आज़ादी के पहले जनमे भारतीय चित्रकारों के पास सबसे बड़ी समस्या उनकी अपनी परंपरा को लेकर ही थी। यह परंपरा जहाँ एक ओर आकृतिमूलक या फिगरेटिव चित्रकला से जोड़ती थी वहीं इसमें सिरे से आम आदमी गैर हाज़िर था। ऐसी स्थिति में विश्व में विस्तार पा रहे , शोषण और असमानता के खिलाफ जंग में जनता के साथ खड़े होने के लिए कला को परंपरा की रूढ़ियों से मुक्त करना जरूरी था। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में यूरोप में नयी चेतना के उदय के साथ साथ चित्रकारों और अन्य रचना कारों को गहरे प्रभावित किया था और इस बात को सिद्ध कर दिया कि ‘कला को पारंपरिक विषयों से मुक्त किये बगैर आम आदमी के लिए इसमें स्थान बनाना संभव नहीं है।’
बीसवीं शताब्दी में, द्वितीय विश्वयुद्ध के बंदूकों और तोपों के खामोश होने के तुरंत बाद विश्व की दो महाशक्तियों के बीच ‘शीत युद्ध’ शुरू हो गया था। जाहिर है,संस्कृति को भी इस युद्ध के मैदान के रूप में इस्तेमाल होना ही था। ये दो विचारधारा के बीच की लड़ाई थी, जिसमें चित्रकला धाराओं का बँटना भी अनिवार्य था। 1945 में विश्वयुद्ध के समाप्त होते ही अमरीका द्वारा एक साज़िश के तहत यकायक ‘अमूर्त अभिव्यंजनावादी’ या अब्स्ट्रक्ट एक्सप्रेशनिज़्म चित्रकला को कला जगत में स्थापित करने की कोशिशें शुरू हो गयी थी । चित्रों से मानव उपस्थिति के गायब होने के साथ साथ चित्रकला से जुड़ा मानवतावाद भी हाशिये पर धकेल दिया गया। समूचे विश्व में डालर की क्षमता के बल पर उन्होंने चित्रकला के साथ साथ सभी कलाओं की परिभाषा बदल दी। दक्षिण एशिया की चित्रकला में एक संशय के युग का सूत्रपात हुआ जिसमें चित्रकारों को यह नहीं समझ में आ रहा था कि अमरीका द्वारा प्रायोजित अमूर्त चित्रकला को अपनाये या कि अपनी परम्पराओं के बीच से ही अपने लिए चित्रकला की एक आधुनिक भाषा को विकसित करें। पहला विकल्प लोभनीय था, और अनेक चित्रकारों को रातों रात ‘वैश्विक’ ख्याति की संभावनाएं भी दिखीं। जबकि दूसरे विकल्प में, एक चित्र में एक सर्वथा नए ‘मनुष्य’ को चित्र के केंद्र में लाने की चुनौती थी। 1943 के अकाल ने चित्त प्रसाद, जैनुल आबेदीन, सोमनाथ होर, कमरुल हसन, देबब्रत मुखोपध्याय सरीखे अनेक चित्र कारों ने दूसरा विकल्प चुना। इन चित्रकारों ने राजा रवि वर्मा और बंगाल स्कूल जैसी परंपराओं को ख़ारिज किया और अपने चित्रों से धर्म सत्ता और राज सत्ता के प्रतीक कथाओं को बेदखल कर ‘आम आदमी’ के लिए जगह बनायी। यह हिन्दुस्तान की चित्रकला का अपने पैरों में खड़े होने का पहला दौर था, और इस दौर के कुछ चित्रकारों ने जहाँ आधुनिक और शोषण मुक्त समाज के निर्माण में अपना होने का मकसद खोजा, वहीं कुछ चित्रकारों ने विदेश और विदेशी कला के शरण में अपनी मुक्ति तलाशी।
उत्तर प्रदेश के अमरोहा जिले में 1930 में जनमे सैयद सादेकैन नक़वी ने चित्रकला की उसी धारा को अपनाया जिसे रबीन्द्रनाथ ठाकुर, अमृता शेरगिल ने अपने चित्रों में जन्म दिया था, और जिसे चित्तप्रसाद, जैनुल आबेदीन जैसे चित्रकारों 1943 के अकाल के दौर में ज़ुबान दी थी। सादेकैन का अमरोहा आज भी भारत के विकसित शहरों में शुमार नहीं है और यह मूलतः एक कृषि प्रधान जिला है। स्थानीय लोग मानते हैं, कि अमरोहा जिले नाम यहाँ के बागों के स्वादिष्ट ‘आमों’ के लिए और यहाँ की नदी मिलने वाली ‘रोहू’ मछलियों के चलते ही पड़ा है। सादेकैन का बचपन इसी सहज-सरल और अमन पसंद माहौल में बीता और यहीं उन्होंने घर की दीवारों पर कोयले की काली लकीरों से चित्रकला का ककहरा सीखा। प्रतिभाशाली होने के साथ साथ सादेकैन बेहद संवेदनशील थे जिन्होंने समाज के सभी के लिए शिक्षा और सहिष्णुता का महत्त्व को समझा। आगरा विश्वविद्यालय से बी ए स्नातक होने के बाद कुछ दिनों के लिए उन्होंने दिल्ली के ऑल इंडिया रेडियो में नौकरी की। आज़ादी के बाद, 1948 में वे पकिस्तान चले गए।
सादेकैन ने मेहनतकशों को अपने चित्रों के केंद्र में रखा। पकिस्तान के मंगला-बाँध के परिसर में, उन्होंने 200 X 30 फ़ीट आकार का सुविशाल भित्तिचित्र बनाया था, जिसकी गिनती विश्व के अन्यतम बड़े भित्तिचित्रों में होती है। ‘श्रम की कथा’ शीर्षक के इस म्यूरल को उन्होंने केवल तीन महीनों में पूरा किया था। पाकिस्तान में, विभिन्न समयों में उन्हें असंख्य नागरिक सम्मानों से नवाज़ा गया। पर धार्मिक कट्टरपंथी ताकतों के लिए ऐसे उदारमना कलाकार को स्वीकार करना कठिन था। 1976 में यह स्थिति और भी बिगड़ गयी जब सादेकैन की प्रदर्शनी लाहौर के पंजाब आर्ट काउंसिल में लगी। हज़ारों लोग इस प्रदर्शनी को देखने के लिए उमड़ पड़े, मगर पाकिस्तान के कला विरोधी धर्मान्ध ताक़तों को सादेकैन के चित्रों का उदात्त भाव मान्य नहीं लगा , जहाँ उन्होंने अपने चित्रों के माध्यम से समाज के पाखंड के खिलाफ पुरजोर तरीके से अपनी बात रखी थी। इस प्रदर्शनी में ही उनका सुप्रसिद्ध आत्म-चित्र (चित्र 1) भी प्रदर्शित था, जिसे उन्होंने लाहौर संग्रहालय में प्रदर्शित गांधार कालीन विख्यात मूर्ति ‘उपवास में बुद्ध’ से प्रभावित होकर बनाया था। इस प्रदर्शनी पर 12 जून 1976 में बम फेंका गया जिससे भवन के साथ साथ चित्रों को भी नुक्सान पहुँचा था। यह घटना केवल पाकिस्तान के लिए ही नहीं, बल्कि दक्षिण एशिया में विस्तार पाती दक्षिण पंथी असहिष्णु ताकतों का कला और उन्मुक्त अभिव्यक्ति के खिलाफ युद्धघोष था जो कि दुर्भाग्य से किसी धर्म या राष्ट्र तक सीमित नहीं रहा। सादेकैन एक योद्धा के रूप में अपनी कला में मानवता के झंडे को थामे रहे। उन्होंने लिखा था-
ये तो नहीं क़ुदरत इशारा न हुआ
मैं फिर चला सोए कुफ़्र, यारा न हुआ
इस्लाम के बंदे का मुशर्रफ होना
इस्लाम के मुफ़्ती को गवारा न हुआ।
सादेकैन के खिलाफ दक्षिण पंथी संगठनों ने जहाँ उग्र प्रदर्शन किये पकिस्तान के सभी तरक्कीपसंद लोगों ने सादेकैन का समर्थन किया। फैज़ अहमद फैज़, इंतज़ार हुसैन, किश्वर नहीद अमज़द इस्लाम अमज़द और अहमद नदीम क़ासमी जैसे रचनाकारों ने खुल कर सादेकैन का साथ दिया।
उनके चित्रों में हम बार बार मेहनतकश मज़दूरों को केंद्र में देख पाते हैं जहाँ उनके साथ मेहनत करती हुई महिलाएं भी अनिवार्य रूप से दिखती हैं। अपने अनेक चित्रों में जहाँ उन्होंने शिक्षा के माध्यम से महिलाओं के सशक्तिकरण की बात की है वहीं उन्होंने चित्रकला को मानवतावादी और उन्मुक्त बनाने का सन्देश दिया है। 1981 में वे मात्र पन्द्रह दिनों के भारत के दौरे पर आये थे मगर उन्होंने यहाँ चौदह महीने बिताये थे। इस दौरान उन्होंने अपने चित्रों की न केवल कई प्रदर्शनियाँ ही की, उन्होंने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय नेशनल जियोफिजिकल रिसर्च इंस्टिट्यूट ( हैदराबाद ) के परिसरों में विशाल भित्तिचित्र भी बनाये थे । ये सभी भित्तिचित्र निस्संदेह नायाब हैं, पर हैदराबाद के एन जी आर आई के म्यूरल ( चित्र 2) के केन्द्र में उन्होंने फैज़ को जिस उदारता और साहस के साथ उद्धृत किया है, वह हमें चकित करता है। चित्र के बीच के अंश में भारत के मानचित्र पर उन्होंने “सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ता हमारा ” हिंदी लिपि में लिखा है। गौरतलब है, कि यह समय पकिस्तान में फौजी शासन का था।
सदेकैन अपनी पूरी जिंदगी एक फ़कीर की तरह जीये। उन्होंने चित्र रचना के श्रम को, एक आम मज़दूर के श्रम अलग कर कभी नहीं देखा।
सादेक़ैन की नतिनी (रिश्ते में) अंबरीन ने ‘सादेक़ैन- जी से भुलाया न जाएगा’ नाम से प्रकाशित अपनी किताब में लिखा, ‘उस शाम मैंने देखा कि ब्रश और मुसव्विर (चित्रकार) के हाथ का क्या रिश्ता होता है। अपनी तस्वीरों की तरह कज-मज और टेढ़े-मेढ़े सादेक़ैन के हाथ से ब्रश को अलहदा करने के लिए सफ़ेद तामचीनी (चीनी मिट्टी) के बड़े तसले में गरम पानी लाया जाता है। सादेक़ैन अकड़ी हई उंगलियों में फंसे हुए ब्रश समेत अपना हाथ उसमें डालते हैं. और फिर गरम पानी से टकोर के बाद ही उनको उंगलियां ब्रश से जुदा होती हैं। वो मैले-कुचैले और रंगों से लिथड़े हुए दामन से अपनी गीली उंगलियां पोंछते हैं और मैं उनकी खमीदा (मुड़ी हुई) उंगलियों को देखती रहती हूँ जिन्होंने ब्रश से ऐसा इश्क किया कि फिर कभी आपकी हमारी उंगलियों की तरह सीधी न हो सकीं।’
सादेक़ैन शायर भी थे और उनकी शायरी में चित्रकार सादेकैन को हम सहज ही पहचान लेते हैं। उनकी ये मार्मिक पंक्तियाँ बहुत कुछ कहती हैं,
‘दिन रात हो जब शाम या पौ फूटती है
कन्नी मेरे हाथों से नहीं छूटती है
फिर काम से दुख जाता है इतना मेरा हाथ
रोटी को जो तोड़ूं तो नहीं टूटती है’
आज अनेक देशों में सत्ता द्वारा धार्मिक कट्टरता, असहिष्णुता और संकीर्णता के पक्ष में खड़ी शक्तियों को ढाल बनाकर ,प्रतिरोध की कला को ध्वस्त करने की साजिशें रची जा रहीं हो; हमारे लिए सादेकैन और भी ज्यादा अपने और प्रासंगिक हो जाते हैं। आज के दिन (30 जून ) हम, जनता के इस महान चित्रकार को उनकी जन्मदिन पर विशेष रूप से याद करते हुए सादेकैन साहब के जीवन और चित्रकला को आम जनों तक ले जाने का संकल्प लेना चाहिए । दरअसल सादेकैन, चित्तप्रसाद, जैनुल आबेदीन जैसे चित्रकारों को जनता तक पहुँचाने की कोशिशों से ही हम जनपक्षधर कला के इतिहास को अँधेरे में गुम होने से बचा सकते हैं।