जाते-जाते संकीर्णता से आज़ादी की राह बता गये प्रो.लाल बहादुर वर्मा

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आज़ादी की आकांक्षा का विस्तार करती किताब

(देवेंद्र आर्य)

ऐसे समय में जब ‘आज़ादी’ के कोरस को जे.एन.यू यानी टुकड़े टुकड़े गैंग से जोड़ कर चिढ़ौनी बना दिया गया हो और सांस्कृतिक ग़ुलामी का महिमामंडन हो रहा हो, स्व. (?) लालबहादुर वर्मा की अब तक की अंतिम किताब, “आज़ादी का मतलब क्या ” का महत्व और बढ़ जाता है.

डा. वर्मा मुक्ति से भी मुक्ति के आकांक्षी जन-बुद्धिजीवी थे. आज़ादी यदि मुक्ति के अर्थ में है तो ग़ुलामी के कितने प्रकार हो सकते हैं, यह सूची और उनमें से प्रत्येक की ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में ज़मीनी विवेचना लालबहादुर वर्मा के ही बूते की बात है.

कठिनतम सैद्धांतिक विषय को सरलतम भाषा में आम जनता तक सम्प्रेषित करने का गुण पिछले तीन दशक में और किसी विश्वसनीय विद्वान के भीतर नहीं देखा गया. प्रमाण चाहिए तो राजपाल प्रकाशन से आई उनकी सद्यः प्रकाशित पुस्तक पढ़ लीजिए जिसमें अठारह तरह की ग़ुलामी और उनसे व्यवहारिक आज़ादी के अध्याय हैं.

‘पूंजीवाद में जितना अनिवार्य उत्पाद है अमीरी उतना ही है ग़रीबी. इस व्यवस्था में चाहे जितनी समृद्धि आ जाए, ग़रीबी मिट ही नहीं सकती. क्योंकि कि पूंजीवाद का प्राण है मुनाफ़ा और मुनाफ़ा शोषण द्वारा ही कमाया जा सकता है. जब शोषण होगा तो कोई तो शोषित होगा ही और शोषित होने वालों में अंतिम पायदान तो वंचित रहेगा ही….. यहाँ चिन्हित करते चलें कि पूंजी का चरित्र बदल चुका है. अब उसे मेहनतकश का ख़ून चूसने की ज़रूरत नहीं. जब ग़रीब भी उपभोक्ता हों तभी पूंजी फलती फूलती रह सकती है….. यह भी साबित हो चुका है कि फ़ासीवाद को भी पराजित करने वाली शक्ति पूंजीवादी घुसपैठ को नहीं रोक पाती है. रूस और चीन दोनों ही देशों में आरम्भिक असाधारण सफलताओं के बावजूद समाजवाद के पूंजीकरण को नहीं रोका जा सका.’

समाधान की खोज करते हुए लालबहादुर वर्मा की नज़र बार बार गांधी की तरफ़ जाती है.

‘युवा गांधी ने 1909 में हिन्द स्वराज नामक पुस्तिका लिख पाश्चात्य सभ्यता की खरी आलोचना की थी. 20वीं शताब्दी की आपाधापी में उस पुस्तिका पर समुचित ध्यान नहीं दिया गया. पूरे 100 साल बाद… उस पुस्तिका ने असाधारण रूप से लोगों का ध्यान आकर्षित किया था और आज सारी दुनिया में गांधीवादी विचारों का ही नहीं अर्थशास्त्र का भी पुनर्पाठ हो रहा है.’ ( पृष्ठ 73 )

बताइये कि मार्क्सवादी के रूप में कुख्यात लालबहादुर विश्वसनीय हैं कि नहीं? या इसे जीवन के अंतिम बर्षो में आए वैचारिक विपथन के रूप में ही देखा जाना चाहिए.

वे लिखते हैं -‘ बाहर के हर तरह के बंधनों से मुक्त हो जाने के बाद भी अगर मनुष्य की मनीषा मुक्त नहीं है तो मुक्ति वास्तव में चरितार्थ नहीं होगी. (पृष्ठ 14-15 )

अनायास नहीं कि पुस्तक में ‘संकिर्णता से आज़ादी’ का भी एक अध्याय है.

160 पृष्ठों की पुस्तक राजपाल प्रकाशन से अथवा आन लाइन 265 /- में प्राप्त की जा सकती है.

इस पुस्तक को मंज़रेआम पर लाने के लिए अशोक कुमार पाण्डेय बधाई के पात्र हैं. उनकी व्यावहारिक दिक़्क़तों को समझते हुए भी उम्मीद है कि पुस्तक के दूसरे संस्करण में अशुद्धियाँ और असावधानियां, मसलन अध्याय-7, दूर कर ली जाएंगी.

लेखक मशहूर कवि हैं। यह उनकी फ़ेसबुक पोस्ट है।