ग्राउंड रिपोर्ट: कोरोना ने घुमन्तू समुदाय के जीवन में अँधेरा भर दिया !

अश्वनी कबीर
ख़बर Published On :


हिंदुस्तान में 1200 से भी अधिक घुमन्तू समुदाय रहते हैं। जिनकी आबादी हमारी कुल आबादी का 10 फीसदी है। बेहद मामूली सा जीवन जीने वाले ये असाधारण लोग अपनी उपस्थिति से हमारा जीवन प्रकाशित करते रहे हैं। लॉकडाउन के बाद इनके जीवन में अंधेरा इस कदर घुल चुका है। इनकी स्वतंत्र पहचान ही खो रही है। ज्ञान के अलग-अलग दृष्टिकोण समाप्त हो रहे हैं। हम ये भूल रहे हैं कि इसकी कीमत बकाया समुदायों को चुकानी पड़ेगी। कब तक चुकानी पड़ेगी यह नहीं कहा जा सकता।

कभी-कभी जीवन की कोई भूल या गलती इतना बड़ा नासूर बन जाती है। जो जीवन भर हमारे पीछे दौड़ती है। हम कितना भी उससे बचने का प्रयास करें लेकिन अंत में आकर वह हमें जकड़ लेती है।

“एक ही कदम उठा था, गलत राहे शोख में मंजिलें तमाम उम्र हमें ढूंढती रही” कोरोना संकट में सरकारी निर्णय, बद-इन्तज़ामी और अस्पषट कार्यवाहियां, वो गलत कदम हैं जिसको मंजिले उम्र भर ढूंढती रहेंगी।

इन समुदायों के पास खास तरह का हुनर है। हर समुदाय के पास विशिष्ट प्रकार का ज्ञान है। ये जीवन जीने के अलग-अलग नजरिये हैं। समाज को देखने के अलग अलग चश्मे हैं।

कुछ समुदाय जड़ी-बूटी के जानकार हैं तो कुछ समुदाय पर्यावरणीय प्रबन्धन में महारथी हैं। कुछ समुदाय सामाजिक सहिष्णुता के जीवंत साक्ष्य हैं तो कुछ गज़ब के कलाकार। किसी के पास संगीत की गहरी समझ हैं तो किसी के पास शिल्प की सूक्ष्म जानकारी।

इन सभी समुदायों पर प्रभाव भी अलग-अलग तरीके से पड़ रहा हैं। इन प्रभावों से निपटने हेतु सरकार की एप्रोच भी अलग होनी चाहिए। जो कदम उठाये गए हैं वे सब कूड़ा-करकट से ज्यादा और कुछ नहीं हैं।

लोक कलाकारों पर प्रभाव

कुछ समुदाय अपनी कला के जरिये मौखिक इतिहास को बताते हैं। जैसे कठपुतली भाट, कठपुतली के खेल के जरिये मौखिक इतिहास को बताता है। भोपा, पाबूजी की फड़ बाचता है। वह स्टोरी टेलिंग का काम करता है। नट रस्सी और लकड़ी पर कलाबाजी दिखाता है। बहुरुपिया विभिन्न रूप बनाकर प्रेम और भाईचारे का संदेश बांटता है।

जैसलमेर के ज्ञानी भाट कहते हैं कि मुझे ये कठपुतली अपने पुरखों से मिली है। हम गांव-गांव जाकर कठपुतली के खेल के जरिये मौखिक इतिहास को बताते हैं। हमारी कला मजमों पर टिकी है। जब गांव में हम भीड़ लग ही नहीं पाएंगे तो हमारा घर कैसे चलेगा?

ज्ञानी कहते हैं कि कला केंद्रों पर से तो हमें पहले ही बाहर निकाल दिया है। अब गांवों से भी बाहर निकाल दिया। इस बार 2 अक्टूबर को जवाहर कला केंद्र, जयपुर में कंपनी ने कठपुतली नचाई थी। उसका उद्घाटन मुख्यमंत्री जी ने किया था।

अजमेर, पुष्कर के घासीराम भोपा कहते हैं कि हमारे टोले में 140 लोग हैं, जिसमे 84 बच्चे हैं। एक भी बच्चा स्कूल नहीं जाता। न बीपीएल कार्ड है। और न कोई जमीन का पट्टा। गांवों में घूमकर रावणहत्था बजाकर अपना घर चला रहे थे। उस पर भी सरकार ने रोक लगा दी। हम खायेंगे क्या? हमने लॉकडाउन में एक समय खाना खाकर टाइम निकाला है।

इस कोरोना वायरस के समाप्त होने के भी अगले 6-7 महीने तक तो न शहर में इनको कहीं अनुमति होगी और न हीं गांवों में कहीं घुसने दिया जायेगा। यदि अनुमति मिल भी गई तो लोग इनको एक्सेप्ट नहीं करेंगे। अगले एक साल तक तक ये समुदाय अपने बच्चों का लालन-पालन कैसे करेंगे?

ये लोग हमारी उन सामूहिक स्मृतियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। जो लोक में बनी थी। वहीं पर बड़ी हुई है। वे पहले से ही मरणशील अवस्था में हैं। जब ये कलाकार ही नहीं रहेंगे तो वो कलाएं भी समाप्त हो जायेंगी।

लोक संगीतकारों पर प्रभाव

लंगा, मांगणियार, मिरासी, ढोली, ढाढ़ी और जोगी समुदाय। ये सभी समुदाय गाने-बजाने का काम करते हैं। मंगल गान गाते हैं। ये लोग अपने हुनर के लिए अपने जजमानों पर आश्रित हैं। कला केंद्रों, पर्यटक स्थलों और शादी विवाह जैसे कार्यक्रमों पर निर्भर हैं।

सरकार ने ऐसे सभी स्थानों को बंद कर दिया, जहां ज्यादा लोग एकत्रित हो सकते थे। ऐसे सभी धार्मिक, सांस्कृतिक कार्यक्रमों पर रोक लगा दी। वहां पर लोगों की संख्या निश्चित कर दी। जाहिर सी बात है अतिथियों की सूची में सबसे पहले इन्हीं लोगों का नाम हटेगा। इस स्थिति में ये लोग साल भर क्या करेंगे?

चिरंजी ढोली का कहना है कि हमारा सारा जीवन तो अपने जजमानों के तीज त्योहारों और शादी विवाह में ढोल बजाने पर निकल गया है। हम लोग पढ़े लिखे तो हैं नहीं। हमारा तो जजमानों से ही घर चलता है। हम लोग हर महीने अलग अलग गांवों में जाते हैं। जब गांव में जा नहीं पायेंगे तो हम लोग अपना घर कैसे चलायेंगे ?

मनोरंजन का कार्य करने वालों पर प्रभाव

कुछ घुमंतु समुदाय मनोरंजन का कार्य करते हैं। कलंदर का भालू का खेल। मदारी का बंदर और बाजीगर अपनी हाथ की सफाई के जरिए मनोरंजन का कार्य करता था। बंगाली मनके पिरोने का काम करते हैं। सरकार ने भालू और बन्दर छीन लिए। उसके बाद ये समुदाय अब जड़ी बूटियों से इत्र, मंजन, मल्हम और तेल बनाते हैं। कुछ नगीनों का काम करते हैं।

ये सभी समुदाय निरन्तर घूम-घूमकर अपना घर चलाते हैं। सरकार ने भीड़ लगाने पर रोक लगा दी। सड़क किनारे कोई समान भी नहीं बेच सकते। इब्राहिम टोंक, राजस्थान के रहने वाले हैं जो मदारी समुदाय से सम्बंधित हैं। इब्राहिम पहले बन्दर नचाते थे। अब नगीने बेचते हैं।

इब्राहिम का कहना हैं कि यदि हम सड़क किनारे बैठकर नगीने नहीं बेचेंगे तो खाएंगे क्या? हमारे पास कोई दुकान या प्रॉपर्टी थोड़े है। सरकार आज तक कोई सहायता तो दी नहीं, केवल छीना ही है। अब सड़क पर बैठने का भी अधिकार छीन लिया। हम तो दिन भर में 100-150 रु कमा पाते थे। अपना एक झोला रखते हैं। जहां कुछ लोग दिख जाते हैं। वहीं अपने झोले को खोलकर बैठ जाते हैं। यही हमारी चलती फिरती दुकान है।

जड़ी-बूटी वालों पर प्रभाव

सिंगीवाल, गोंड चित्तौड़िया, कंजर ओर कालबेलिया समुदाय। साल में दो बार ही जड़ी बूटियां एकत्रित करता है। एक बार मार्च -अप्रैल के महीने में और दूसरी बार बारिश होने के बाद।

गरमुंडा, पलाश, कचनार और कदम्ब के फूल हमारे लिए भले ही महज सुंदरता की अभिव्यक्ति हो सकते हैं, किंतु इन समाजों के लिए ये फूल आयुर्वेदिक औषधियां हैं। इन फूलों के असंख्य औषधिक गुण हैं। मार्च-अप्रैल के महीने में ये फूल झरने लगते हैं।

ये समुदाय इन फूलों को बिनते हैं। उनको सुखाते हैं। फिर उनको पीसकर पाउडर बनाते हैं। फिर उनको अन्य औषधियों के साथ मिलाकर उनका मिश्रण तैयार करते हैं। इस मिश्रण से साल भर अपनी रोजी रोटी चलाते हैं।

रेगिस्तान में इस समय गरमुंडा और हरड़ इत्यादि जड़ी बूटिया मिलती हैं। कालबेलिया समुदाय के लोग इसको पीसकर फांकी बनाते हैं। जो पशुओं और इंसानों के पेट दर्द, कब्ज और एसिडिटी का रामबाण इलाज है।

जैसलमेर के सम में बालू रेत के टीलों पर तम्बुओं में रह रहे मूकनाथ कालबेलिया बताते हैं कि इसी समय में वे जड़ी-बूटियों से जन्म-घूटी तैयार करते हैं। जो बच्चे के पैदा होने पर उसे पिलाई जाती है। इसी समय सांप अपने बिलों से बाहर निकलता है। वो केंचुली छोड़ता है। उस केंचुली से हम लोग सुरमा बनाते हैं। अब हम साल भर अपनी आजीविका कैसे चलाएंगे?

बस्सी, जयपुर के रहने वाले प्रकाश सिंगीवाल बताते हैं कि जो जड़ी-बूटियां बारिश के मौसम में होती हैं। वे जंगल से सम्बंधित हैं। ये जड़ी हिमालय के तराई क्षेत्र, पश्चिमी घाट और झारखंड- उड़ीसा के घने जंगलों में मिलती है।

जंगल के अधिनियम पारित होने के कारण घने जंगल मे घुसने पर रोक लग गई। अधिकारी परेशान करते हैं। जाने की अनुमति नहीं मिलती। इससे बारिश के बाद वाली जड़ी बूटियों पर उनके अधिकार समाप्त हो गए।

प्रकाश कहते हैं कि अब पूरा जीवन इन मार्च-अप्रैल की जड़ी बूटियां के ऊपर टिक गया है। इस बार वो भी नहीं ले पाये। अब साल भर क्या करें ? हम तम्बू में रहते हैं। फिर भी हमें बीपीएल का कार्ड नहीं मिलता।

हस्तशिल्पियों पर प्रभाव

बाँसफोड़ समुदाय बांस के उत्पाद बनाता है, पत्थरफोड़, पत्थर की गट्टी बनाता है। बंगाली, कुछ सजावट की वस्तुएं तैयार करता है और तुरी समुदाय, तिनके बिनकर झाड़ू बनाता है। उरई खोदता है। कुचबन्दा, कूच बांधने का काम करता हैं। गवारीन, ग्रामीण महिलाओं की आवश्यकता की आपूर्ति करती हैं।

इन सभी समुदायों के बाज़ार उसके जजमान होते हैं। पिछले दो महीने से काम बंद है और अब बारिश शुरू हो जाएगी। जिसमें 4 महीने काम बंद रहता है। किन्तु यहां समस्या ये है कि उसके बाद भी उसको तो जजमानों के पास ही जाना पड़ेगा। और इस स्थिति में वो क्या करेगा?

जालौर के रहने वाले जबराराम बाँसफोड़ कहते हैं कि हम बांस की जो वस्तुएँ बनाते हैं वो साल में दो बार ही बिकती हैं। जिसमें अधिकांश किसानी, खेतों से जुड़ी हुई हैं। ये सीजन तो निकल गया अब तो रबी के मौसम का ही इंतज़ार करना पड़ेगा। तब तक घर कैसे चलायें ? हम तो साल भर घूम घूमकर अपने जजमानों पर आश्रित रहते हैं।

जो गवारीन सर पर टोकरी रखकर गांव-गांव जाती है। ग्रामीण महिलाओं की आवश्यकताओं की आपूर्ति करती है। उन महिलाओं को शहर की बातें बताती है। महिलाएं भी इकट्ठे होकर बड़े चाव से उसकी बातें सुना करती हैं। उस गवारीन को गांव में अनुमति नहीं मिलेगी। यदि मिल भी गई तो उन घरों में नहीं जा सकेगी जिसके आंगन में बैठकर बड़े चाव से रोटी खाती थी।

दूसरी तरफ ग्रामीण महिलाएं बहुत कम शहर जा सकती हैं। वे अपनी जरूरत की चीजों के लिए इसी गवारीन पर आश्रित थीं। अब वे पुरुष नामक व्यक्ति पर निर्भर हो जाएंगी। इससे उनकी स्वतंत्रता में बाधा पैदा होगी।

 

पशुचारकों पर प्रभाव

ऊंट पालन के कार्य से रायका-रेबारी लोग जुड़े हैं। गाय और बैल से साटिया घुम्मतु जाति के लोग जुड़े है। बंजारों के गधे मुख्य धन हैं। जबकि भेड़-बकरी पालन का कार्य बागरी और बावरिया समाज करते हैं।

हम जो हजारों-हज़ारों ऊँट, भेड़-बकरियों और गाय-बैलों का टोला देखते हैं। इनमें से इन लोगों की खुद की भेड़-बकरी और ऊंट, गाय तो नाम मात्र के होती हैं। ये लोग चरवाहे हैं, मालिक तो कोई और हैं।

काला धन रखने वालों का ये सबसे सुरक्षित स्थान हैं। जिसका कोई रिकॉर्ड नहीं हैं। सबसे बड़ी बात है ये पूंजी निरन्तर बढ़ती ही जाती है। इसी का नतीजा है कि आज अधिकारियों, राजनेताओं के सबसे ज़्यादा पशुधन हैं।

घुमन्तू लोग तो महज चरवाहे हैं। मुस्किल से किसी के पास 5 पशु तो किसी के पास 10 किसी- किसी के पास 20 पशु होते हैं। ये लोग तो किराए पर इन्हें चराते हैं। इनको एक भेड़-बकरी को दिन भर चराने का डेड रुपया जबकि एक ऊंट का 5 रु मिलता है।

साल के दो समय ही ये लोग अपने घरों से निकलते हैं। कुछ समुदाय जो ऊंट पालक हैं, वे लोग मार्च महीने में चैत्री मेले से निकल लेते हैं। ये लोग हरियाणा, पंजाब के रास्ते उत्तराखंड की सीमा के करीब तक जाते हैं।

जो भेड़-बकरी पालक मध्य प्रदेश के उज्जैन तक जाते हैं वे नवम्बर माह में निकल पड़ते हैं। जिन पशु चारकों को उत्तर प्रदेश और बिहार की तरफ जाना हैं वे दिसम्बर माह में कूच करते हैं।

इनके सभी के वापस लौटने का समय जुलाई से सितंबर के बीच का होता है। जब रेगिस्तान में बारिश हो जाती है| जबकि उत्तर भारत के राज्यों में खेती शुरू हो जाती हैं। अपनी की इस यात्रा के दौरान इनका रेवड़ खेतों में बैठता है जिससे खेतों को खाद मिल जाती है। ये जैविक खाद कम पानी में अच्छी पैदावार देती है।

बदले में भेड़-बकरी और ऊंटों को फसल की कटाई के बाद शेष बचा डंठल, पत्तियां और भूसा मिल जाता है, जो बड़ा पोष्टिक होता है। उसको भेड़ बकरियां चाव से खाती हैं।

किंतु इस बार दो समस्याएं पैदा हुईं। पहली लॉकडाउन की वजह से जिन लोगों को हरियाणा- पंजाब की तरफ निकलना था। वह लोग निकल नहीं पाए क्योंकि उनकी शुरुआत मार्च में होती है।

जो समुदाय मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार के लिए नवंबर में निकले थे। वो जगह- जगह फंस गये हैं। जिलों या राज्य की सीमाओं से ना ये आगे जा सकते हैं और ना वापस लौट सकते हैं| इन लोगों को गांवों में भी घुसने नहीं दे रहे। कोई राज्य सरकार मदद नहीं कर रही।

अब क्या होगा यदि वापस भी आ जाते हैं तो उस रेवड़ को खिलायेंगे क्या?  और इनकी मजदूरी का क्या होगा ?  आगे भी नहीं जा सकते क्योंकि फसल कटे काफी समय बीत गया। खेत में कुछ बचा नहीं। और आगे गए तो वापस कब लौटेंगे?

इससे उन खेतों को जैविक खाद नहीं मिल पाई जो हर साल उस मिट्टी को जीवंत बना देती थी। गांव के लोग अपने मवेशियों का साठा (अदला-बदली) करते थे। अब वो कैसे हो पाएगा? ग्रामीण लोग अपने कमजोर पशु इनको दे देते थे। कुछ पैसा इनको दे देते तो इनके हस्टपुष्ट पशु बदले में ले लेते थे।

जो चरवाहे वापस लौट आये वो अब क्या करें? उनको चराने का जो पैसा मिलता था वो आमदनी उनकी बन्द हो गई है। वे इन महीनों में क्या करें ?

बंजारे अपने ख़ास गधों के जरिये तथा ओड़ जाति के लोग अपने खच्चरों के जरिये मिट्टी को समतल करने का काम करते थे, पाल बनाते, जोहड़ की छटाई करते थे, टांके के पानी का रास्ता बनाते थे। आज भी राजस्थान, मध्य प्रदेश और हरियाणा में बंजारे जोहड़ की पाल बनाते हैं।

मनरेगा के नाम पर इन समुदायों के कामों को छीन लिया गया है। जबकि इनका ज्ञान बहुत मददगार हो सकता है। कैसे ये लोग पूरे गांव का पानी एक जोहड़ में ले आते हैं। कैसे ये पहाड़ी और की गूण का स्थान निर्धारित करते हैं। अब ये समुदाय क्या करेंगे ?

जीव जन्तुओं पर अतिरिक्त दबाव

कुछ घुमन्तू समुदाय जैसे वन बावरी, बावरिया, मोग्या, शिकारी और बंगाली लोग शिकार पर जीवन यापन करते थे। जिसके कई ऐतिहासिक और पर्यावरणीय कारण थे। किंतु आज़ाद भारत मे धीरे- धीरे वन्य जीव संरक्षण और जंगल के अधिनियम से शिकार की दर कम होती चली गई।

जैसे-जैसे अब इन समुदायों पर दबाव बढ़ रहा है तो इस बात के ज्यादा संभावना है कि दोबारा से शिकार की प्रवर्ति तेज रफ्तार से बढ़ जाये। इससे अवैध गतिविधियों के बढ़ने की आशंका हैं। अभी भी शिकार होते हैं किंतु वे इतनी ही मात्रा में होते हैं जहां प्रकृति उनको रिप्लेस कर पाती है।

देह व्यापार का बढ़ना

इन सबकी कीमत बकाया समाज को भी चुकानी पड़ेगी। ये एक तथ्य है कि आज भी हिंदुस्तान में सबसे अधिक देह व्यापार में यदि कोई समुदाय लिप्त है तो उसमें नट, कंजर, पेरना, बेड़िया और गिलारा घुमन्तू समुदाय शामिल हैं। इसके कई ऐतिहासिक और व्यवस्था की कमियों से जुड़े कारण हैं।

आज भी मुम्बई में बार डांसर के रूप सबसे अधिक कंजर और नट समाज की महिलाएं हैं। बांदर सिंदरी, राजस्थान के विक्रम राज नट बताते हैं कि हमारे बच्चों के पिता के नाम के सामने मामा या नाना का नाम लिखा जाता है। क्योंकि हमें पता ही नहीं हैं कि हमारा बाप कोन है।

विक्रम बताते हैं कि अकेले बांदर सिंदरी गांव से 43 नटनी मुम्बई में बार डांसर के तौर पर काम करती हैं। सरकारी और सामाजिक संस्थाओं के प्रयासों से यहां देह व्यापार में निरन्तर कमी आ रही थी किन्तु अब ये ज्यादा संभावना है कि रोज़गार के अभाव में ये समुदाय वापस देह व्यापार की ओर लौटे। इससे पिछले 20 वर्ष की मेहनत पर भी पानी फिरने की संभावना निरन्तर बढ़ रही है।

धार्मिक सहिष्णुता पर प्रभाव

कुछ घुमन्तू समुदाय सामाजिक सहिष्णुता की जीवंत मिशाल है। जैसे मुस्लिम मिरासी हिन्दू देवी देवताओं की आराधना गाता है। कालबेलिया शिव का भगत है किंतु निकाह पढ़ता है। मुस्लिम बहुरुपिया हिन्दू देवी देवताओं का रूप बनाकर प्रेम और शांति का संदेश देता है तो हिंदू बहुरूपिये ईमाम और फकीर बनकर भाईचारे का पैगाम देते हैं।

एक अफवाह फैलाई हुई है कि कोरोना वायरस को फैलाने में तब्लीकी जमात, मुस्लिम अंग का काम हैं। इन लोगों को गांवों में मत घुसने दो। ये लोग कोरोना फैलाने के लिए आये हैं। इससे ये सम्भवना ज्यादा बढ़ गई हैं कि जो घुमन्तू समुदाय मुस्लिम में आते हैं। उनके ऊपर अत्याचार बढ़ेंगे।

नारनौल, हरियाणा में कामड़नाथ जोगी के डेरे को वहां के स्थानीय लोगों ने खदेड़ दिया। टोंक, राजस्थान में रहिदा से किसी ने सब्जी तक नहीं खरीदी। बहुरुपियों को अब पुलिस थाने, नजदीक पुलिस चौकी और सरपंच से अनुमति लेना पड़ेगी।

कामडनाथ जोगी का कहना है हम शिव के भगत हैं। मंदिर के पुजारी भी हमारे पूजा करने के बाद मंदिर में जाते हैं। आज हम मुसलमान हो गए। हमारा कोई स्थायी ठिकाना तो है नहीं हम कहाँ जायें? कभी हमसे कागज मांगते हैं। कभी बीमारी फैलने का आरोप लगाते हैं।

एक समय था जब लोग अपने बच्चों का नामकरण हमसे करवाते थे। हम पत्थर की बनी हाथ की गट्टी लाते थे। बच्चे के जन्म पर उसे जो जन्म घुट्टी पिलाते थे। वो कौन बनाता था? कौन लाता था ? तब ये समझ नहीं आया कि हम मुसलमान हैं।


लेखक बंजारों के जीवन पर शोध कर रहे हैं।


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