स्पर्श और दृष्टि…जाति और जेंडर का साझा दुख, क्या हम समझने को तैयार हैं? (महिला दिवस विशेष)

सौम्या गुप्ता सौम्या गुप्ता
ओप-एड Published On :


मीडिया विजिल की पूर्व असिस्टेंट एडिटर, सौम्या गुप्ता की ये टिप्पणी हम महिला दिवस पर विशेष रूप से प्रकाशित कर रहे हैं। ये टिप्पणी एक ऐसे राजनैतिक समय में बेहद अहम है, जब सामाजिक न्याय को धर्म के तराजू पर तौल कर, बेदाम कर दिया जा रहा है। इस टिप्पणी से न केवल लेखिका की गहन अंतर्दृष्टि, बल्कि जाति और जेंडर के भेद के पीछे की साझा नज़र भी समझी जा सकती है। – संपादक

मुझसे ये सवाल कई बार पूछा जाता रहा है। आप जाति को समझने की कोशिश में क्यों लगी हैं? क्यों आपकी बातचीत में जाति ही, मुख्य मुद्दा बन जाती है? क्यों आप हर बात को जाति से जोड़ देती हैं?
तो मेरा उत्तर, बर्दाश्त करने की कोशिश करें..
मुझे लगता है कि स्पर्श और दृष्टि यानी कि छूना और देखना, जाति और जेंडर दोनों के विमर्श का केंद्रीय भाग हैं। जिस तरह एक स्त्री, स्पर्श को समझना सीखती है, वह एक पुरुष की तुलना में काफ़ी अलग और हिंसक है। इसके साथ ही, हम महिलाएं, कुदरती तौर पर शिकारी (प्रीडेटरी) निगाहों या भंगिमाओं को लेकर सचेत या प्रशिक्षित हो जाती हैं। हमारी बीच की अधिकतर महिलाओं के व्यस्क होने तक के कई ऐसे स्पर्श के अनुभव हैं, जो भुलाए नहीं जा सकते। मुझे नहीं पता लेकिन इस विचार ने मुझे जातीय भेदभाव के बारे में, अस्वीकारणीय स्पर्श, द्वेषपूर्ण निगाहों, अवांछित पहल, नीचा दिखाने वाली शारीरिक भंगिमाओं और अलगाव करने वाली भाषा को लेकर सोचने में मदद की है।
जाति और जेंडर का विमर्श, हमेशा समानांतर ही चलता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि ज़्यादातर बौद्धिक बहुजन पुरुष भी इसकी आसानी से उपेक्षा कर देते हैं। फिर भी, इस अशुद्धि के बारे में सोचिए, जो आपके मन में आती है – गंदगी, मासिक स्राव, मल-मूत्र, वीर्य, पसीना, मांस, शरीर की दुर्गंध, शवों की गंध इत्यादि। इनमें से सभी का मूल या संबंध – या तो बहुजनों के ऊपर थोपे गए पेशों से आता है, या स्त्रियों के शरीर से या फिर उन शरीरों से जो वे काम करते हैं, जिनको कमतर समझा जाता है।
मल-मूत्र, मैला ढोने से, डोम के लिए शव, कसाई और चर्मकारों के लिए शव, मज़दूरों के लिए पसीना वगैरह। इसने मुझे हमेशा जाति के बारे में सोचने में मदद की है, क्योंकि मुझे लगता है कि स्पर्श और दृष्टि – जाति के मामले में भी वैसे ही अहम हैं, जैसे कि जेंडर के मामले में। एक बहुजन बच्चे को, होश संभालते ही – वो जगहें समझ में आने लगती हैं, जहां उसकी स्वीकार्यता या स्वागत नहीं होगा, उसे अपनी ‘हद’ पहचाननी होती है, उसे समझना होता है कि कई सारी चीज़ों में उसके अधिकार बहुत सीमित हैं और यक़ीन मानिए, तमाम औरतों को भी इसी मनोस्थिति से होकर गुज़रना होता है।
एक बच्ची के तौर पर, मुझे मेरे वृहत्तर परिवार द्वारा कई बार, मासिक स्राव के दौरान कुछ ‘विशिष्ट’ जगहों पर जाने से रोका गया। मेरी कई मित्रों को विवाह के बाद, मासिक धर्म के ही दौरान, अलग बर्तन इस्तेमाल करने को कहा गया। हमारे अंतः वस्त्रों पर भी इसी वजह से निगाह रखी जाती थी कि वे गीले तो नहीं। मुझे पता है कि आप सबके लिए ये सुनना, काफी अश्लील हो सकता है पर यही सच है। मैं जाति के बारे में मुश्किल सवाल क्यों पूछना चाहती हूं – क्योंकि मैं शरीर के बारे में मुश्किल सवाल पूछना चाहती हूं।
सवर्ण महिलाओं, मैं आपसे इस स्पर्श और दृष्टि के लेंस से जाति को देखने का अनुरोध करना चाहती हूं। कैसा महसूस होता है, जब कोई पुरुष आपको मासिक धर्म के दौरान मंदिर में प्रवेश करने से रोके? सोचिए कि जब आपके शरीर को केवल किसी विशेष अवधि के दौरान ही निषिद्ध किया जाता है, तो करोड़ों लोग हैं, जिनका कभी भी उस जगह स्वागत नहीं किया गया। सोचिए उस समय के बारे में, जब किसी की ग़लत निगाह ने आपको लगभग नग्न महसूस करवाया था – अब उनके बारे में सोचिए, जिनको सिर्फ मनुष्य होने का अधिकार मांग लेने पर नंगा कर के, गांव में घुमाया जाता था।
याद कीजिए वो समय, जब आपके मासिक स्राव की गंध के कारण हेय व्यवहार किया गया, अब सोचिए कि एक जाहिल विधायक, दुनिया की सबसे ताक़तवर महिलाओं में से एक (मायावती) को कहता है, कि उससे दलितों वाली गंध आती है। मुझे नहीं फ़र्क़ पड़ता है कि आप इन सवालों से कितनी तक़लीफ़ महसूस करती हैं – पर ये हमारे उस बर्ताव से कम तक़लीफ़देह है, जो हम हर रोज़, अपने ही साथ और आसपास के मनुष्यों के साथ जाति के नाम पर करते रहे हैं।
उपसंहार : आपको समझना होगा कि ज़्यादातर महिलाओं और शायद दलितों के लिए भी – अछूत होना समस्या है। जब मेहनतकश के लिए इमारतों में अलग लिफ्ट होती है – काम के लंबे घंटे नहीं, ये तिरस्कार है – जो कि निर्मम होता है। स्पर्श और दृष्टि – वो इकलौता तरीका, जिससे हम अपने शरीर और अस्तित्व को समझते हैं – वो हिस्सा, जिसे शुद्धता और पवित्रता के नाम पर शोषित किया जाता है। आगे बढ़िए और इन बाधाओं को ध्वस्त कर दीजिए।
(सौम्या गुप्ता, मीडिया विजिल की पूर्व असिस्टेंट एडिटर-डेटा साइंटिस्ट हैं। इंजीनियरिंग के बाद, शिकागो विश्वविद्यालय से एंथ्रोपोलॉजी में मास्टर्स किया है और संप्रति पत्रकारिता और सामाजिक रिसर्च-विश्लेषण कर रही हैं।)