जो गाँधी ने नहीं किया…..!

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आशीष कुमार

 

गांधी और सावरकर पर भ्रमित करने वाले बयान के लिए मोदी सरकार में रक्षा मंत्री और संघ परिवार के महत्त्वपूर्ण सदस्य राजनाथ सिंह का शुक्रिया |

मंत्री जी का कहना है की हिन्दू महासभा के अध्यक्ष विनायक दामोदर सावरकर ने महात्मा गांधी के कहने पर अंग्रेजों से माफ़ी मांगी थी | जो इतिहास जानते हैं उन्हें मालूम है, की यह कथन अर्धसत्य है – असत्य से ज्यादा खतरनाक | उतना ही खरतनाक है जितना हिन्दुतवा के नाम पर सांप्रदायिक ज़हर | सत्य तो गांधी के हिन्दु धर्म की तरह है जो लोगों को प्रेम, शांति और बंधुत्व से एक अकाट्य बंधन में जोड़ता है |

पर फिर भी मंत्री जी का साधुवाद क्यूंकि इसी बहाने जनता को यह बात पता चल गया की हिंदुत्व के पुरोधा और खुद को `वीर’ की उपाधि से स्वयं ही सुशोभित करने वाले भी अपने बचाव के लिए बापू की शरण में आये थे और भगवान राम की शिक्षा का अनुसरण करते हुए, महात्मा ने `शरणागत’ की पैरवी की |  इसके बाद यह उम्मीद की जा सकती है की अब `अंधभक्त’, गांधी और सावरकर की  तुलना नहीं करेंगे |

वास्तव में, सावरकर की तुलना गांधी से नहीं की जा सकती, क्योंकि सावरकर की जीवन यात्रा एक बाग़ी से ब्रिटिश वफादार की है और गांधी की वफादार से बाग़ी की| सावरकर जीवन भर सांप्रदायिक रहे और गांधी शांतिदूत | भारतीय संविधान अंधभक्तों को सावरकर का महिमामंडन करने का अधिकार देता है, पर अगर वे सावरकर की तुलना में गांधी को नीचा दिखाने चाहते हैं, तो याद रखें जो गांधी ने नहीं किया |

१: गांधी ने अच्छे बुरे कई प्रयोग किये, पर उन्हें खुद ही सार्वजनिक किया |

२: गांधी ने बहुत से विषयों में बहुत कुछ लिखा, पर अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बन कर खुद ही अपने नाम के आगे महात्मा और राष्ट्रपिता नहीं लगाया |

३: कुछ लोगों के मुताबिक गाँधी ने भगत सिंह की फांसी रुकवाने के लिए जितना अपेक्षित था संभवतः उतना प्रयास नहीं किया, जिसके लिए उनकी भर्त्सना भी हुई, पर शहीद-ए-आज़म की शहादत पर उन्होंने मुर्दा चुप्पी नहीं साधी। भगत सिंह की शहादत के बाद कांग्रेस के अधिवेशन में उन्होंने शोक प्रस्ताव पेश किया और भगत सिंह की बहादुरी और साहस को सलाम किया।

४: गाँधी ने पहले नेताजी बोस का समर्थन कर कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया और दूसरे कार्यकाल के लिए चुनाव में उनका विरोध भी किया, यहाँ तक की बोस को निर्वचित होने के बाद भी पद और कांग्रेस छोड़ना पड़ा, पर कभी हिंदुयों को ब्रिटिश फौज में भर्ती हो कर आज़ाद हिन्द फौज के खिलाफ लड़ने का अभियान नहीं चलाया जैसा कि सावरकर ने किया। बोस और गाँधी का मतभेद हिंसा और अहिंसा को लेकर था। सुभाष बोस ने ही गाँधी को राष्ट्रपिता की उपाधि दी थी और कहा था कि भारत पहुँचने पर वे गाँधी जी को अपनी विजय समर्पित करेंगे।

५: गांधी जेल मे पंखा, तकिया औऱ लिखने पढ़ने का सामान रखने की इज़ाज़त ब्रिटिश हुक्मराओं से हो सकता है मिल गयी हो, पर खुद को ब्रितानिया `माई-बाप’ का `भटका हुआ पुत्र’ नहीं कहा और न ही कभी अंग्रेज सरकार  से पेंशन ली |

६: गांधी ने दिल पर पत्थर रख कर बटवारा की सहमति तो दे दी, पर उन्होंने ने दो राष्ट्र के सिद्धांत को कभी स्वीकार नहीं किया |

७: गाँधी पर मुसलमानों के तुष्टिकरण का आरोप लगा, पर उन्होंने कभी गौ माता को अपूजनीय नहीं कहा |

८:  गांधी के “सत्य और अहिंसा” का इस्तेमाल दुनिया भर में  सफलतापूर्वक लोकतान्त्रिक आंदोलनों में किया गया और किया जा रहा है – भले ही  भारत में कुछ लोगों ने आरोप लगाया की इस सिद्धांत ने हिन्दुओं को कायर बना दिया –  पर उन्होंने कभी कार्यकर्ताओं को आगे कर आंदोलन नहीं किया और न ही किसी को अत्याचार और अन्याय के खिलाफ चुप रहने को कहा | छुप के वार तो कभी नहीं किया |  वे अहिंसा को कायरता नहीं बहादुरी का पैमाना मानते थे।

९: गांधी पर ढोंगी महात्मा होने का आरोप लगा, पर उन्होंने कभी राम नाम का इस्तेमाल सांप्रदायिक दंगे करवाने और भारतीय समाज को बांटने वाले हथियार के रूप में नहीं किया |

और सबसे महत्वपूर्ण बात

१०: गाँधी के वैचारिक मतभेद कई नेताओं से रहे, पर बापू ने कभी अपने विरोधियों पर जुबानी हिंसा भी नहीं की। सावरकर की तरह किसी की हत्या करवाने की बात तो सोच भी नहीं सकते थे।

 

आशीष कुमार स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।