दिल्ली के कुछ युवा रंगकर्मियों ने सोमवार को मंडी हाउस स्थित श्रीराम सेंटर पर हाथों में प्लेकार्ड लेकर शांतिपूर्ण प्रदर्शन किया। ये रंगकर्मी इस बात से ख़फ़ा हैं कि दिल्ली सरकार ने 6-9 नवंबर के बीच आयोजित हुए भरतमुनि रंग उत्सव और 4-9 दिसंबर के बीच होने वाले युवा नाट्य समारोह के लिए बाकायदा नाटकों के विषय तय किए हैं। रंगकर्मियों का कहना है कि रंगकर्म के क्षेत्र में सरकारी दखल ठीक नहीं है और यह रंगकर्म की स्वतंत्रता व स्वायत्तता पर सीधा हमला है।
ये दोनों रंग उत्सव दिल्ली सरकार की अधीनस्थ संस्था साहित्य कला परिषद द्वारा आयोजित हैं। आज से तीन महीना पहले जब इन दोनों उत्सवों के लिए विज्ञापन निकाला गया था और प्रविष्टियां मंगवाई गई थीं, उस वक्त ही विषय सुझाने को लेकर विवाद शुरू हुआ था। दिल्ली सरकार और आम आदमी पार्टी के करीबी रहे वरिष्ठ रंगकर्मी अरविंद गौड़ ने एक बैठक में इस बात पर आपत्ति जतायी थी कि सरकार रंगकर्मियों को पहले से नाटक के विषय बताकर प्रविष्टियां मंगवाए।
प्रदर्शनकारी रंगकर्मियों की ओर से जारी विज्ञप्ति कहती है, ”इस से भी दुखद स्थिति यह है कि दिल्ली और देश भर के प्रमुख रंगकर्मियों द्वारा आपत्ति दर्ज़ कराए जाने तथा इस फ़रमान को फ़ौरन वापिस लिए जाने की मांग के बावजूद पर सरकार अपनी ज़िद पर अडी रही है और अपने एजेंडे के अनुसार ही इस महोत्सव की शुरुआत कर रही है!”
साहित्य कला परिषद ने दोनों नाट्य उत्सवों के अपने विज्ञापन में जो विषय सुझाए हैं, उन्हें देखकर हालांकि ऐसा बिलकुल नहीं लगता कि दिल्ली सरकार की ओर से कोई अभिव्यक्ति की आज़ादी के दमन का या कोई राजनीतिक एजेंडा सेट करने का मामला बनता है। विषय सूची देखें:
प्राचीन भारतीय शिक्षा बनाम वर्तमान शिक्षा
शिक्षा का अधूरापन
लोकतंत्र कैसे मज़बूत हो
प्राचीन भारत में लोकतांत्रिक मूल्य बनाम वर्तमान लोकतंत्र
अधूरा ज्ञान
जनशक्ति
नारीशक्ति
मानवीय मूल्यों का ह्रास
सर्वधर्म सद्भाव
कबीर की दृष्टि
नानक की राह
विवेकानंद का देश
उपर्युक्त विषयों में ऐसा कोई भी विषय नहीं है जो मूलभूत संवैधानिक मूल्य के खिलाफ़ जाता हो, बल्कि ज्यादातर विषय लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आज़ादी के समर्थन में ही खड़े दिखते हैं। बावजूद इसके यह एक सैद्धांतिक आपत्ति मानी जा सकती है कि विषय सरकार तय कर के क्यों दे।
सांस्कृतिक आयोजनों के विषय तय करने का चलन केंद्र में 2014 में भारतीय जनता पार्टी की सरकार के आने के बाद शुरू हुआ जब सीबीएसई जैसी शैक्षणिक संस्थाओं ने स्कूलों में निबंध से लेकर वाद-विवाद और नाटक तक विषय तय करने शुरू किए। स्वच्छता अभियान से लेकर बेटी बचाओ जैसे सरकारी कार्यक्रमों और नारों का प्रचार करने के उद्देश्य से यही विषय स्कूलों को सुझाए जाने लगे। इस पर कभी संस्कृतिकर्मियों की ओर से कोई संगठित प्रतिरोध देखने को नहीं मिला।
अब इस मामले में स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि बनारस हिंदू युनिवर्सिटी के एमए (राजनीति शास्त्र) के प्रथम वर्ष के परचे में ”कौटिल्य के अर्थशास्त्र में जीएसटी” और ”योग क्षेम” की व्याख्या पूछी जा रही है। शिक्षा-संस्कृति का एजेंडा तय करने के मामले में जो परिपाटी भारतीय जनता पार्टी ने पिछले तीन साल के अपने राजकाज में रखी है, उसके सामने अगर साहित्य कला परिषद, दिल्ली के सुझाए धर्मनिरपेक्ष किस्म के विषयों को देखें तो असली खतरा कहीं और नज़र आता है।