सुप्रीम कोर्ट और सरकार में भिड़ंत शीर्षक लगाने वाले ये क्यों नहीं बताते कि मुद्दा क्या है? 

संजय कुमार सिंह संजय कुमार सिंह
ओप-एड Published On :


समलैंगिक होने का जज होने से क्या संबंध वह भी तब जब समलैंगिकता अपराध नहीं रही

लेकिन सरकार है कि 18 घंटे के लिए काम ही कम पड़ जा रहे हैं 

जजों की नियुक्ति पर सुप्रीम कोर्ट और सरकार में ठनी या सुप्रीम कोर्ट और सरकार में भिड़ंत शीर्षक लगाने वाले ये क्यों नहीं बताते कि मुद्दा क्या है? 

आज के अखबारों में एक खबर प्रमुखता से है जिसमें बताया गया है कि सुप्रीम कोर्ट ने एक समलैंगिक अधिवक्ता को केंद्र सरकार के विरोध के बावजूद बांबे हाइकोर्ट का जज बनाने की अपनी सिफारिश को दोहराया है। आम तौर पर खबरों के साथ जैसा होता है, अलग-अलग अखबारों में इसकी प्रस्तुति अलग है और मेरे पांच अखबारों से तीन में यह लीड है, हिन्दुस्तान टाइम्स में सिंगल कॉलम में है और द टेलीग्राफ का शीर्षक सबसे अलग है जो इस खबर का मुख्य मुद्दा है। सबसे पहले तो आप सभी शीर्षक देखिए

द हिन्दू 

सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम एक गे वकील को हाईकोर्ट का जज बनाने पर दृढ़ 

टाइम्स ऑफ इंडिया 

सुप्रीम कोर्ट ने रॉ के एतराज खारिज किए, हाईकोर्ट जज के लिए किरपाल का नाम फिर भेजा

इंडियन एक्सप्रेस 

सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के एतराजों का खुलासा किया : ‘समलैंगिक ….. प्रधानमंत्री की आलोचना वाले पोस्ट किए’ इसके साथ फ्लैग शीर्षक है- कॉलेजियम ने हाईकोर्ट जज के लिए वही पांच नाम फिर भेजे 

हिन्दुस्तान टाइम्स 

किरपाल के अलावा एससी कॉलेजियम दो और नामों पर दृढ़ है। 

द टेलीग्राफ 

समलैंगिक उम्मीदवार को लेकर सरकार के लिए सुप्रीम कोर्ट का पाठ  

हिन्दी में इसका सबसे आसान और मिश्रित शीर्षक हो सकता है, एक समलैंगिक वकील को हाईकोर्ट जज बनाने पर सरकार और सुप्रीम कोर्ट में ठनी। निश्चित रूप से एक रूटीन खबर की तरह निकल जाएगा। और संभव है कुछ लोगों को समलैंगिक में मजा आए और कुछ लोगों को ठनी में पर अभी मेरा मुद्दा यह नहीं है। मेरे लिए इस खबर की सबसे खास बात यह है कि क्या जज या किसी ऊंचे, प्रतिष्ठित, संवैधानिक पद पर होने के लिए यौन झुकाव महत्वपूर्ण है और नहीं है तो अब यह मुद्दा क्यों और है तो क्या नहीं लगता है कि सरकार बहुत मामूली बातों पर समय और ऊर्जा खर्च कर रही है। 

अगर यह मामूली नहीं है और आप समझते हैं या सरकार कहती है या सरकार समर्थकों की राय है कि यह महत्वपूर्ण है तो इसे पहले क्यों नहीं मुद्दा बनाया गया। पहले यह मुद्दा बनाया था कि फलाने की शादी ही नहीं हुई है, उसका कोई है ही नहीं तो वह भ्रष्टाचार किसके लिए करेगा। भले ही बाद में यह सब गलत साबित हुआ और झूठ बोलना भी मुद्दा नहीं बना तो अब जब किसी के समलैंगिक होने को संवैधानिक पद से जोड़ा जा सकता है तो संवैधानिक पद के पिछले और पुराने दावेदारों, ईमानदारों के बारे में इसकी चर्चा क्यों नहीं हुई। या सब सामान्य प्रमाणित हैं। अगर हां तो कौन करता है और उसकी मान्यता कहां से कैसे मिली। 

जाहिर है, पहले ऐसा कुछ नहीं होता था और अब किसी को नहीं बनने देना है तो अन्य बहानों या कारणों के साथ यह बहाना भी चुना गया है और निश्चित रूप से हास्यास्पद है। लेकिन उससे बड़ी बात यह है कि यौन झुकाव अगर मुद्दा है तो जो लोग शादी नहीं करते हैं (और संवैधानिक पद पर रहे हैं या हैं या भविष्य में आ सकते हैं) उनकी यौन जरूरतें कैसे पूरी होती हैं उसे सार्वजनिक किया जाए। और यह भी तय किया जाए कि इसमें क्या सामान्य है और क्या असामान्य तथा कौन संवैधानक पद के लिए क्यों उपयुक्त है या नहीं है इसे उम्मीदवारी तय करने की शर्तों में ही शामिल कर दिया जाए। अभी तक नहीं था तो आगे के लिए ही कर दिया जाए, भारत का बहुत भला होगा। कम से कम उस गिरोह से छूट मिलेगी जो अविवाहित रहने को ही योग्यता समझते और बताते हैं। शायद इसीलिए कुछ लोग शादी करके भी छिपाते हैं या शादी तोड़कर भाग लेते हैं।  

इसके बावजूद आज इस खबर की प्रस्तुति वैसी नहीं है जैसी होनी चाहिए। ठीक है कि उपशीर्षक में और हाईलाइट करके भी अखबारों ने वह सब बताया है जो अदालत ने कहा हैष लेकिन मानसिकत तो ठनी और भिड़ंत लिखने पढ़ने की है उसमें सरकार जो कर या कह रही है वह कहीं दब जा रहा है। इस लिहाज से द टेलीग्राफ में आर बालाजी की खबर पढ़ने लायक है। पेश है, गूगल अनुवाद जिसे मैंने संपादित कर सुधारा है। खबर इस प्रकार है, सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने खुले तौर पर समलैंगिक एक वरिष्ठ अधिवक्ता सौरभ किरपाल को दिल्ली (कुछ अखबारों में बांबे भी है) उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में पदोन्नत करने की अपनी सिफारिश को दोहराया है। “उनका (यौन) झुकाव एक ऐसा मामला है जिसका उन्हें श्रेय जाता है … उन्होंने अपने इस झुकाव को छिपाया नहीं है। और यह गुप्त नहीं हैं।”

कॉलेजियम ने केंद्र की इस दलील को भी खारिज कर दिया कि किरपाल के साथी के विदेशी नागरिक होने के कारण वह अयोग्य हैं। कॉलेजियम ने 18 जनवरी के एक प्रस्ताव में कहा, “यह मानने का कोई कारण नहीं है कि उम्मीदवार का साथी, जो स्विस नागरिक है, हमारे देश के लिए शत्रुतापूर्ण व्यवहार करेगा, क्योंकि उसका मूल देश एक मित्र राष्ट्र है।” यह प्रस्ताव औपचारिक रूप से गुरुवार को नई दिल्ली में जारी किया गया। 

कॉलेजियम, में मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस संजय किशन कौल और केएम जोसेफ भी शामिल हैं। कॉलेजियम ने आगे कहा, “उच्च पदों पर कई लोग और इनमें संवैधानिक पदों पर मौजूदा व पूर्व में रहे लोग शामिल हैं जिनके जीनवसाथी विदेशी नागरिक रहे हैं।” अगर किरपाल की उम्मीदवारी को मंजूरी मिल जाती है, तो वह देश में उच्च न्यायालय के न्यायाधीश नियुक्त होने वाले पहले समलैंगिक कार्यकर्ता होंगे। 

आठ-पैराग्राफ, 600 शब्दों का यह प्रस्ताव दो या तीन पैराग्राफ के ऐसे प्रस्ताव  की तुलना में काफी लंबा है। इसमें इस बात पर जोर दिया गया है कि “प्रत्येक व्यक्ति यौन झुकाव के आधार पर अपनी गरिमा और व्यक्तित्व बनाए रखने का हकदार है”। यह “समावेश और विविधता” के मूल्यों पर भी बल देता है

मूल सिफारिश पांच साल पहले दिल्ली हाईकोर्ट के कॉलेजियम से आई थी, लेकिन औपचारिक रूप से इसे 11 नवंबर, 2021 को तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना की अध्यक्षता वाले शीर्ष अदालत के कॉलेजियम द्वारा अनुमोदित किया गया था। केंद्र ने इसे पिछले नवंबर में पुनर्विचार के लिए वापस भेज दिया था – एक अनुरोध जिसे अब वर्तमान कॉलेजियम ने खारिज कर दिया है। 

न्यायाधीशों की नियुक्तियों और तबादलों को नियंत्रित करने वाली प्रक्रिया का ज्ञापन कहता है कि अगर कॉलेजियम किसी सिफारिश को दोहराता है, तो सरकार को इसे मंजूरी देनी होगी। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में एनडीए सरकार और कॉलेजियम के बीच लगातार टकराव रहा है, केंद्र ने बार-बार दोहराने के बाद भी सिफारिशों को रोक दिया है।

प्रस्ताव के अंश: “कानून मंत्री के दिनांक 01 अप्रैल 2021 के पत्र में कहा गया है कि ‘समलैंगिकता भारत में अब अपराध नहीं है, फिर भी समलैंगिक विवाह अभी भी भारत में संहिताबद्ध वैधानिक कानून या असंहिताबद्ध व्यक्तिगत कानून में मान्यता से वंचित है। इसके अलावा, यह भी कहा गया है कि उम्मीदवार की ‘उत्साही भागीदारी और समलैंगिक अधिकारों के लिए भावुक लगाव पूर्वग्रह और पूर्वाग्रह की संभावना से इंकार नहीं करेगा। 

“…इस अदालत की संविधान पीठ के निर्णयों ने संवैधानिक स्थिति स्थापित की है कि प्रत्येक व्यक्ति यौन अभिविन्यास के आधार पर अपनी गरिमा और व्यक्तित्व बनाए रखने का हकदार है। तथ्य यह है कि श्री सौरभ किरपाल अपने यौन झिकाव के बारे में खुले हैं, और यह एक ऐसा मामला है जिसका श्रेय उन्हें है।  जजशिप के लिए एक संभावित उम्मीदवार के रूप में, वह अपने झुकाव और प्राथमिकताओं के बारे में गुप्त नहीं रहे हैं।

“उम्मीदवार द्वारा समर्थित संवैधानिक रूप से मान्यता प्राप्त अधिकारों को ध्यान में रखते हुए, उस आधार पर उसकी उम्मीदवारी को खारिज करना सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित संवैधानिक सिद्धांतों के स्पष्ट रूप से विपरीत होगा। श्री सौरभ किरपाल के पास योग्यता, सत्यनिष्ठा और मेधा है। उनकी नियुक्ति दिल्ली उच्च न्यायालय की पीठ के लिए मूल्य जोड़ेगी और समावेश और विविधता प्रदान करेगी। उनका आचरण और व्यवहार शंका से परे रहा है। यौन झुकाव और स्विस साथी वाले किरपाल भारत के पूर्व प्रधान न्यायाधीश बीएन कृपाल और पूर्व अटॉर्नी-जनरल मुकुल रोहतगी के जूनियर रहे हैं। उनके पास वाणिज्यिक कानून का विशाल ज्ञान है और एनएजेड फाउंडेशन के एक सक्रिय सदस्य है।  एलजीबीटी अधिकारों के लिए एक दशक लंबी कानूनी लड़ाई सफलतापूर्वक लड़ी, जिसकी परिणति शीर्ष अदालत ने सितंबर 2018 में सहमति से वयस्कों के बीच समलैंगिक यौन संबंध को गैर-अपराधीकरण करने के रूप में की।

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।