नेपाल में नया संविधान बनने के बाद वहाँ की प्रतिनिधि सभा और प्रदेश सभा के लिए हुए पहले चुनाव में प्रत्यक्ष चुनाव (फर्स्ट पास्ट दि पोस्ट) के तहत आने वाली लगभग सभी सीटों के नतीजे आ गए हैं और इनमें कम्युनिस्टों ने अभूतपूर्व प्रदर्शन किया है. 275 सीटों वाली प्रतिनिधि सभा में 165 सीटें प्रत्यक्ष चुनाव (फर्स्ट पास्ट दि पोस्ट) के जरिये तथा 110 सीटें समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली से तय होनी हैं.165 सीटों के लिए हुए प्रत्यक्ष चुनाव में नेकपा (एमाले) और नेकपा (माओइस्ट सेण्टर) यानी माओवादियों को अब तक 116 सीटें हासिल हो चुकी हैं. अभी कुछ सीटों की मतगणना बाकी है. एमाले को 80 और माओवादियों की 36 सीटों पर कामयाबी मिली हैं. दोनों ने क्रमश: 103 और 60 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किये थे. देश की सबसे पुरानी और भारत समर्थक समझी जाने वाली नेपाली कांग्रेस के सबसे ज्यादा 153 उम्मीदवार मैदान में थे लेकिन उसे महज 22 सीटों पर ही कामयाबी मिली. नेपाली कांग्रेस की इतनी बुरी हालत पहले कभी नहीं हुई थी. राजतंत्र और हिन्दू राष्ट्र समर्थक पार्टियों को जनता ने पूरी तरह नकार दिया है. राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी को केवल एक सीट मिली है जबकि हिन्दू राष्ट्र और राजतंत्र के प्रबल समर्थक कमल थापा चुनाव हार गए हैं. अब इन पार्टियों को समानुपातिक प्रतिनिधित्व के खाते से ही कुछ मिलने की उम्मीद है जिसकी गिनती होने में एक हफ्ते का समय लग सकता है. देश के कुल सात प्रदेशों के चुनाव नतीजे भी कमोबेश ऐसे ही हैं. केवल 2 नंबर के प्रदेश में वामपंथियों की स्थिति कमजोर है—शेष छह प्रदेश में भी वामपंथियों की ही सरकार बनेगी.
इन नतीजों से यह तय हो गया है कि केंद्र में एमाले के नेता के पी ओली के नेतृत्व में अगर दो-तिहाई नहीं तो पूर्ण बहुमत की सरकार बनेगी. नेपाल के लिए यह बहुत शुभ संकेत है क्योंकि 2008 से, जब से गणतंत्र की स्थापना हुई, अब तक किसी सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा नहीं किया. अब नेपाल में राजनीतिक स्थिरता का दौर शुरू हो सकेगा.
नेपाल में वामपंथियों की शानदार जीत ऐसे समय हुई है जब भारत सहित दुनिया के विभिन्न देशों में फासीवादी ताकतें सत्ता पर काबिज होती जा रही हैं. भारत में भी आज वही लोग सत्ता में हैं जो नेपाल को फिर से हिन्दू राष्ट्र बनाने का सपना संजोये हुए हैं और जो नेपाल के राजा को अभी भी ‘हिन्दू ह्रदय सम्राट’ मानते हैं. इस चुनाव ने उनकी उम्मीदों पर पानी फेर दिया. इस चुनाव ने भारत सरकार की नेपाल नीति के खोखलेपन को भी पूरी तरह उजागर कर दिया. इस वर्ष अक्टूबर में जब दोनों कम्युनिष्ट पार्टियों ने मोर्चा बनाया, उस समय भी भारत सरकार की तरफ से भरपूर कोशिश हुई कि यह मोर्चा न बने लेकिन माओवादी नेता प्रचंड और एमाले नेता ओली ने इस असंभव समीकरण को संभव बना कर सबको हैरानी में डाल दिया. बहुतों ने कयास लगाया कि हो सकता है कि सीटों के बंटवारे के सवाल पर यह एकता टूट जाये (जिस तरह बाबूराम भट्टराई टूट कर मोर्चे से अलग चले गए) लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ.
अब से दो वर्ष पूर्व सितम्बर 2015 में भारत सरकार के विदेश सचिव जयशंकर ने नेपाल जा कर प्रमुख राजनीतिक दलों के नेताओं से मिल कर दबाव डालने की कोशिश की थी कि वे संविधान जारी करने का काम मुल्तवी कर दें. इसके लिए उन्होंने मधेस की समस्या को बहाना बनाया था जबकि वजह कुछ और थी. इसका खुलासा कुछ दिनों बाद ही भाजपा नेता भगत सिंह कोश्यारी के एक इंटरव्यू से हुआ जिसमे उन्होंने बताया था कि किस तरह खुद उन्होंने और सुषमा स्वराज ने प्रचंड से ‘अनुरोध’ किया था कि वे संविधान में से ‘धर्मनिरपेक्षता’ शब्द निकाल दें लेकिन प्रचंड ने उनके सुझाव पर ध्यान नहीं दिया. आश्चर्य नहीं कि संविधान 20 सितम्बर को जारी हुआ और 21 सितम्बर की रात से ही नेपाल की नाकेबंदी कर दी गयी. नेपाली जनता ने इसे नाराजगी में उठाया गया भारत सरकार का कदम माना जब कि भारत सरकार का कहना था कि संविधान से असंतुष्ट मधेसी जनता ने यह कदम उठाया है. उस समय के पी ओली प्रधान मंत्री थे जो दशकों से भारत के करीबी माने जाते थे लेकिन ओली की अपील पर भी मोदी सरकार ने ध्यान नहीं दिया और नेपाली जनता नाकेबंदी का दंश झेलती रही. अंततः ओली ने अपने दूसरे पड़ोसी चीन से मदद की गुहार की और फिर ओली को मोदी सरकार ने अपनी काली सूची में दर्ज कर लिया. जुलाई 2016 में नेपाली कांग्रेस और प्रचंड की पार्टी ने अविश्वास प्रस्ताव के जरिये ओली की नौ महीना पुरानी सरकार गिरा दी, प्रचंड प्रधानमंत्री बने और सितम्बर में भारत सरकार का आतिथ्य स्वीकार किया. नेपाली जनता ने इसे मोदी सरकार की अक्षम्य कार्रवाई माना.
के.पी.ओली को जबरदस्त समर्थन मिलने के पीछे यह समूची पृष्ठभूमि है. अतीत में प्रचंड ने लगातार एक ढुलमुल रवैया दिखाया है और जो लोग इस एकता के भविष्य को ले कर शंकालु हैं उनके दिमाग में भी ये घटनाएं हैं. इसीलिये मैं मानता हूँ कि इस मतदान के जरिये नेपाल की जनता ने अपनी संप्रभुता को भी ‘एसर्ट’ किया है.
भावी ओली सरकार के सामने मधेसी समस्या को हल करने की एक बड़ी चुनौती है. यद्यपि इस चुनाव ने मधेसी आन्दोलनकारियों को कुछ ख़ास लाभ नहीं पहुंचाया है तो भी आन्दोलन के कई प्रमुख नेताओं मसलन उपेन्द्र यादव, महंथ ठाकुर, राजेन्द्र महतो को अच्छी जीत मिली है और वे संसद में अपनी मांगों को उठाते रहेंगे. मधेस ही वह कमजोर कड़ी है जिसके जरिये भारत का शासक वर्ग नेपाल की राजनीति में अनुचित हस्तक्षेप करता रहा है इसलिए अगर मधेस की जनता को यह सरकार संतुष्ट रख सकी तो भारत की साजिशों को विफल कर सकेगी. यह माना जाता है कि मधेस के प्रति ओली का रवैया सहानुभूतिपूर्ण नहीं है. ओली सरकार ने अगर थोड़ा लचीलापन दिखाते हुए मधेसी जनता की वाजिब समस्याओं का समाधान ढूंढ लिया तो यह उसकी बहुत बड़ी उपलब्धि होगी.
जिस समय दोनों पार्टियों का मोर्चा बना था, यह कहा गया कि यह पार्टियों के एकीकरण की दिशा में पहला कदम है. दोनों मिल कर एक कम्युनिस्ट पार्टी बनाएंगी, इसके बारे में अभी साफ़ तौर पर कुछ कहा नहीं जा सकता है क्योंकि बहुत सारे ऐसे वैचारिक मुद्दे हैं, जिन्हें अभी हल किया जाना है लेकिन मुद्दा आधारित कार्यगत एकता भी अगर लम्बे समय तक बनी रही तो निश्चित ही यह नेपाल और भारत दोनों देशों की जनतांत्रिक ताकतों को मजबूती देगी.
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और तीसरी दुनिया के संपादक हैं।