क्या प्रवासी मजदूरों के लिए भी कोई ’वंदे भारत’ कार्यक्रम है?- संदीप पाण्डेय

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संदीप पाण्डेय व रूबीना अयाज़ 

 

जब से कोरोना का संकट आया है उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बैठकों पर बैठकें किए जा रहे हैं। पहले उन्होंने कहा कि कोई भूखा न रहे और कोई सड़क पर न सोए। फिर उन्होंने कहा कि जिनके पास राशन कार्ड न भी हों उन्हें भी राशन दिया जाए। अब वे कह रहे हैं कि कोई पैदल न चले। लेकिन हकीकत ये है कि आज जबकि तालाबंदी को लागू किए दो महीने हो गए हैं, लोगों के सामने भूख का संकट मुंह बाए खड़ा है। सड़क पर लोग सोते हुए मिल जाएंगे जिनमें प्रवासी मजदूर भी हैं जो अपने गंतव्य के लिए चले जा रहे हैं और पहले से जो सड़क पर ही सोते आए हैं वे भी हैं।

बिना राशन कार्ड के तो राशन मिलना दूर जिनका बन भी गया है उन्हें मिलने में दिक्कत आ रही है क्योंकि उचित दर विक्रेता उनसे कह रहा है कि राशन तीन महीने बाद, यानी जब मुफ्त 5 किलो अनाज मिलने की अवधि खत्म हो जाएगी तब  मिलेगा। और सड़क पर तो रोजाना पैदल चलते लोग देखे जा सकते हैं। सरकार का सामथ्र्य नहीं है कि सड़क पर निकली भीड़ को वह कहीं ठहरा सके या सबको खाना खिला सके। यह तो तमाम गैर सरकारी संगठनों व व्यक्तियों का अपने घरों से निकल कोरोना का खतरा जानते हुए भी लोगों को खाना खिलाने की मुहिम का नतीजा है कि स्थिति इतनी बुरी नहीं जितनी बिगड़ सकती थी।

कोरोना का संकट तो पूरी दुनिया में है और तालाबंदी भी दुनिया के अधिकतर देशों ने लागू की, लेकिन जिस तरह मजदूरों की सड़कों पर अपने अपने साधनों से घर जाने की होड़ लगी हुई है वह पूरी दुनिया में किसी और देश में दिखाई नहीं पड़ी। ऐसा क्यों हुआ? विदेशों में फंसे भारतीयों को तो हवाई जहाज भेज ’वंदे भारत’ कार्यक्रम के तहत स्वदेश ले आया गया। कोटा में लाखों रूपए खर्च कर प्रतियोगी परीक्षाओं को उत्तीर्ण करने का प्रशिक्षण पा रहे तमाम विद्यार्थियों को मुफ्त बसों से उत्तर प्रदेश सरकार ने उनके घर पहुंचा दिया। तीर्थयात्रियों को हरिद्वार व वाराणसी से गुजरात व दक्षिण के राज्यों में आरामदायक बसों से पहुंचा दिया गया। किंतु मजदूरों को उनके हाल पर छोड़ किया गया।

जहां बसों या रेलगाड़ियों का इंतजाम भी हुआ वहां किराया न दे पाने, अनुमति न मिल पाने, ऑनलाइन पंजीकरण न करा पाने क्योंकि सारी कम्प्यूटर की दुकानें ही बंद हैं अथवा गंतव्य पर पहुंच कर क्वारंटाइन किए जाने के भय की वजह से ज्यादातर मजदूरों ने यात्रा की ही नहीं और अपने अपने तरीके से निकल पड़े। कोई साइकिल से, कोई मोटरसाइकिल से, कोई परिवार सहित ट्रक के ऊपर बैठ कर या दिल्ली-मुंबई से ऑटोरिक्शा लेकर सैकड़ों-हजारों किलोमीटर का सफर तय किया।

पहले जब सड़कों पर लोग निकले और उन्हें रोका जाने लगा तो लोग रेल की पटरी के किनारे चलने लगे। 8 मई, 2020 को औरंगाबाद के निकट रेल पटरी पर सो रहे 16 लोगों की रेल निकल जाने से मौत के बाद सड़कों पर चलने की ढील दी गई तो रेला का रेला सड़क पर निकल पड़ा। फिर 16 मई को औरैया में सड़क हादसे में 25 लोगों की मौत हो गई। सरकार पुनः सड़कों पर लोगों के चलने को लेकर सख्त हो गई। तब लोग खेतों खेतों या अंदरूनी सड़कों से निकलने लगे। यहां तक कि प्रवासी मजदूरों तक भोजन आदि राहत सामग्री पहुंचाने में भी जो लोग लगे हुए थे उन्हें दिक्कतों का सामना करना पड़ा। पुलिस ऊपर से मिलने वाले निर्देशों से परेशान है। कभी उसे कहा जा रहा है कि लोगों को एकदम चलने न दें तो कभी कहा जा रहा है कि चलते लोगों को नजरअंदाज करें। जब लोगों को रोका जाता है तो सड़कों पर लम्बे लम्बे जाम लग जाते हैं। कई जगहों पर मजदूरों व पुलिस के बीच हिंसक घटनाएं भी हुई हैं।

कुल मिला कर सरकार की व्यवस्था ध्वस्त है। पहले तो 3 मई तक कोशिश की गई कि कहीं भी लोगों का जमावड़ा न हो। फिर शराब खुल गई तो जैसे तालाबंदी ही खत्म हो गई। पुलिस शिथिल पड़ गई। शराब से भीड़ तो इक्टठी हुई ही गरीब के पास जो भी पैसा था जो उसके परिवार के भोजन, दवा, आदि जरूरी चीजों पर खर्च होना चाहिए था वह सरकार ने उससे राजस्व के नाम पर वसूल लिया। एक हाथ से जनधन खाते अथवा महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत पंजीकृत होने अथवा श्रम विभाग द्वारा पंजीकृत होने के नाते उसके खाते में जो भी रुपए 1000 या 500 सरकार ने दिए थे वह दूसरे हाथ से शराब पिला कर ले लिया।

यह तो स्पष्ट है कि सरकार ने पूंजीपतियों के सामने घुटने टेक दिए हैं। यदि ऐसा न होता तो शराब व तम्बाकू जिनसे कोरोना के संक्रमण का खतरा बढ़ जाता है को सरकार कतई इजाजत नहीं देती। इन्हीं पूंजीपतियों का सरकार के ऊपर दबाव है कि मजदूरों को उनके घर न जाने दिया जाए, नहीं तो उन्हें अपने कारखाने चलाने के लिए कौन मिलेगा? यही वजह है कि जो काम तालाबंदी से हफ्ता भर पहले या दूरदर्शिता की कमी के कारण जो नहीं किया गया अब किया जा सकता है, रेलगाड़ियां चला कर सभी को सुरक्षित घरों तक पहुंचा दिया जाए, वह काम सरकार ने नहीं किया।

सिर्फ इतनी बसें या रेलें चलाई गई ताकि कहने को हो जाए कि सरकार मजदूरों को घर पहुंचा रही है। जबकि सरकार को मालूम है कि पिछले दो महीनों से अधिकांश लोगों की कमाई बंद है ऐसे में प्रधान मंत्री केयर्स निधि से पैसा खर्च कर मजदूरों को निशुल्क घर पहुंचाने की व्यवस्था क्यों नहीं हुई? इस निधि के खर्च का इस्तेमाल जानने के लिए सूचना के अधिकार के तहत आवेदन भी नहीं किया जा सकता क्योंकि यह कहा जा रहा है कि यह सरकारी पैसा नहीं है।

गुजरात में तो हद हो गई है। कहा जा रहा है कि जो मजदूर घर चला गया हो उसके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही हो। जिन मजदूरों के साथ काम का कोई लिखित अनुबंध नहीं होता ताकि वे अपने अधिकारों की मांग न कर सकें, जिनके सारे कानूनी अधिकारों का उल्लंघन होता है और मालिक मजदूरों के प्रति जवाबदेह नहीं होना चाहते वही मालिक चाह रहे हैं कि मजदूर उसके यहां बंधक बना रहे और उसके प्रति पूरी तरह समर्पित रहे।

यह कितनी अजीब बात है कि तीन वर्षों के लिए श्रम कानूनों को उ.प्र. में निलम्बित कर दिया गया है। इसी तरह कई अन्य राज्यों में भी श्रम कानूनों के प्रावधानों को शिथिल कर दिया गया है। मालिकों ने प्रधान मंत्री की इतनी बात भी नहीं मानी कि तालाबंदी की अवधि में वे अपने मजदूरों को वेतन देते रहें जिसकी वजह से हमें आज मजदूरों की इतनी बड़ी तादाद सड़क पर देखने को मिल रही है। इन मालिकों में से कई ने प्रधानमंत्री के आह्वान पर अपनी बालकनी में खड़े होकर ताली बजाई होगी अथवा बत्ती बंद कर मोमबत्ती जलाई होगी।

सरकार को बताना चाहिए कि जिस तरह उसने अमीरों को विदेश से भारत लाने हेतु वंदे भारत कार्यक्रम चलाया उसी तरह मजदूरों को अपने घर पहुंचाने के लिए कोई कार्यक्रम उसके पास है क्या?


लेखिका व लेखक सोशलिस्ट पार्टी (इण्डिया) से जुड़े हैं। संदीप पांडे मैगसेसे पुरस्कार अवार्डी विख्यात सामाजिक कार्यकर्ता हैं। 

 


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