25 साल से संसद में अटका पड़ा ‘महिला आरक्षण’ हमारा अधिकार!


33 प्रतिशत आरक्षण लागू होने के बाद संसद और विधानसभाओं में औरतों के सवालों पर अधिक बहस हो सकेगी और आम महिला मतदाताओं को यह समझने का मौका भी मिलेगा कि चुनी हुई महिला प्रतिनिधि उनके पक्ष में किस हद तक काम कर रही हैं, यानि महिला नेताओं की भी पहचान की जाएगी। यह वर्तमान दौर में इसलिए भी जरूरी है कि दक्षिणपंथी भाजपा भी कैबिनेट में महिला मंत्रियों की अच्छी तादाद लाकर वाह-वाही लूट रही है और महिला-पक्षधर होने का ढोंग कर रही है।


कुमुदिनी पति कुमुदिनी पति
आंदोलन Published On :


महिला आरक्षण की बहुचर्चित माँग को विधेयक की शक्ल में संसद में पेश हुए आज  25 साल पूरे हो गये।  यह शर्म की बात है कि देश की संसद उस पर चुप्पी साधकर काफी संतुष्ट है। वह भी तब, जब शासक दल भाजपा सहित सभी प्रमुख राजनीतिक दलों ने अपने घोषणापत्र में वायदा किया है कि वे उसे पारित करने के लिए प्रतिबद्ध हैं।

12 सितम्बर 1996 को एच डी देवेगौड़ा ने विधेयक को पहली बार संसद में पेश किया, पर वह पारित नहीं हुआ। उसके बाद से का.गीता मुखर्जी के नेतृत्व में संसदीय समिति गठित कर विधेयक को अंतिम रूप देने का काम सौंपा गया। उसी वर्ष विधेयक, जो 108वां संशोधन विधेयक कहलाता है, अपने अंतिम शक्ल में सामने आया। पर आज भी वह अधर में लटका हुआ है। भाजपा ने तो वायदा किया था कि वह निश्चित ही महिलाओं को संसद व विधान सभाओं में 33 प्रतिशत आरक्षण देने के लिए कानून बनाएगी। फिर बहुमत वाली सरकार की राजनीतिक इच्छाशक्ति इतनी कमजोर क्यों है? महिला आन्दोलन ने भी विधेयक को पारित करवाने के लिए संघर्ष के अनेकों रूप अख्तियार किये। ऐपवा ने 1997 के बजट सत्र के दौरान ‘मार्च टू पार्लियामेंट’ आयोजित किया जिसमें देश भर से 10,000 महिलाओं ने हिस्सा लिया। बर्बर पुलिस दमन के चलते कई महिलाएं बुरी तरह घायल हुईं और तत्कालीन प्रधानमंत्री आई.के गुजराल को संसद में माफी मांगनी पड़ी। डेढ़ लाख हस्ताक्षर लोकसभा अध्यक्ष के पास जमा किये गए। दिसम्बर 1998 में एक अनोखी पहल के तहत एनएफआईडब्लू, ऐडवा, सीडब्लूडीएस सहित कई अन्य संगठनों ने दिल्ली से एरनाकुलम और चेन्नई व वापस रेल चेतना यात्रा आयोजित की। इसका उद्घाटन भूतपूर्व महिला आयोग अध्यक्ष श्रीमती मोहिनी गिरी ने किया। यात्रा का स्वागत 18 स्टेशनों पर आम महिलाओं ने किया और सफेद साड़ियों पर हज़ारों हस्ताक्षर दिये, जिन्हें बाद में राष्ट्रपति के पास जमा किया गया। महिला संगठनों ने बाद के वर्षों में वर्कशॉप, सभाएं व प्रदर्शन करते हुए देश भर में चेतना जगाई, महिला सांसदों से बात कर उन्हें भी अभियान में शामिल किया गया। पर पितृसत्ता की जड़ें इतनी मजबूत रहीं कि 25 वर्ष बाद भी विधेयक 2010 में राज्यसभा से पारित होकर ठंडे बस्ते में चला गया। आज फिर इसे कानून का रूप देने के लिए एक व्यापक व सशक्त आन्दोलन की जरूरत महसूस की जा रही है।

 

12 सितम्बर से देशव्यापी अभियान शुरू

इस बार एनएफआईडब्लू की ओर से पहल की गई है कि सभी महिला संगठनों, छात्र-युवा संगठनों, मानवाधिकार संगठनों और देश के तरक्की-पसंद लोगों को एक साझा मंच पर लाया जाए और नए सिरे से महिला आरक्षण विधेयक को पारित करवाने के लिए दबाव बनाया जाए। इस अभियान को गांव-गांव तक, कस्बों और छोटे शहरों से लेकर बड़े शहरों और मेट्रो शहरों तक पहंचाया जाएगा और यह कई चरणों में चलेगा। 12 सितम्बर को विधेयक को 25 वर्ष पूरे हो गये हैं तो इस अवसर पर दिल्ली सहित देश के अनेकों राज्यों में आयोजन हो रहे हैं। जिसके माध्यम से विधेयक के इतिहास और उसकी अब तक की यात्रा को आकर्षक पोस्टरों द्वारा दर्शाया गया है, गीत व कविताएं हैं, नारे लग रहे हैं और महिलाएं विधेयक के समर्थन में बोल रही हैं।

अभियान का संचालन ऑल इंडिया दलित महिला अधिकार मंच, नेशनल फेडरेशन आफ इंडियन विमेन, ऑल इंडिया डेमोक्रैटिक विमेन्स ऐसोसिएशन, ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव विमेन्स ऐसोसिएशन, यंग विमेन्स क्रिसिटयन ऐसोसिएशन, मुस्लिम विमेन्स फोरम और ऐक्ट नाउ फॉर हारमनी ऐण्ड डेमोक्रैसी, अनहद के साथ डीसीडब्लू और पहचान कर रहे हैं। आगे एक राष्ट्रीय अभियान समिति का गठन होगा, जिसमें छात्र-युवा संगठनों, छात्र संघों, प्रमुख मानवाधिकार संगठनों, सांस्कृतिक संगठनों और प्रमुख तरक्की-पसंद व्यक्तियों, पत्रकारों व महिला सांसदों को जोड़कर आन्दोलन को व्यापक फलक दिया जाएगा। जहां तक राजनीतिक दलों की बात है, तो वे संसद में इस आन्दोलन का समर्थन करें और बाहर भी स्वतंत्र रूप से अभियान का समर्थन कर सकते हैं।


यह औरत का दशक होगा

वर्तमान दौर महिला आरक्षण पर कानून बनाने के लिए सबसे बेहतर साबित होगा, ऐसा कई कारणों से लगता है। कई बार से देखा जा रहा है कि महिलाएं राजनीतिक रूप से काफी जागरूक हो गई हैं और संसदीय राजनीति में मुखर होकर अपना दावा पेश कर रही हैं। मतदान के समय महिला मतदाताओं की संख्या पुरुषों की अपेक्षा अधिक होती है, चुनाव में महिला प्रत्याशियों की संख्या बढ़ी है और उनके जीतने की संभावना, यानि ‘विनेबिलिटी’ भी पहले से बेहतर है। यह सब कुछ आकस्मिक नहीं है। स्थानीय निकायों में महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण प्राप्त होने के मायने था भानुमति का पिटारा खुल जाना। और जब महिलाओं के भीतर आकांक्षाएं जाग गई हैं तो किसकी मजाल है कि उन्हें आगे आने से रोक दे?  महिला आन्दोलन और वाम महिला संगठनों ने हर तबके के भीतर महिलाओं को अलग से संगठित भी किया है और अधिकारों के प्रति जागरूक बनाया है, चाहे वे किसान-मज़दूर महिलाएं हों, कर्मचारी-शिक्षक महिलाएं हों या छात्राएं। हाल के दौर में सीएए-एनआरसी विरोधी संघर्ष में महिलाओं ने अग्रणी भूमिका निभाई, उन्होंने लम्बे समय से जारी किसान आंदोलन को बल प्रदान किया और फासीवादी हमलों के विरुद्ध पूरे देश में आवाज़ बुलंद की है। वे पुलिस से टकरा रही हैं, जेल जा रही हैं, मौत को गले लगा रही हैं, पर पीछे हटने का नाम नहीं लेतीं।


स्थानीय निकायों का अनुभव सकारात्मक

जब स्थानीय निकायों में महिलाओं को आरक्षण मिला तो एक बहस चली कि महिलाओं सही मायने में सशक्त नहीं बन सकेंगी क्योंकि पति सरपंच ही उनकी जगह ले लेंगे। ‘‘बीवी ब्रिगेड’’ की तक चर्चा उठी। कुछ हद तक और कुछ समय तक ऐसा हुआ भी पर लम्बे समय तक नहीं। आम महिलाओं को एक बड़ा अवसर मिला कि वे अपनी दावेदारी पेश करें। वे प्रचार के लिए बाहर निकलीं, गांव व शहरों के मुद्दों को समझने लगीं, शासन पद्धति से परिचित हुईं, दूसरे दलों की समर्थित महिला प्रत्याशियों के साथ प्रतिस्पर्धा में उतरीं और कई बार अपने परिवार से लड़कर देर रात तक घर से बाहर रहीं। पहली बार दूसरी जाति व धर्म की महिलाओं से मिलीं, गरीबी देखी और मर्दों से सीधे बात कर सकीं। जीतने के बाद भी कई महिलाएं अपने गांव में बिजली, पानी, सफाई, स्कूल और स्वास्थ्य सेवाओं को दुरुस्त करने लगीं। उन्होंने विकास के ढेरों काम हाथ में लिये और लोकप्रिय भी बनीं। शराब बंदी और हिंसा पर रोक जैसे सवालों पर भी अभियान चले। बिन धुएँ के चूल्हे, सामुदायिक शौचालय, नल व हैंडपंप, सड़कें और बहुत सारी जरूरतों पर काम हुआ। जमीन के पट्टों पर महिलाओं का नाम चढ़वाने और दहेज पर रोक लगाने से लेकर घरेलू हिंसा पर कड़ी कार्रवाई जैसी मांगों को लेकर प्रचार हुआ। मर्दों को उनकी बातें सुननी पड़ीं और घरों में उन्हें आज़ादी भी देनी पड़ी। आप कह सकते हैं कि एक सकारात्मक परिवर्तन आया।

यही बात महिला आरक्षण विधेयक के बारे में समझना जरूरी है। हम यह नहीं कहेंगे कि संसद में 33 प्रतिशत महिलाओं के आ जाने से औरतों के लिए सब कुछ अच्छा हो जाएगा और धनबल व बहुबल का बोलबाला खत्म हो जाएगा। कुल मिलाकर महिला राजनीतिज्ञ अपने दलों की विचारधारा का ही प्रतिनिधित्व करती हैं। फिर भी उनके पास अधिकार है कि वे स्वायत्त होकर काम करें। 33 प्रतिशत आरक्षण लागू होने के बाद संसद और विधानसभाओं में औरतों के सवालों पर अधिक बहस हो सकेगी और आम महिला मतदाताओं को यह समझने का मौका भी मिलेगा कि चुनी हुई महिला प्रतिनिधि उनके पक्ष में किस हद तक काम कर रही हैं, यानि महिला नेताओं की भी पहचान की जाएगी। यह वर्तमान दौर में इसलिए भी जरूरी है कि दक्षिणपंथी भाजपा भी कैबिनेट में महिला मंत्रियों की अच्छी तादाद लाकर वाह-वाही लूट रही है और महिला-पक्षधर होने का ढोंग कर रही है।

उदाहरण के लिए महिलाओं पर बढ़ती हिंसा क्यों एक राजनीति प्रश्न नहीं बन सका या खाप पंचायतों के फतवों और ऑनर किलिंग पर बहस क्यों नहीं होगी? फिर, गरीब या साधारण परिवार की महिलाओं को भी चुने जाने का अवसर मिलेगा और इनमें कई आदिवासी, दलित, पिछड़ी जाति की, मुस्लिम और इसाई महिलाओं को भी प्रतिनिधित्व मिलेगा और उनमें से भी ऐसी प्रतिनिधि होंगी जो समुदाय के लिए ईमानदारी से काम भी करेंगी। यही मौका भी है कि सामाजिक न्याय का नारा देने वाले दल अपने पार्टी संगठन में दलित-ओबीसी महिलाओं को समितियों में लाएं, उन्हें राजनीतिक प्रक्षिण दें और उच्च पदों पर चुनें; शायद न चाहकर भी उन्हें ऐसा करना होगा, क्योंकि महिलाओं के भीतर नई आकांक्षाएं जागेंगी, और दलों में उनकी दावेदारी उसी अनुपात में बढ़ेगी। कई बार देखा गया कि महिलाओं को ऐसे चुनाव क्षेत्र दिये जाते हैं जहां उनके जीतने की संभावना कम होती है। महिला विधेयक के आने के बाद राजनीतिक दलों की जरूरत बनेगी कि वे आरक्षित चुनाव क्षेत्रों के लिए महिला प्रत्याशी तैयार करें। संसद और विधान सभाओं में महिला सदस्यों के साथ 75 वर्षों से जो अनादर का व्यवहार होता रहा है, एक-तिहाई महिला सांसदों के रहते हुए संसद की मर्दवादी संस्कृति भी बदलेगी। पहली बार आम महिला को भी आत्मसम्मान का अहसास होगा और अधिक सशक्त महसूस होगा।

पर महिला आन्दोलन को कुछ नई मांगें भी सूत्रबद्ध करनी होंगी। मसलन महिला प्रत्याशियों के लिए जमानत राशि को आधा किया जाए; उनपर सभाओं में अश्लील व भद्दी टिप्पणी या चरित्र हनन करने पर चुनाव आयोग द्वारा सज़ा, महिला प्रत्याशियों की सुरक्षा का पुख़्ता इंतेज़ाम, आदि।

आज लगभग सभी राजनीतिक दल, चाहे वे सत्ता पक्ष में हों या विपक्ष में, समझ रहे हैं कि महिलाओं में एक उभार आया है, वे पहले की अपेक्षा अधिक सक्रिय हैं और मुखर भी। इतना ही नहीं, वे बदलाव का वाहक भी बन सकती हैं, यदि सही सवालों को तवज्जो दिया जाए। जेंडर बजेटिंग, महिला-पक्षधर कानून, शराब बंदी, माइक्रोफाइनैंस, महिला थानों का जाल, वन स्टॉप सेंटर, फास्ट ट्रैक महिला अदालतें, औरतों के लिए सैकड़ों स्कीमें, उनके लिए निःशुल्क शिक्षा, बस सेवा, महिला बैंक और यहां तक कि महिलाओं के कोविड टीकाकरण के लिए पिंक बूथ-ये सब कुछ आधी आबादी के संघर्ष का परिणाम है। और, कौन नहीं जानता कि चंद्रबाबू नायडू हों या जयललिता, नितीश कुमार, केजरीवाल, नवीन पटनायक और ममता बनर्जी-सभी की जीत में हमेशा महिला मतदाताओं का बड़ा योगदान रहा है, यह अलग बात है कि वे अपनी इस ‘कान्स्टिटुएंसी’ को कितना संतुष्ट रख पाएंगे। आगे भी, आधी आबादी जिस फासीवादी हमले की सबसे अधिक शिकार बन रही है, उसके लिए राजनीति में कदम रखने और लड़ने के अलावा चारा नहीं है।


विधेयक पारित होने पर नई चुनौतियाँ

महिला विधेयक को पारित करवाने के बाद औरतों के लिए भी लड़ाई चुनौतिपूर्ण बनेगी, क्योंकि जनता की आकांक्षाएं बढ़ी हुई हैं और पहले से औरतों के राजनीतिक कौशल के बारे में नकारात्मक धारणाओं का खासा प्रचार रहा है। महिला सांसदों व विधायकों को हज़ारों साल से निचले पायदान पर रखी गई आधी आबादी के सपनों को साकार करने के लिए दूनी मेहनत करनी होगी। इसलिए भी कि समाज पितृसत्तात्मक सोच से मुक्त नहीं है और किसी भी दमित समुदाय के पक्ष में खड़ा होना आसान नहीं होता है। जमीनी संघर्षों से उभरी महिलाओं के लिए यह सुनहरा मौका होगा कि वे अपनी लड़ाई को एक वृहद् फलक दे सकेंगी। और, इस लिहाज से देखा जाए तो राजनीतिक दलों को बेहतर मौका मिलेगा कि वे देश की आधी आबादी-को राजनीतिक मुख्यधारा में लाकर अपनी पार्टी के पुरानी मर्दवादी सोच, संस्कृति और काम करने के ढर्रे को भी बदल सकेंगे। इससे सामाजिक, सांस्कृतिक व आर्थिक परिवर्तन का रास्ता खुल सकता है।

 

कुमुदिनी पति अखिल भारतीय प्रगितशील महिला एसोसिएशन की पूर्व महासचिव और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।

 

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press release 12 september 2021