जब पेरियार से मिले विनोबा…

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ओमप्रकाश कश्यप

प्रथम दृष्टया उनके बीच कोई साम्य नहीं था। पहला गांधी और गांधीवाद का कटु आलोचक था, दूसरा उनके प्रति पूरी तरह समर्पित। पहले को लेकर गांधी लगभग मौन साधे रहे। दूसरे को उन्होंने प्रथम सत्याग्रही का गौरव प्रदान किया था। पहले की निगाह में धर्म मनुष्यता का दुश्मन, पुरोहितों का प्रपंच था। दूसरा अध्यात्म को जीवनमूल्य की तरह देखता था। इस कारण उसे गांधी का आध्यात्मिक उत्तराधिकारी भी कहा जाता है। पहले ने वर्णव्यवस्था का समर्थन करने वाली गीता की आलोचना की थी, दूसरा गीता कर्म-सिद्धांत को आदर्श मानता था। बावजूद इसके दोनों के बीच कुछ समानताएं भी थीं। जैसे कि पहले ने जातिभेद को मिटाने के लिए अपने नाम के साथ जाति-सूचक शब्द लगाने से इन्कार कर दिया था। जबकि दूसरे ने अपने यज्ञोपवीत से हमेशा-हमेशा के लिए छुटकारा पा लिया था। दोनों का विज्ञान और वैज्ञानिक सोच पर भरोसा था। इसके लिए पहले ने दूसरे की प्रशंसा भी की थी। उनमें से पहले का नाम था- ई. वी. रामासामी पेरियार, जिन्हें लोग प्यार से ‘पेरियार’ कहते थे। दूसरे थे- विनायक नरहरि भावे, जिन्हें गांधी ने विनोबा नाम दिया था। अलग-अलग नाव के सवार होने के बावजूद दोनों एक-दूसरे के प्रशंसक थे। विनोबा की प्रशंसा करते हुए ‘विदुथलाई’ के संपादकीय में लिखा था—

‘उन सभी नेताओं में जो उत्तर से तमिलनाडु आते रहे हैं, यहां कोई भी विनोबा भावे की तरह महीनों तक नहीं ठहरा है। क्यों उत्तर भारत का एक भी नेता ऐसा नहीं है, जिसने तमिलनाडु की सम्यक यात्रा हेतु यहां ठहरने का फैसला किया हो? अतीत में गांधी और पटेल जैसे बड़े नेता; तथा पंडित नेहरू और राजेंद्र प्रसाद जैसे आजकल के नेता- हमेशा हवाईजहाज से तमिलनाडु आते रहे हैं। यहां एक या दो दिन रुककर वे वापस उड़ जाते हैं।

यह उनकी कमी नहीं है। वे सिर्फ इतना ही कर सकते हैं। इसलिए वे तमिल संस्कृति,  तमिलों तथा उनकी इच्छाओं-आकांक्षाओं के बारे में झूठ एवं मनगढंत बातें फैलाते रहते हैं। जब पंडित नेहरू यहां आए तो वे केवल गायिका एम. एस. सुब्बुलक्ष्मी से मिलने का समय निकाल पाए थे। उनके पास न तो किसी मंदिर के दर्शन का समय था, न झुग्गी बस्ती का मुआयना करने का। यहां तक कि किसी अग्रहारम(ब्राह्मण-आवास) को देखने की फुर्सत भी उन्हें नहीं थी। लेकिन विनोबा को यहां की कम से कम कुछ सचाइयों से रू-ब-रू होने का अवसर मिला है। उन सचाइयों से जिन्हें दूसरों ने नजंरदाज कर दिया था। यह प्रशंसनीय है कि उन्होंने इसकी खुलकर चर्चा भी की है।’

पेरियार ब्राह्मणवाद के आलोचक थे। उनके संघर्ष का बड़ा हिस्सा जाति और धर्म के नाम पर थोपी गई रूढ़ियों और आडंबरों के उन्मूलन को समर्पित था। इसके लिए वे ब्राह्मणों को जिम्मेदार मानते थे। इस बारे में विनोबा का मत था—

‘आजकल के ब्राह्मण सच्चे ब्राह्मण नहीं हैं। वे वैसे ही कृत्रिम और बनावटी हैं, जैसे मिट्टी से बना, रंग-रोगन किया हुआ केला।’

पेरियार और विनोबा की मुलाकात 18 जनवरी 1957 को हुई थी। पेरियार के अनुसार वह मुलाकात करीब एक घंटा चली थी। उससे पहले 1 नवंबर 1956 को ‘विदुथलाई’ के एक संपादकीय में विनोबा की प्रशंसा की गई थी। उसके अनुसार विनोबा ने कहा था कि- ‘समाज सेवा में लगा नास्तिक व्यक्ति भी उस आस्तिक से श्रेष्ठतर है, जो समाज सेवा से कतराता है।’

संपादकीय के अनुसार विनोबा ने राजगापोलाचारी पर यह कहकर कटाक्ष किया था कि, ‘किसी को भी ईश्वर की रक्षा करने का नाटक करने की जरूरत नहीं है। ईश्वर अपनी रक्षा करने में खुद सक्षम है।’ यही नहीं विनोबा ने जाति-प्रथा के उन्मूलन के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को भी दोहराया था। मूर्तिपूजा की आलोचना भी की थी-

‘पत्थर की मूर्ति का दुग्धाभिषेक करना महापाप है। उससे अच्छा है कि उस दूध को बच्चों को पिलाने के काम में लाया जाए….मंदिरों को जमीन दान में देने का अभिप्राय है, मंदिरों को जमींदार बना देना।’

संपादकीय में बताया गया था कि विनोबा रामायण को काल्पनिक कहानी मानते थे। मानते थे कि उसमें अनेक त्रुटियां तथा विरोधाभास हैं। कोई भी व्यक्ति अपनी रुचि के अनुसार उसमें जैसा चाहे वैसा परिवर्तन कर सकता है। यह सब बातें पेरियार आत्मसम्मान आंदोलन के सिद्धांतों से मेल खाती थीं। इसलिए विनोबा की प्रशंसा करते हुए संपादकीय में लिखा था—

‘एक मराठी ब्राह्मण ने अपने जाति-सूचक चिह्न जनेऊ को दूर कर दिया है। वे ऐसे प्रचार में लगे हैं जो द्राविड़ भावनाओं को ऊर्जस्वित करता है। जबसे आर्य अखबारों को इस बारे में पता चला है, उन्होंने विनोबा की प्रदेश यात्रा की खबरों तथा उनकी बयानों का बहिष्कार करना शुरू कर दिया है। पहले एक भी दिन ऐसा नहीं बीतता था जब उनकी तस्वीर अखबारों में न छपती हो। लेकिन आज यदि कोई उनके ठिकाने के बारे में जानना चाहे तो उसे कांग्रेस समिति के कार्यालय जाकर पता करना होगा।’

संपादकीय के अनुसार ब्राह्मणवादी मीडिया का यह रवैया अनपेक्षित नहीं था—

‘जो भी व्यक्ति आर्यों के प्रभुत्व तथा उनके एकाधिकारवाद को चुनौती देता है, उसे इसी तरह उनकी उपेक्षा का शिकार बनना पड़ता है। क्या उन्होंने नंदनार तथा वेदालूर के रामालिंगा वल्लार को आग में झोंककर नहीं जलाया था? क्या उन्होंने गोली मारकर गांधी की हत्या नहीं की है? बावजूद इसके विनोबा में इतना साहस और प्रतिबद्धता है कि जैसा वे देखते हैं वैसी ही उसपर प्रतिक्रिया देते हैं। इसके लिए हम उनकी सराहना करते हैं।’

भूदान यात्रा के दौरान विनोबा भावे ने छह महीने तमिल नाडु में बिताए थे। वे पेरियार के कार्यों से बेहद प्रभावित थे। 29 अक्टूबर 1956 को पलायमकोट्टई में भाषण देते समय पेरियार की सार्वजनिक प्रशंसा कर, उन्होंने अपने समर्थकों और विरोधियों को चौंका दिया था—

‘मैं अंधविश्वास तथा जड़ और आधारहीन परंपराओं के विरुद्ध संघर्ष में पेरियार के साथ हूं। मैं खुद भी उसी दिशा में काम कर रहा हूं। मैं लोगों को समझा रहा हूं कि पत्थर की मूर्तियों को पूजने में भक्ति नहीं है। असली भक्ति तो गरीब की सेवा करने में है।’

इसपर विनोबा की प्रशंसा करते हुए ‘विदुथलाई’ ने लिखा था—

‘विनोबा एकमात्र कांग्रेसी नेता हैं जो मूर्तिपूजा को अंधविश्वास मानते हैं। इसलिए कि वे किसी राजनीतिक अथवा लाभ के पद पर नहीं है। यहां तक कि नेहरू भी इतने बेबाक नहीं हो सकते, वे पदलोलुप हैं।

पेरियार के बारे में विनोबा का कहना था विनोबा कभी किसी पद के मोह में नहीं पड़े। न उन्होंने सत्ता के संरक्षण को स्वीकार किया है। इस कारण उनमें अपने विचारों को साफ-साफ और निर्भीक रूप से व्यक्त करने की योग्यता है। संपादकीय में आगे कहा गया था कि वे सभी परजीवी नेता, जिन्हें कभी पेरियार ने जमीन दी थी, वे आर्यो के देवताओं, उनके धर्म अथवा स्वयं आर्यों के विरुद्ध मुंह खोलने से कतराते हैं। जो कभी आर्यों के विरुद्ध आग उगला करते थे, आजकल उनके तलवे चाटने वाले बन गए हैं, इसलिए कि वे वोटों के लालची हैं।

हालांकि विनोबा ने मूर्ति पूजा का खंडन किया था, किंतु वे मूर्तियों को तोड़ने वाले आंदोलन से सहमत नहीं थे। वे मानते थे कि लोगों के अज्ञान को सकारात्मक और बुद्धिवादी आंदोलनों के माध्यम से दूर किया जाना चाहिए। विनोबा के कथन पर प्रतिक्रिया देते हुए संपादकीय में लिखा था—

‘हमने विनोबा के सामने रखा कि हम पिछले तीस वर्षों से गहन प्रचार के बाद ही गणेश की मूर्तियों को तोड़ने तथा राम की चित्रों को जलाने जैसे कदम उठा रहे हैं। इनका उद्देश्य किसी भी तरह से श्रद्धालुओं की आस्था को ठेस पहुंचाना नहीं है। बल्कि लोगों को यह दिखाना है कि मूर्तियों के तोड़ने अथवा तस्वीरों के दहन का ईश्वर पर कोई असर नहीं पड़ता, क्योंकि मूर्तियां और चित्र भगवान नहीं हैं।’

संपादकीय में विनोबा की दीपावली से जुड़े मिथ पर टिप्पणी का भी उल्लेख था। तदनुसार विनोबा ने एक बार कहा था कि कृष्ण द्वारा नरकासुर का बध महज एक मिथकीय परिकल्पना है; तथा उजाले की अंधेरे पर जीत महज एक काव्यात्मक प्रस्तुति है—

‘हम विनोबा के इस साहसपूर्ण स्वीकृति के लिए प्रशंसा करते हैं कि दीपावली से जुड़ी कहानी महज एक कल्पना है। क्या तमिलनाडु में एक भी ब्राह्मण है जो इतना स्पष्ट बोलने का साहस रखता हो? राजगोपालाचारी से लेकर मंदिर के पुजारी तक सभी पेरियार के शब्दों की खुलेआम निंदा करते हैं। क्या उन सभी को सुधारा जा सकता है….हम केवल यह जानना चाहते हैं कि विनोबा के इस कथन के बावजूद क्या गरीबों को आतिशबाजी, शराब और अतिभोजन आदि पर अपना धन बरबाद करना चाहिए? क्या उन्हें रोका नहीं जाना चाहिए? दुनिया-भर में धार्मिक कट्टरपंथी त्योहार मनाते हैं। क्या वे भी इस तरह पैसा फूंकते हैं?’

संपादकीय के अंत में पेरियार के हवाले से कहा गया था कि ये लोग (ब्राह्मण) सुधारों से परे हैं। यहां तक कि हजारों विनोबाओं का प्रचार अभियान भी तमिलनाडु के ब्राह्मणों को नहीं सुधार सकता। इसलिए वे (पेरियार) इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि उन्हें खदेड़ दिया जाना चाहिए….पूरी विनम्रता के साथ हम उस विद्वान वुजुर्ग व्यक्ति से जानना चाहते हैं कि क्या ऐसे किसी व्यक्ति को जगाना संभव है जो पहले से ही जागा हुआ हो?

उसके बाद 18 जनवरी 1957 को पेरियार और विनोबा की आमने-सामने की मुलाकात हुई थी। उस बातचीत को तमिल समाचारपत्र ‘थिना थांती’ ने प्रकाशित किया था। अखबार के अनुसार विनोबा के साथ हुई बातचीत के बारे में स्वयं पेरियार ने उस अखबार के संवाददाता को बतलाया था। उस बातचीत के आधार पर अखबार ने दोनों नेताओं की बातचीत को इस तरह प्रस्तुत किया था—

विनोबा : मैंने सुना है कि आप जाति-प्रथा के उन्मूलन हेतु पूर्णतः संघर्षरत हैं?

पेरियार : जाति प्रथा के उन्मूलन को मैंने अपनी प्रथम  प्राथमिकता माना है। मेरा मानना है कि यदि जाति-प्रथा समाप्त हो जाए तो लोग अज्ञानता तथा अंधविश्वासों से उबर आएंगे और वे अनुशासित जीवन की ओर अग्रसर होंगे।

विनोबा : मैं मानता हूं कि जाति-प्रथा को खत्म हो जाना चाहिए। किंतु मैं आपके द्वारा ईश्वर की मूर्तियों को तोड़ने तथा हमारे महाकाव्यों का दहन करने वाले कृत्य की सराहना नहीं कर सकता।

पेरियार : धर्मग्रंथ और देवतागण जातिप्रथा का मूलाधार हैं। यही कारण है कि वे मेरे निशाने पर हैं। यदि हम देवताओं और धर्मग्रंथों के चंगुल से निकल आएंगे, तो उनके द्वारा निर्मित जाति-प्रथा भी अपने आप समाप्त हो जाएगा।

विनोबा : महाकाव्यों में अच्छी और बुरी दोनों ही तरह की बातें हैं। हमें उनमें से अच्छे को लेना चाहिए और बुरे को छोड़ देना चाहिए।

पेरियार : कितने लोग इस काम को करने में सक्षम हैं? यदि आप विष और शक्कर को एक साथ मिला दें तो कितने लोग केवल शक्कर का सेवन कर सकेंगे?


नोट : विदुथलाई के संपादकीय का मूल तमिल से अंग्रेजी अनुवाद प्रोफेसर ए. अय्यासामी ने किया है। अंग्रेजी अनुवाद और उपर्युक्त बातचीत दोनों ‘मार्डन रेशलनिष्ट’ पर उपलब्ध हैं।