचनाओं में इस तरह के पाखंड को जमकर उजागर किया था। उन्हें श्रद्धांजलि बतौर हम नीचे 28 जुलाई को नेशनल दस्तक में छपे इस प्रतिवाद को आभार सहित छाप रहे हैं। इस बहाने अगर मीडिया के स्वरूप और संरचना के पीछे की सामाजिक बुनावट को लेकर कोई सार्थक बहस चल सके तो ख़ुशी होगी–संपादक)
दलित को मैग्सेसे क्या मिला, इंडिया टुडे ग्रुप के संपादक ने जातिवाद ‘हग’ दिया
नई दिल्ली। मीडिया में किस कदर जातिवाद का जहर भरा है इसका नमूना देखिए। ये तस्वीर है इंडिया टुडे ग्रुप की बेवसाइट्स द लल्लनटॉप की। जिसमें दलित मैग्सेसे विनर बेजवाड़ा विल्सन को गू ढोने वाला बताया गया है। सोचिए बेजवाड़ा विल्सन जो साल 1986 से मैला ढोने के खिलाफ अभियान चला रहे हैं। बेजवाड़ा विल्सन ने अपने जीवन में यह काम नहीं किया है। पढ़ाई के दौरान उन्होंने ठान लिया था कि यह काम वो कभी नहीं करेंगे। विकीपीडिया पर ये जानकारी है कि यह काम करने की जगह वह सुसाइड करना पसंद करते। यह सार्वजनिक जानकारी में भी है। जाहिर है इंडिया टुडे ग्रुप के पत्रकारों को भी ये मामूली सी बात मालूम होगी।
बेजवाड़ा विल्सन ने नेशनल दस्तक को दिए एक्सक्लूसिव इंटरव्यू में बताया कि इस अमानवीय काम को खत्म करना उनकी जिंदगी का लक्ष्य है। उनके काम को पूरी दुनिया ने सराहा है। उसी काम की वजह से उन्हें मैग्सेसे मिला है। लेकिन उसी खबर को लगाने में उन्हें गू ढोने वाला लिखा गया है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या द लल्लनटॉप के संपादक सौरव द्विवेदी, इंडिया टुडे ग्रुप के मालिक अरुण पुरी अपने घर में गू बोलते होंगे। हगना कहते होंगे। अगर नहीं तो फिर ऐसी भाषा किसी दूसरे के लिए कैसे लिखी जा सकती है।
क्या न्यूज रूम में गू, हगना बोलते हैं पत्रकार ?
द लल्लन टॉप के संपादक सौरव द्विवेदी हैं। वो खुद को प्रोग्रेसिव साबित करने का एक भी मौका नहीं गंवाते। ऐसे में सवाल उठता है कि जो शब्द लिखे गए हैं क्या वो शब्द न्यूज रूम में बोल पाएंगे। क्या वो किसी के लिए कह पाएंगे कि हगने क्यों जा रहे हो। क्या शब्दों का लिहाज जरूरी नहीं है। क्या वह कहेंगे कि मैं गू करके घर से आया हूं। क्या संपादक सौरव द्विवेदी अपने घर में महिला तो छोड़िए अपने पिता, भाई या फिर किसी सदस्य के सामने कहते होंगे कि गू है। मैं हगने जा रहा हूं। अगर नहीं तो फिर एक दलित मैग्सेसे विनर के लिए गू उठाने वाला क्यों लिखा गया। जबकि मैग्सेसे विनर बेजवाड़ा विल्सन हाथ से मैला ढोने के खिलाफ अभियान चला रहे हैं। उसी काम की वजह से उन्हें मैग्सेसे अवार्ड दिया गया। लेकिन सवाल यहीं खत्म नहीं होता।
विल्सन का अपमान देश का अपमान है !
27 जुलाई को दो भारतीय, बेजवाड़ा विल्सन और टीएम कृष्णा को मैग्सेसे अवॉर्ड मिला। भारतीयों के लिए यह फख्र की बात है। हर मीडिया संस्थान ने इस खबर को प्रमुखता से दिखाया। लेकिन प्रतिष्ठित “टीवी टुडे ग्रुप” के वेब पोर्टल The Lallantop ने जिस तरह से इस खबर को लिखा वह सम्मान नहीं अपमान है। उससे जातिवाद की गंध आती है। जातीय सड़ांध किस कदर दिमाग में भरा है उसका नमूना है बेजवाड़ा विल्सन पर लिखा गया ये लेख।
खबर का हेडर दिया “फख्र है: गू उठाने वाला ये इंडियन बंदा मैग्सेसे जीत लाया”। नेशनल दस्तक का सवाल The Lallantop के संपादक सौरव द्विवेदी से, टीवी टुडे ग्रुप के मालिक अरुण पुरी से है। क्या वे ‘गू’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल अपने घरों में, बोलचाल में, दफ्तर में, दोस्तों में और so called एलीट लोगों के साथ करते हैं ?
“गू उठाने वाला बंदा मैग्सेसे जीत लाया”। इन शब्दों का इस्तेमाल एक ऐसे शख्स के लिए करना जिसने देश में सदियों से चली आ रही गंदी प्रथा के खिलाफ पूरी जिंदगी लड़ाई लड़ते बिता दी, The Lallantop की यही पहचान है ? मनुवादी विचारधारा की पैदाइश है ? जातिवादी सुप्रीमेसी का दंभ है ? साथ ही अपमान है उस समाज का जिस समाज से मैग्सेसे अवॉर्ड विजेता बेजवाड़ा विल्सन आते हैं। गाली है उस समाज के लिए जिनसे जात की वजह से अमानवीय काम करने के लिए मजबूर किया जाता रहा है।
पूरी खबर को पढ़ते हुए जब आगे बढ़ते हैं तो अचानक से सब हेडर दिखता है “जन्म के बाद पता चला कि जिंदगी भर दूसरों की टट्टी फेंकनी है, पर इरादे थे कुछ और”। यहां पर एक व्यक्तिगत सवाल समाज के उन सभी लोगों से है जो लैट्रिन तक बोलना पसंद नहीं करते हैं। बात-बात पर shit बोलते हैं, bullshit बोलते हैं। शौचालय जाना नहीं बोलते हैं, loo बोलते हैं, pee बोलते हैं। जो झींकते नहीं sneeze करते हैं। अरे साहब बहुत कुछ कहते हैं करते हैं जो आप जानते हैं। कड़वा सच ये भी है कि यही लोग बात-बात पर मां-बहन की गालियां देते हैं, वो भी कमजोर चाहे जातिगत हो या आर्थिक रूप से। जितनी गंदी गालियां ये देते हैं उतना गंदा टट्टी, गू भी नहीं होता है।
क्या इंडिया टुडे ग्रुप इस जातिवादी हेडर के लिए विल्सन से माफी मांगेगा ?
क्या इंडिया टुडे ग्रुप अपने इस संपादक की जातिवादी सोच के लिए माफी मांगेगा ?
क्या इंडिया टुडे अपने संपादक को जातिवाद करने से रोकेगा ?