अक्टूबर 2020 मे बिहार और 2021 मे बंगाल विधानसभा चुनाव के मद्देनजर बीजेपी ने वर्चुअल रैलियाँ शुरू की हैं। बिहार की एक जनसंवाद रैली मे बीजेपी अध्ययक्ष अमित शाह ने एक ही भाषण मे पहले तो यह दावा किया कि इसका राजनीति से कोई संबंध नहीं है और थोड़ी ही देर बाद घोषणा की कि इन रैलियों के जरिए बिहार मे सत्ता परिवर्तन होगा। उधर बंगाल मे कोरोना और अंफन तूफान के विनाश से इकट्ठी जूझ रही जनता को रिझाने के लिए बीजेपी ने 70000 एलईडी फ्लैट स्क्रीन टीवी और 15000 जाइन्ट एलईडी स्क्रीन का इंतज़ाम किया है। बीजेपी के भूपेन्द्र यादव ने दावा किया है कि ये वर्चुअल रैलियाँ आम जनता और लोकतंत्र को सशक्त बनायेंगी और लोगों को जाति और अस्मिता की राजनीति से दूर ले जाने मे मदद करेंगी। एक अनुमान के मुताबिक इन रैलियों पर 144 करोड़ रुपये का खर्चा आएगा। इन सबके दौरान बीजेपी द्वारा विपक्षी पार्टियों को कठघरे मे खड़ा करने की विचित्र राजनीति भी चल रही है। अमित शाह ने कांग्रेस पर हमला करते हुए कहा है कि राहुल गांधी ने कोरोना वाइरस से निबटने के लिए कुछ नहीं किया है। बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने दहाड़ते हुए चीन को कोरोना वाइरस के लिए जिम्मेदार ठहराया है, इतना ही नहीं बीजेपी के कई नेता हाल ही मे चीन द्वारा भारत कि जमीन दबा लिए जाने की जिम्मेदारी भी नेहरू युग की कूटनीति पर मढ़ रहे हैं।
यह सब देखते हुए बार बार मन मे ख्याल आता है कि आखिर हमारी राजनीति इतनी असंवेदनशील कैसे हो सकती है? कुछ तो ऐसा है हमारी राजनीति और राजनेताओं मे जो न सिर्फ उन्हे गैर जिम्मेदार बल्कि हद दर्जे का बेशर्म भी बनाता है। क्या आज सत्ता पक्ष को यह निश्चय हो चुका है कि वे अजेय है? क्या उन्हे लगता है कि कोरोना त्रासदी के दौरान पलायन, तालाबंदी और अंफन तूफान के बाद इतने कष्ट झेलने वाली जनता फिर से उन्हे ही वोट करेगी? सत्ता पक्ष के इस आत्मविश्वास का स्रोत कहाँ है? ये सवाल न केवल जनता के दुखों के आईने मे हमे परेशान करते हैं बल्कि भारत मे कमजोर और अर्थहीन होते जा रहे लोकतंत्र की भयानक तस्वीर भी दिखाते हैं। यह दुख तब और बढ़ जाता है जब हम उत्तर प्रदेश बिहार और बंगाल की समाजवादी, अम्बेडकरवादी और वामपंथी राजनीति का यह हश्र देखते हैं।
इमरजेंसी के दौरान जो छात्र आंदोलन परवान चढ़ा था उसकी लहर मे आज के समाजवादी चैंपयंस भारत की राजनीति मे उभरे थे। लालू प्रसाद, शरद यादव, नीतीश कुमार, रामविलास पासवान जैसे नेता उस दौर मे कांग्रेस की राजनीति का विकल्प बनाने के लिए लोहिया और जेपी की पुकार पर एक साथ मैदान मे उतर आए थे। उधर बंगाल मे वामपंथी राजनीति ने कई दशकों तक सत्ता पर एकछत्र अधिकार बनाए रखा था । लेकिन आज कांग्रेस और बीजेपी की राजनीति के सबसे गहरे वैचारिक और दार्शनिक विरोधियों की तरह उभरे समाजवादी,अम्बेडकरवादी और वामपंथी दलों ने अपनी विचारधारा से जो विश्वासघात किया है वह हमें आज के उत्तर प्रदेश बिहार और बंगाल तक ले आया है। गौर से देखा जाए तो पूरे देश की राजनीति के निरंतर पतन की जिम्मेदारी भी इसी विश्वासघात पर डाली जा सकती है।
आज हम देखते हैं कि समाजवाद और वामपंथ के चैंपयन इस भयानक त्रासदी के दौर मे भी जुबानी जमाखर्च के अलावा कुछ खास नहीं कर रहे हैं। जिस वर्चुअल स्पेस का बीजेपी इस्तेमाल कर रही है उस वर्चुअल जगत मे भी ये समाजवादी और वामपंथी दल भारत के मजदूरों और दलितों पिछड़ों की आवाज बुलंद करने मे असफल रहे हैं। सच बात तो ये है कि इन्होंने कभी भी पूरे मन से सत्ता पक्ष को निशाने पर लेने की कोई गंभीर कोशिश भी नहीं की है। इधर तेजस्वी यादव, अखिलेश यादव हों या फिर मायावती और ममता बनर्जी हों, जमीनी राजनीति मे जनता के लिए वैकल्पिक रणनीतियों पर काम करने की कोई पहल नहीं की है। इस मामले मे राहुल गांधी जरूर वर्चुअल स्पेस का पूरा उपयोग करते हुए दुनिया भर के विशेषज्ञों से बात करते रहे और वैकल्पिक योजनाओं की घोषणा करते हुए सत्ता पक्ष की तैयारियों और कामों पर सवाल खड़े करते रहे।
हिन्दी पट्टी और बंगाल मे समाजवाद, अम्बेडकरवाद और वामपंथ की राजनीति करने वाले सभी दल और राजनेता अपने खुद के समर्पित वोट बैंक के लिए भी कोई ठोस पहल नहीं कर पा रहे हैं। एक अजीब सी असमंजस और अकर्मण्यता की स्थिति बनी हुई है। एक भयानक राजनीतिक अवसरवादिता, और दिशाहीनता की स्थिति इन पार्टियों मे दिखाई देती है। मायावती और अखिलेश तो स्वयं मुख्यमंत्री रह चुके हैं, और तेजस्वी यादव भी राजकाज का कुछ अनुभव रखते हैं, फिर भी इनके पास उत्तर प्रदेश और बिहार के मजदूरों किसानों और गरीबों के लिए कोई योजना नहीं है। जमीनी स्तर तक उतरने की बात तो दूर रही ये राहुल गांधी की तरह सोशल मीडिया और वर्चुअल प्लेटफ़ार्म तक का इस्तेमाल नहीं कर सके हैं।
इनकी यह हालत देखकर हमें समझ मे आता है कि बीजेपी को अपने अजेय होने का आत्मविश्वास कहाँ से आता है। अगर विपक्षी दल अपने राजनीतिक अवसरवाद और पार्टी की आंतरिक समस्याओं मे उलझते हुए अपनी विचारधारा से दूर जाकर दिशाहीन हो चुके हैं तो फिर सत्तापक्ष को क्या चिंता हो सकती है? राजनीतिक जीवन मे नैतिकता, शुचिता और जनकल्याण के मुद्दों की बहस को तो छोड़ दीजिए, ऐसी स्थिति मे तो पी एम केयर फंड जैसी जाहिर सी वित्तीय अनियमितताओं पर सवाल उठाने की भी किसी की हिम्मत नहीं होगी। उस पर तुर्रा यह कि विनोद दुआ जैसे पत्रकारों के खिलाफ भी मामले दर्ज हो रहे हैं जिनसे रही सही पारदर्शिता की उम्मीद भी खत्म होती जा रही है। एक तरफ मीडिया गोदी मीडिया बना हुआ है और दूसरी तरफ बिहार, उत्तरप्रदेश और बंगाल की समाजवादी अम्बेडकरवादी और वामपंथी पार्टियां भी चुनावी अवसरवाद की गोदी मे जा बैठी है। इन्हे जनता के मुद्दे तब नजर आते हैं जब चुनाव सर पर होते हैं। दो चुनावों के बीच के सालों मे जनता के बीच जाकर जनता के सरोकारों को समझने और सुलझाने की परंपरा इनकी आज की पीढ़ी मे लगभग खत्म हो गयी है।
यह वो राजनीति नहीं है जो वास्तव मे समाजवाद, वामपंथ या अम्बेडकरवाद की विचारधारा से आती है। विपक्ष के नेता सत्ता की मलाई काटने के इतने अभ्यस्त हो गए हैं कि जमीन पर जाकर मिट्टी और धूल मे काम करने की इनकी हिम्मत ही नहीं होती। समाजवादी राजनीति जहां उत्तर प्रदेश और बिहार मे वंशानुगत हो चली है वहीं बसपा की राजनीति ने तो परिवार के बाहर ही नहीं बल्कि भीतर भी किसी सेकंड लाइन लीडरशिप को उभरने ही नहीं दिया है । इस तरह काँग्रेस या बीजेपी की राजनीति का विकल्प बनाने की संभावना का इन पार्टियों ने खुद ही अपने सुरक्षित लौह दुर्गों मे गर्भपात कर दिया है। आज इनके जो नेता हैं वे जमीनी लड़ाई से नहीं आए हैं, न तो ये जनता से संवाद करना जानते हैं न इनमे इतनी हिम्मत और समझ है कि ये समय की मांग को देखते हुए भविष्य के लिए लोकहित के मुद्दों पर कोई वैचारिक आंदोलन खड़ा कर सकें।
ठीक से देखें तो आज बीजेपी का अति आत्मविश्वास इस स्रोत से आ रहा है। बीजेपी जहां एक तरफ संघ के पालने मे पले जमीनी संघर्ष करने वाले कार्यकर्ताओं के दम पर चलती है, वहीं दूसरी पार्टियों मे परिवारवाद और सत्ता की राजनीति का अवसरवाद हावी हो चुका है। हालांकि बीजेपी मे भी परिवारवाद पैर पसार रहा है लेकिन उसके परिणाम बाद मे आने वाले हैं, हो सकता है तब तक संघ स्वयं ही कोई तरीका निकालकर परिवारवाद पर लगाम लगा दे। यह बीजेपी और संघ की युति मे संभव है लेकिन उत्तर प्रदेश और बिहार की समाजवादी और अम्बेडकरवादी राजनीतिक पार्टियों के भीतर इसकी कोई संभावना नहीं दिखती कि वे कभी परिवारवाद को तिलांजलि देकर जमीन से जुड़े नेताओं और प्रतिभाओं को उभरने देंगे।
संजय श्रमण जोठे स्वतन्त्र लेखक एवं शोधकर्ता हैं। मूलतः मध्यप्रदेश के रहने वाले हैं। इंग्लैंड की ससेक्स यूनिवर्सिटी से अंतर्राष्ट्रीय विकास अध्ययन मे स्नातकोत्तर करने के बाद ये भारत के टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस से पीएचडी कर रहे हैं। बीते 15 वर्षों मे विभिन्न शासकीय, गैर शासकीय संस्थाओं, विश्वविद्यालयों एवं कंसल्टेंसी एजेंसियों के माध्यम से सामाजिक विकास के मुद्दों पर कार्य करते रहे हैं। इसी के साथ भारत मे ओबीसी, अनुसूचित जाति और जनजातियों के धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक अधिकार के मुद्दों पर रिसर्च आधारित लेखन मे सक्रिय हैं। ज्योतिबा फुले पर इनकी एक किताब वर्ष 2015 मे प्रकाशित हुई है और आजकल विभिन्न पत्र पत्रिकाओं मे नवयान बौद्ध धर्म सहित बहुजन समाज की मुक्ति से जुड़े अन्य मुद्दों पर निरंतर लिख रहे हैं। बहुजन दृष्टि उनके कॉलम का नाम है जो हर शनिवार मीडिया विजिल में प्रकाशित हो रहा है। यह इस स्तम्भ की नौवीं कड़ी है।
पिछली कड़ियां—
बहुजन दृष्टि-8- अमेरिका के नस्लवाद विरोधी आंदोलन के बरक्स भारत की सभ्यता और नैतिकता!
बहुजन दृष्टि-7- ‘मी लॉर्ड’ होते बहुजन तो क्या मज़दूरों के दर्द पर बेदर्द रह पाती सरकार?
बहुजन दृष्टि-6– बहुजनों की अभूतपूर्व बर्बादी और बहुजन नेताओं की चुप्पी यह !
बहुजन दृष्टि-5- आर्थिक पैकेज और ‘शोषणकारी’ गाँवों में लौट रहे बहुजनों का भविष्य
बहुजन दृष्टि-4– मज़दूरों के प्रति इस आपराधिक उपेक्षा की जड़ ‘धर्मसम्मत’ वर्णव्यवस्था में है !
बहुजन दृष्टि-3– इरफ़ान की ‘असफलताओं’ में फ़िल्मी दुनिया के सामाजिक सरोकार देखिये
बहुजन दृष्टि-2—हिंदू-मुस्लिम समस्या बहुजनों को छद्म-युद्ध में उलझाने की साज़िश!
बहुजन दृष्टि-1— ‘सामाजिक दूरी’ पर आधारित समाज में सोशल डिस्टेंसिंग !