मोदी ने पीठ ठोंकी पर ‘चारण’ नज़र आये IBN7 संपादक राहुल जोशी !

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Jagadishwar Chaturvedi

September 2 at 9:43pm ·

ये “ताक़तवर शख़्स ” का विशेषण पीएम के साथ जोड़कर किसे मूर्ख बना रहे हैं आईबीएन 7 वाले! जनतंत्र में पीएम के साथ यह विशेषण डिक्टेटर कहा जाएगा!

Jagadishwar Chaturvedi

September 2 at 10:21am ·

पीएम मोदी की ख़ूबी है कि उनसे कोई टफ़ सवाल नहीं पूछता! दूसरी ख़ूबी है जो सवाल पूछा जाताहै उसका वो कभी सीधे उत्तर नहीं देते तुरंत विषयान्तर कर देते हैं, आईबीएन 7 का इंटरव्यू लेने वाले जोशीजी बस टुकुर टुकुर निहारते रहे हैं! गोया वे पीएम को नहीं मॉडल को देख रहे हों ! कम से कम इंटरव्यू में राजनीतिक माहौल तो होना चाहिए!

 

ऊपर दो फ़ेसबुक टिप्पणियाँ जगदीश्वर चतुर्वेदी की हैं जो कोलकाता विश्वविद्यालय के प्रोफेसर के अलावा प्रसिद्ध मीडिया समीक्षक भी हैं। उन्होंने मीडिया जगत में आ चुके, और आ रहे परिवर्तनों पर तमाम किताबें लिखी हैं। उनकी टिप्पणियाँ यह बताने के लिए काफ़ी हैं कि 2 सितंबर को प्रसारित, नेटवर्क 18 के ग्रुप एडिटर राहुल जोशी का प्रधानमत्री नरेंद्र मोदी से साक्षात्कार, किस तरह देखा गया ।राहुल जोशी 20 साल से पत्रकारिता में हैं और यह उनका पहला इंटरव्यू था। मोदी जी ने अंत में उनके इस ‘पहले’ प्रयास में झलके ‘आत्विश्वास’ के लिए उनकी पीठ ठोंकी। लेकिन बिना किसी स्पर्श के दर्शक भी जान गये कि इस साक्षात्कार के पहले ही राहुल जोशी की पीठ से रीढ़ निकालकर पीएमओ के डस्टबिन में फेंक दी गई थी। (हाँलाकि एक अंदाज़ यह भी है कि राहुल जोशी ने इकोनॉमिक टाइम्स के संपादक पद छोड़ रिलायंस के सूचना साम्राज्य के हिस्सा बनने की प्रकिया के दौरान इसे ख़ुद ही दिल्ली या मुंबई एयरपोर्ट की किसी डस्टबिन के हवाले किया होगा।) जो भी हो, इसमें शक नहीं कि पूरा इंटरव्यू चीख़-चीख़ कर कह रहा था कि पत्रकार की रीढ़ नहीं है।

आख़िर यह नतीजा क्यों निकाला गया ?

ऐसा नहीं है कि प्रधानमंत्री से साक्षात्कार के दौरान अक्खड़पन दिखाना ‘खरे पत्रकारों’ की पहचान है। लेकिन अपने समय के सवालों से आँख मूँद कर वही पूछना जिसमें सामने वाले को ‘ख़ुशी हो और प्रवचन देने का अवसर मिले, भाँड़गीरी कहलाता है। अगर यह शब्द कठोर है तो चारण भी लिखा जा सकता है। ऐसा नहीं कि यह गाली है। ”चारण” या ‘भाँड़” सिद्ध प्रतिभाओं की तरह भारतीय इतिहास का हिस्सा है, लेकिन उनका पूरा कौशल झूठ को सच बनाने में था।

नेटवर्क 18 ने इसे ‘बेबाक और सबसे बड़ा इंटरव्यू’ बताया जो देश के सबसे ‘ताक़तवर शख्स’ से लिया गया। क्या राहुल जोशी नहीं जानते कि भारतीय लोकतंत्र में सबसे ताक़तव जैसे विशेषण के लिए कोई जगह नहीं है। यह संबोधन आमतौर पर माफ़ियाओं के लिए प्रयोग किया जाता है। मोदी जी प्रधानमंत्री हैं, तमाम नियमों, कानूनों और मर्यादाओं से बँधे हुए। न कि सबसे ताक़तवर शख्स। या कि जैसा जगदीश्वर चतुर्वदी ने इशारा किया है, रिलायंस वाक़ई मोदी जी में भविष्य का डिक्टेटर देख रहा है। देश का ‘सबसे ताक़तवर शख्स’ जो सुबह अंबानी के मोबाइल नेटवर्क के लिए मॉडलिंग करे और शाम को उसी नीली-सफ़ेद पोशाक में उनके सूचना नेटवर्क को इंटरव्यू दे।

इस इंटरव्यू के लगभग हर प्रश्न के साथ राहुल जोशी ने मोदी जी कोई उपाधि ज़रूर दी। शुरूआत से ही उन्होंने ग़ज़ब प्रमाणपत्र देना शुरू कर दिया, जैसे—‘आपके आने से देश को एक ताक़तवर नेता..लौहपुरुष मिल गया’, ‘देश की आर्थिक हालत ठीक हुई’, ‘ब्लैक मनी पर क्रैकडाउन किया’, ‘हाईलेवल करप्शन कम हुआ’,  ‘किसी डायनेस्टी को नहीं छोड़ा’ ‘आपकी रैली में जाने पर चैनलों को टीआरपी मिलती है,’ ‘आप 16-18 घंटे काम करते हैं, फिर रिलैक्स कैसे करते हैं ?’ वग़ैरह..वग़ैरह..।

सवाल यह नहीं कि राहुल जोशी के प्रमाणपत्र की तमाम आँकड़ों से धज्जियाँ उड़ाई जा सकती हैं। सवाल यह है कि क्या पत्रकारों का काम किसी नेता की इस तरह आरती उतारना है। इस ’मक्खनबाज़ी’ से शायद मोदी जी को भी अपच हो गई थी, तभी उन्होंने कहा कि आप तो ‘मर्यादा’ के कारण नहीं पूछ रहे हैं लेकिन कई पत्रकार ब्लंट होकर पूछ लेते हैं कि ‘मोदी जी आपने कौन सी ग़लती की है ?’

यानी मोदी जी भी समझते हैं कि अगर राजनेता द्वारा निर्धारित ‘मर्यादा’ का अतिक्रमण न हो तो इंटरव्यू प्रामाणिक नहीं बन पाएगा। लेकिन राहुल जोशी तो जैसे अपने पहले प्रयास में ही मुकेश अंबानी की आँख के बाल हो जाना चाहते थे। उन्होंने एक भी ऐसा सवाल नहीं पूछा जो कठिन लेकिन ज़रूरी था। दलित विरोधी होने से जुड़ा सवाल भी कुछ इस अंदाज़ में पूछा गया कि यूपी चुनाव के मद्देनज़र मोदी जी को लंबा प्रवचन देने का मौका मिले।

लेकिन दलितों का सवाल क्या इतना ही है कि मोदी जी ने अंबेडकर को लेकर पंचतीर्थ बनवाये। मोदी जी के गुजरात में दलित तमाम गर्हित काम छोड़कर पाँच एकड़ ज़मीन माँगते हुए आंदोलन की एक नई ज़मीन तोड़ रहे हैं, क्या आर्थिक पत्रकार रहे राहुल जोशी इसका मतलब नहीं जानते ? क्या इस सवाल के जवाब से कोई बड़ा संदेश नही जाता। यही नहीं, हाल ही में मैगसैसे से सम्मानित बेजवाड़ा विल्सन ने कहा है कि स्वच्छ भारत अभियान में सफ़ाई कर्मियों को लेकर चिंता नहीं है। हज़ारों दलित सीवर की सफ़ाई में मारे जा रहे हैं। उन्होंने कहा कि मनुष्यों से मनुष्यों का मल साफ़ कराने की ऐतिहासिक ग़लती के लिए प्रधानमंत्री माफ़ी माँगें। क्या यह सवाल नहीं बनता था ?

दाल के दाम दो साल में 70 से 180 हो गये लेकिन इंटरव्यू में महंगाई से जुड़ा सवाल ही नहीं था। रोज़ागर के दावों पर भी कोई प्रतिप्रश्न नहीं। पड़ोसी देशों से बिगड़ते संबंधों को लेकर या कश्मीर की हालत पर भी कोई ठोस बात राहुल जोशी नहीं कर पाये। हाँ, मोदी जी हर सवाल के बाद आराम से लंबे-लंबे प्रवचन देते रहे और राहुल जोशी टुकुर-टुकुर ताकते रहे। न कोई टोका-टोकी और न कोई प्रतिप्रश्न। जवाब से कोई सवाल निकालकर घेरने जैसे पत्रकारीय ‘हरक़त’ का तो ख़ैर सवाल ही नहीं।

और हाँ, लुटियन दिल्ली के रास आने न आने जैसे सवाल से ज़्यादा ज़रूरी था यह पूछना कि बीजेपी अपने वादे के अनुरूप दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा क्यों नही दे रही है। हो सकता है मोदी जी नई लाइन लेते हुए कह देते कि यह संभव नहीं है। कम से कम भ्रम तो ख़त्म होता। पर यह इंटरव्यू भ्रम ख़त्म करने के लिए था भी कहाँ, वह तो नए भ्रमों के निर्माण के लिए था।

जहाँ तक शैली वगैरह का सवाल है तो ‘जीवन का यह पहला टीवी इंटरव्यू” रहुल जोशी न ही करते तो बेहतर होता। ऐसा लग रहा था कि कोई स्कूली बच्चा सवाल रट कर बैठा हो और डरते-डरते उन्हें उगल दे रहा हो। संभव हो कि पीएमओ ने सवाल पहले ही माँग लिए हों, लेकिन टीवी पर साक्षात्कार लेते वक़्त थोड़े ‘अंदाज़’ की भी ज़रूरत होती है ताकि बात प्रामाणिक लगे। राहुल जोशी को आईबीएन7 के डिप्टी मैनेजिंग एडिटर सुमित अवस्थी की काबिलियत पर यक़ीन नहीं था तो किशोर आजवानी को भेज सकते थे जिनको एबीपी न्यूज़ से वे ख़ुद लेकर आये हैं और जो अच्छे परफ़ार्मर माने जाते हैं। या फिर भूपेंद्र चौबे, जो अंग्रेज़ी और हिंदी दोनों में बेहतर हैं।

कहीं ऐसा तो नहीं कि अपने ‘कच्चेपन’ के बावजूद राहुल जोशी ने ‘डेमो’ देने के लिए ख़ुद इंटरव्यू लिया ताकि बताया जा सके कि रिलायंस में रहते हुए कैसी पत्रकारिता करनी होगी।

जो भी हो, ‘अहो रूपम्-अहो ध्वनि’ वाला यह इंटरव्यू लंबे समय तक याद किया जाएगा।

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