12 जून को सुबह के 11 बजे। हम लोग भांटो का वास, जोगियों की बस्ती, सिणधरी चोसिरा, तहसील सिणधरी (बाड़मेर) पहुँचे। दूर दूर तक फैले मिट्टी के ऊंचे-ऊंचे टीले, हल्क को सुखा देने वाली गर्म हवा (लू) से हमारा हाल बेहाल हो चुका था।
ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने अंगारे पूरे शरीर पर बांध दिए और उस पर कोई फूंक मार रहा हो। हम निरन्तर पानी और ग्लूकोश का सेवन कर रहे थे। ऊपर से कोरोना का डर भी बना हुआ था। लॉकडाउन-1 खुल चुका था।
यहां भांटों के बॉस, जोगियों की बस्ती में कालबेलिया, बावरिया और बंजारा समुदायों के डेरे पड़े हैं। ये डेरे गांव की गोचर भूमि के अंतर्गत आते है।
हम कालबेलियों की बस्ती में पहुँचे जहां करीब 30-35 कच्ची मिट्टी की झोपड़ियां और तम्बू लगे थे। तम्बुओं के चारों ओर कांटों की बाड़ की हुई थी। ताकि कोई बाहरी पशु अंदर न घुस सके। उसी बाड़े में करीब 10-12 बच्चे मस्ती से गोल घेरा बनाए खेल रहे थे। उनके चेहरे देखकर ऐसा लग रहा था। जैसे की सारे जहांन की खुशियां उनके मुट्ठी में हैं।
तभी एक झोंपडी से दो महिलाएं और एक पुरुष हाथ में मटका लिए बाहर निकलते हुए दिखलाई पड़े। एक महिला दूर खड़े बच्चों पर चिल्लाने लगी। “तुम लोग पाणी नी लया, ईब के करागा” लड़ी नु भी पाणी कोणी पिलायो” (तूम लोग पानी मांग कर नहीं लाये, अब अपना काम कैसे चलेगा, बकरियों को भी पानी नहीं मिला है)
हमें देखकर वे लोग सहसा ही रुक गए। उनके कपड़े देखकर ऐसा लग रहा था जैसे वो सदियों से इन्हें नहीं धुले हों। उसमें एक महिला का नाम पोली बाई, दूसरी का नाम कमली बाई तथा पुरुष का नाम मन्शी नाथ है। सभी की उम्र 40-42 वर्ष के करीब है। तीनों में कोई भी पढ़ा लिखा नहीं हैं, तो उम्र का सही बता पाना सम्भव नहीं हैं।
मन्शी नाथ कहते हैं कि हमारे जीवन की शुरुआत सुबह के पानी बटोरने से होती है। हमारे बच्चे सुबह उठते ही बोतल लेकर नजदीक के गांव में पानी बटोरने चले जाते हैं। हमें तो कोई घर वाले पानी नहीं देते, लेकिन इन बच्चों को कोई कोई दे देता है।
हम लोग हर दिन अलग अलग घर में पानी मांगने जाते हैं। यदि रोजाना एक ही घर में जायेंगे तो वे लोग पानी देने से हमें मना कर देंगे। हमारी महिलाएं पानी लेने जाती हैं तो लोग हमारी मजबूरी का फायदा उठाते हैं। कुछ सेकंड के लिए सभी के चेहरे पर चुप्पी छा गई।
तभी पोली बाई ने कहा कि हमारे टोले में पिछले 1 महीने से कोई नहीं नहाया है। हम 4 मिट्टी के घड़े के पानी से पूरा दिन निकालते हैं। हमारे टोलें में 30 तो बच्चे हैं। हमारे पास 5 बकरी हैं। बकरी को यहां से 4 कोस दूर लेकर जाते हैं। वहीं पानी पिलाकर लाते हैं। वहीं से पशु के होद से जो पानी लाते हैं। वो हम लोग पीते हैं। बच्चों को ये घड़े का पानी पिलाते हैं।
मन्शी नाथ कहते हैं कि लॉकडाउन लगने से पहले गांव वाले हमें पानी दे देते थे। लेकिन लॉकडाउन के इन दो महीनों में कुतों, बकरियों, गधों और हमने एक साथ सड़े गले पानी से भरी उस होदी/खेली से पानी पिया है. लॉकडाउन खुलने के बाद भी हमें कोई गांव में घुसने नहीं देता। पहले-पहले यहां एक संस्था ‘उड़ान’ ( सामाजिक संस्था है जो कमजोर समुदायों के उत्थान के लिए काम करती हैं) ने हमे पानी दिया, लेकिन पिछले एक महीने से हमारी स्थिति बहुत खराब हो गई है।
लक्ष्मी ने अपनी दरखास्त/एप्लीकेशन दिखलाते हुए बताया कि पहले (21 मई) एस.डी.एम. सिणधरी को एक शिकायत देकर आये। हम पढ़े लिखे नहीं हैं तो उड़ान संस्था के एक साथी ‘श्रवण’ ने हमारी शिकायत लिखी और हमें वहां बड़ी मैडम के पास गए।
उन्होंने कहा कि हम पानी का टैंकर भेजेंगे। जब तीन दिन तक कोई मदद नहीं मिली तो उसी उड़ान संस्था के उस साथी श्रवण जी ने उनका फ़ोन मिलाकर दिया। कमली बाई का फ़ोन तो आवाज सुनकर काट दिया और जब मैंने फ़ोन किया तो उस मैडम ने कहा कि जहां से पहले पानी पीते थे वहीं से पिओ।
मन्शी नाथ ने बताया कि हम तो पानी मांगकर ही पीते हैं। हमारे पास कोई नलकूप थोड़े ही है। हम तो बेलदारी पर जाते हैं। पिछले दो महीने से वो काम भी बन्द पड़ा है। अब तक तीन बार 5-5 किलों आटा मिला है। उससे क्या होगा? दोपहर में एक समय खाना बनता है। उसी से पूरा दिन निकालते हैं। ये 5 बकरी हैं। तीन बकरी दूध देती हैं। इसी से हमारा चाय पानी हो जाता है और शाम को सभी बच्चों को थोड़ा- थोड़ा पिला देते हैं।
हम उनकी इस हताशा और लाचारी को देख रहे थे, उसे महसूस कर रहे थे. उस राज्य और प्रशासन के अमानवीय चेहरे को देख रहे थे। मौके का फायदा उठाने वाले उन गांव वालों के चेहरे को भी भली-भांति समझ रहे थे। बाड़मेर इस चिलचिलाती गर्मी में पानी और खाने की कीमत समझ पा रहे थे। हमने उनसे बात करते हुए 5 लीटर पानी पी लिया था।
यही स्थिति भैरोनाथ के टोले की है। यहां तकरीबन हर घुमन्तू समुदाय की यही स्थिति है। हमने दोपहर में एसडीएम, सिणधरी से बात की। मैडम ने हमें फ़ोन पर कहा कि” ये लोग गोचर भूमि पर बैठे हैं, हम इनको पानी नहीं दे सकते”
सवाल ये है कि घुमन्तुओं के पास अपनी भूमि कहाँ हैं? इनके डेरे तो सदियों से इसी भूमि पर लगते आये हैं। रैनके कमीशन की रिपोर्ट के अनुसार 57 फीसदी से ज्यादा घुमन्तू लोगों के पास अपनी कोई जमीन नहीं हैं। तो क्या अब इन लोगों को पानी भी नहीं मिलेगा?
यदि गोचर भूमि पर बैठे लोगों को पानी नहीं मिलेगा तो इस लॉकडाउन में यहां पर बाहरी राज्यों के फंसे मजदूरों की क्या दुर्गति हुई होगी ये सोचा जा सकता है।
इस विषय पर उड़ान संस्था के कार्यकर्ता श्रवण हमें बताते हैं कि वे पिछले दो महीने से इनके पानी और राशन की उपलब्धता सुनिश्चित करने में लगे हैं। किंतु अब संस्था का बजट समाप्त हो गया। अब तो सरकार को ही मदद करनी पड़ेगी।
श्रवण कहते हैं कि मेरा घर यहां से एक किलोमीटर दूर है। मैं इनको पानी तो दे देता हूँ। लेकिन मैं कितने घुमन्तुओं को पानी दूं? गांव वाले कहते हैं कि इनको अंदर आने मत दो, ये कोरोना फैला देंगे। मैं लगातार इनको लेकर एसडीएम मैडम के पास गया। लेकिन अधिकारी लोग इनको इंसान ही नहीं मानते।
इस सारे घटनाक्रम पर हमने कलेक्टर को फ़ोन किया, किन्तु कई बार प्रयास करने के बाद भी उन्होंने हमारा फ़ोन नहीं उठाया। उसके बाद हमने उनके लैंडलाइन पर फ़ोन किया। उनके कर्मचारियों ने बात करवाने से मना कर दिया। उसके बाद हमने उनको कुछ सवाल लिखकर व्हाट्सअप भेजा।
कलेक्टर ने शाम को उस बस्ती में एक छोटी पानी की टँकी भिजवाई, जिसमे मुश्किल से 10- 15 घड़े पानी आता है। वो पानी देखते ही देखते समाप्त हो गया। अब आगे क्या? अगले दिन फिर से उन लोगों के लिए वो ही खेली/ होदी है, जहां पशुओं के साथ वे भी उस गंदे पानी को पियेंगे।
जैसमलमेर और जोधपुर में कालबेलियों के यही हालत है। जैसमलमेर के सम में तो तपती रेत पर 50 डिग्री के तापमान में हज़ारों कालबेलियों के डेरों को रोक रखा गया। कहा गया कि लॉकडाउन चल रहा है। यदि ये यहां से गये तो कोरोना फैला देंगे। मूकनाथ और मिश्रानाथ कालबेलिया ने उन दिनों नर्क का जीवन जिया है।
क्या आज ये लोग इतने गैर जरूरी हो गए हैं? कोरोना से तो ये लोग लड़ लेंगे, किन्तु इस तपती रेत और प्यास से कैसे लड़ेंगे?
अश्वनी कबीर, बंजारों के जीवन पर शोध कर रहे हैं।