सीपीएम को सुप्रीम कोर्ट की डांट – एक साधारण नागरिक के मन में आए कुछ साधारण सवाल..

कपिल शर्मा कपिल शर्मा
ओप-एड Published On :


शाहीन बाग में बुलडोजर पॉलिटिक्स पर सुप्रीमकोर्ट पहुंची माकपा यानी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी – मार्क्सवादी जो इस मामले में एक पार्टी थी, को सुप्रीम कोर्ट ने भारी फटकार लगाई। सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि क्योंकि वो पीड़ित पक्ष नहीं हैं इसलिए उन्हे इस मामले को अदालत में नहीं ले जाना चाहिए। हालांकि कुछ बातें सरकारी पक्ष के वकील को भी कही गईं, जिनमें ज्यादातर ये था कि आपको (सरकार को) ये तोड़-फोड़ नियमों के हिसाब से करनी चाहिए। जिसके जवाब में सरकार की ओर से, एडिशनल सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि, “वे नियमों के हिसाब से ही कार्यवाही कर रहे हैं, लेकिन विपक्ष इसे तोड-मोड़ कर इस पर राजनीति कर रहा है।”

 

अब इस मामले को एक साधारण नागरिक की तरह से देखा जाए तो कुछ बातें सवाल बन कर सामने आती हैं।

 

1. राजनीतिक पार्टी राजनीति नहीं करेगी तो क्या करेगी?

ये सवाल तुषार मेहता से कम और सत्ता से, जो लगभग हर मुद्दे पर विपक्ष पर राजनीति करने का आरोप लगाते हुए कहती है कि इस विषय पर राजनीति नहीं की जानी चाहिए – से ज़्यादा है। सवाल ये उठता है कि क्या कोई ऐसी विषय सूची बनाई गई है, जिस पर राजनीति हो सकती है और नहीं हो सकती? किसी भी राजनीतिक दल का, जिसका अर्थ उसके नाम में ही निहित है, मुख्य काम राजनीति करना है। चुनाव, रैलियां, भाषण व अन्य कार्य इसी राजनीति का हिस्सा हैं। किसी भी राजनीतिक पार्टी के कार्यों में एक महत्वपूर्ण कार्य जनता के साथ मिलकर, जनता के पक्ष में हर वो कार्य करना है, जो सरकार की आलोचना में हो। यही तो लोकतंत्र की खूबसूरती है। इसमें रैलियां करना, प्रदर्शन करना, जनता के साथ कोर्ट जाकर न्यायिक तरीकों से जनता और सरकार को आमने-सामने लाना भी राजनीतिक पार्टी का राजनीतिक कार्य है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट किसी भी राजनीतिक पार्टी को ये कैसे कह सकता है, “क्योंकि वो पीड़ित नहीं है इसलिए उसे इन मामलों को अदालत में नहीं लाना चाहिए।” एक साधारण नागरिक के नाते मेरा मासूम सवाल ये है कि क्या अब सुप्रीम कोर्ट ये भी फैसला करेगा कि एक राजनीतिक पार्टी को कब न्यायालय में जाना चाहिए और कब नहीं?

 

2. कौन सा मुद्दा राजनीतिक नहीं होता?

आपने राजनीति विज्ञान पढ़ा हो या नहीं, इस बात पर यकीन कर लीजिए कि हर मुद्दा चाहे वो कितना भी ग़ैर राजनीतिक लगे राजनीतिक होता है। क्योंकि हर मुद्दा राजनीति से प्रेरित होता है। ऐसे में हर राजनीतिक पार्टी, हर मुद्दे पर विचार – विमर्श करती है, जनता के पास जाती है, और सरकार से लोहा लेती है। यहां किसी भी मुद्दे को अराजनीतिक बताना या किसी से ये कहना कि किसी खास मुद्दे पर राजनीति नहीं की जानी चाहिए – दरअसल एक खास किस्म की राजनीति ही है। सुप्रीमकोर्ट जिसे एक तरह से संविधान का कस्टोडियन समझा जाता है, राजनीति की इस सामान्य व्याख्या को ही अपना ले तो बेहतर हो। दूसरी तरफ सत्ताधीश पार्टियों को ये कहने का मौका नहीं मिलेगा कि किसी खास मुद्दे पर राजनीति नहीं की जानी चाहिए। ऐसे में अगर बलात्कार या देशद्रोह जैसे संवेदनषील मुद्दे भी हों, तो वे भी बिल्कुल पर राजनीतिक मुद्दे हैं, और उन्हे राजनीतिक दृष्टि से ना देखा जाए तो ये लोकतंत्र के साथ गद्दारी ही होगी।

3. राजनीतिक पार्टियां हमेशा पीड़ित होती हैं

सुप्रीम कोर्ट का ये कहना कि आप पीड़ित नहीं है, इस नज़रिए से अनुचित लगता है कि राजनीतिक पार्टियां कोई व्यक्ति विशेष नहीं होती और इसलिए उनका व्यक्तियों की तरह पीड़ित होना संभव ही नहीं है। लेकिन जब जनता या समुदाय का कोई हिस्सा पीड़ित होता है, और कोई भी राजनीति पार्टी उस मुद्दे को उठाती है, तो वो उसे अपनी पीड़ा समझ कर ही उठाती है। क्या सुप्रीमकोर्ट इस तरह के वक्तव्य देकर राजनीतिक पार्टियों की भूमिका और कार्यक्षेत्र को सीमित नही कर रहा है? और क्या ये सुप्रीम कोर्ट के अधिकार क्षेत्र की बात है भी या नहीं?

4. पीड़ितों का मुद्दा उठाने पर जुर्माना

मुझे याद आता है कि उत्तराखंड के जोशीमठ क्षेत्र में अतुल सती एवं अन्य राजनीतिक कार्यकर्ताओं द्वारा पीड़ित गांव वालों के मुद्दे को न्यायालय ले जाने पर उन्हे ना सिर्फ फटकार पड़ी थी, बल्कि कोर्ट ने उन पर जुर्माना भी लगा दिया था। अदालत ने कहा था कि वे राजनीतिक लोग हैं, और उन्हें इस मामले को न्यायलय में ले जाने का कोई अधिकार नहीं है। क्या ये न्यायालय द्वारा एक्टिविस्टों को खामोश करने की कोशिश नहीं लगती? एक तरफ राजनीतिक कार्यकर्ताओं को संविधान प्रदत्त न्यायिक उपचारों का अधिकार मिला है, दूसरी तरफ न्यायालय ये कह दे कि वे किसी भी मामले को, किसी भी वजह से न्यायालय के सामने नहीं रख सकते। क्या ये मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं है?

5. ये कहते हुए, अदालत क्या संदेश दे रही है?

क्या अपने इस वक्तव्य से न्यायालय ये संदेश देना चाहता है कि यदि आप कोई अपराध होते हुए देखें, तो ये याद रखें कि क्योंकि अपराध आपके साथ नहीं हो रहा है, यानी आप पीड़ित नहीं है; इसलिए आपके पास इस अपराध के विषय में किसी तरह के न्यायिक उपचार का अधिकार नहीं है? क्योंकि यदि आप न्यायालय गए तो आप पर कोर्ट राजनीति करने का इल्जाम लगा सकता है, आपको फटकार सकता है। अपने पास बहुत सारे मामले-मुकदमे होने की दुहाई दे सकता है, आप पर जुर्माना लगा सकता है। इसलिए आपको सिर्फ अपने काम से काम रखना चाहिए। सरकार जो भी करे, उसे करते देना चाहिए और न्यायालय से न्याय की उम्मीद छोड़ देनी चाहिए।

ख़ैर ये तो कुछ सवाल थे, जो एक साधारण नागरिक की तरह मेरे मन में आए। हो सकता है कि इस लेख को ही न्यायालय की अवमानना मानते हुए मुझे जेल भेजा जाए या मुझ पर जुर्माना लगाया जाए। क्योंकि मैं माकपा का सदस्य नहीं हूं तो हो सकता है कि सुप्रीम कोर्ट यही कह दे कि क्योंकि ये डांट सीधे मुझे नहीं पड़ी थी, इसलिए मुझे इस विषय में किसी भी तरह के सवाल करने का कोई अधिकार नहीं था, और एक नागरिक के नाते मैं ने अपने अधिकारों का उल्लंघन किया है और इसलिए मुझे जुर्माना या जेल की सज़ा दी जा सकती है। 

बाकी सभी सवाल एक तरफ, सबसे बड़ा सवाल हमारे सामने खड़ा है वो ये कि क्या सुप्रीम कोर्ट से न्याय की आशा क्या अब बेमानी हो चुकी है? और यकीन मानिए इस जनता को आप फांसी भी चढ़ा देंगे तो ये सवाल वो लगातार पूछती ही रहेगी।

 

लेखक कपिल शर्मा, वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी-फिल्मकार और राजनैतिक एक्टिविस्ट हैं।