प्रशांत टंडन
तीन दिन से अखबारों के पहले सफे कुलभूषण जाधव की खबरों से रंगे हुये हैं. टीवी देखता नहीं पर अंदाज़ लगा सकता हूँ कि वहॉ इस मुद्दे पर लगातर छह खिड़कियों वाला सर्कस चल ही रहा होगा. ऐसी खबरो पर टीवी, अखबार और डिजिटल न्यूज़ के संपादको को आपस में बात करनी चाहिये कि खबरों का अनुपात क्या रखा जाये. टीवी न्यूज़ के बारे में जानता हूँ कि ऐसा सफलतापूर्वक किया जा सका है और एक दो नहीं कई बार. अब क्यों नही होता इसका जवाब उनके पास होगा जो अब हैं.
2010 में जब अयोध्या पर इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला आया तो ब्रॉडकास्ट एडिटर्स असोसियशन ने फैसला किया कि कवरेज सिर्फ कानूनी पहलू पर होगी और ब्रेकिंग न्यूज़ में सिर्फ उन्हीं को फोन या लाइव में लिया जायेगा जो मुकदमें के पक्षधर हों और भड़काऊ बयान देने वालो को दूर रखा जाये.
सौ फीसद तो नही पर फैसले के दिन ज्यादातर न्यूज़ चैनलों ने संयम बरता था- जिसका नतीजा उस वक़्त महसूस भी किया गया. भड़काऊ बयान नहीं आये तो शांति भी बनी रही.
मुम्बई हमले के कुछ सप्ताह बाद पीस मिशन के तहत पाकिस्तान से कुछ पत्रकार दिल्ली आये थे. उस दौरे पर आईं वहॉ की मशहूर ऐंकर अस्मा शिराजी ने मुझे बताया था कि भारत के खिलाफ भड़काऊ कार्यक्रमों को वहॉ उम्मीद से कहीं ज्यादा टीआरपी मिली तो उनके संपादक डर गये और फौरन कार्यक्रमों की तल्खी कम की गई.
ऐसा हमें भी करना चहिये- पहले कर भी चुके हैं.
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। यह टिप्पणी उनकी फेसबुक दीवार से साभार