बेंगलुरु में 26 विपक्षी दलों की बैठक की पूर्वसंध्या यानी 17 जुलाई की शाम एनडीटीवी के वरिष्ठ पत्रकार नग़मा सहर के प्रोग्राम ‘सच की पड़ताल’ के दौरान जनता से एक सवाल पर राय माँगी गयी। यह सवाल था कि क्या 2024 में विपक्ष के 26 दल क्या मोदी को मात दे पायेंगे? 35 हज़ार लोगों ने इस सवाल का जवाब दिया जो कार्यक्रम के अंत में दिखाया गया। इसके मुताबिक 83 फ़ीसदी लोगों ने इसका जवाब ‘हाँ’ मे दिया। 15 फ़ीसदी ने ‘नहीं’ कहा और दो फ़ीसदी लोगों का जवाब था कि ‘कह नहीं सकते।‘
यह नतीजा बहुत लोगों के लिए चौंकाने वाला था। गोदी मीडिया जिस तरह पीएम मोदी की दुंदभि बजा रहा है, यह परिणाम उससे पूरी तरह उलट था। ज़ाहिर है इससे कोई फ़ैसला नहीं निकाला जा सकता, लेकिन इसने देश के राजनीतिक माहौल में आ रहे बदलाव का संकेत तो दे ही दिया। यह भी ग़ौर करने की बात है कि जिन दर्शकों ने विपक्ष की बैठक को लेकर उत्साह दिखाया था उनके सामने तब तक पूरी तस्वीर स्पष्ट नहीं थी। कौन जानता था कि 18 जुलाई को बीजेपी नेतृत्व वाले एनडीए को चुनौती देने के लिए इंडिया (INDIA) सामने आ जाएगा। इस नाम ने भी देश भर को चौंकाया। अपने हर विरोधी को ‘देशद्रोही’ या ‘भारत विरोधी’ कहने की आदी हो चुकी बीजेपी के सामने अब ‘इंडिया’ है। चुनावी जुमलेबाज़ी के किसी भी ख्याल में ‘इंडिया’ का विरोध करना आसान नहीं होगा। एक ही झटके में ‘राष्ट्रवादी झंडे’ पर बीजेपी की इजारेदारी में विपक्ष ने तगड़ी सेंध लगा दी।
इसके जवाब में तुरंत ही बीजेपी नेताओं और समर्थकों ने सोशल मीडिया पर ‘भारत’ का नारा चलाया और ‘इंडिया’ को इलीट वर्ग का प्रतिनिधि बताने की कोशिश की। लेकिन एक तो बीजेपी सरकार खुद ‘स्किल इंडिया’, ‘डिजिटल इंडिया’ से लेकर ‘खेलो इंडिया’ तक का नारा अतीत मे दे चुकी है, दूसरे संविधान का अनुच्छेद ( 1) कहता है कि ‘इंडिया दैट इज़ भारत।‘ यानी इंडिया को भारत से अलग या विरोध में खड़ा करने की गुंजाइश है ही नहीं। राजनीति में भाषा के ज़रिए अपने विरोधी को बैकफुट में डालने के ऐसे उदाहरण कम मिलते हैं जैसा कि विपक्ष ने गठबंधन का नाम INDIA देकर किया है।
वैसे, INDIA किसी जुमले के तहत नहीं निकला है। ग़ौर से देखिये तो ‘इंडियन नेशनल डेवलेपमेंटल इन्क्लूसिव अलायंस’ एक ख़ास विज़न को पेश करता है। बीजेपी की ओर से विपक्ष को विकास विरोधी कहने का जो चलन है, यह उसका ठोस जवाब है। यह बताता है कि विपक्ष ऐसे विकासोन्मुख भारत की कल्पना करता है जो ‘समावेशी’ हो। क्रोनी कैपिटलिज़्म की पटरी पर पूरी तेज़ी से दौड़ रही पीएम मोदी की ट्रेन को लेकर सबसे बड़ी शिकायत यही है कि भारत की बहुसंख्या को इस ट्रेन में चढ़ना नसीब नहीं हुआ है। विकास का यह मॉडल न ग़रीबी दूर कर पा रहा है और न बेरोज़गारी। महंगाई की मार से लोग त्राहि-त्राहि कर रहे हैं। जब मोदी सरकार 80 करोड़ लोगों को पाँच किलो राशन देने का दावा करती है तो वह प्रकारांतर में यह स्वीकार कर रही होती है कि भारत की बहुसंख्या अपना भोजन खुद अपने श्रम से जुटाने की स्थिति में नहीं है। दुनिया की पाँचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था जैसे जुमले इस हक़ीक़त पर पर्दा नहीं डाल सकते।
विपक्ष ने यह स्पष्ट किया है कि उसकी एकजुटता महज़ चुनावी नहीं है। बेंगलुरु बैठक के बाद संयुक्त घोषणा में कहा गया है कि ‘हम राष्ट्र के सामने एक वैकल्पिक राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक एजेंडा पेश करने का संकल्प लेते हैं। हम शासन के सार और शैली दोनों को बदलने का वादा करते हैं जो अधिक परामर्शात्मक, लोकतांत्रिक और सहभागी होगा।’ ज़ाहिर है, विपक्ष की कोशिश सिर्फ़ मोदी सरकार नहीं, बल्कि उसकी नीतियों का विकल्प पेश करने की है। महंगाई,बेरोज़गारी जैसे मुद्दों के साथ मणिपुर का ख़ास ज़िक्र संघीय ढांचे के प्रति मोदी सरकार की ओर से हो रही अवहेलना का जवाब है। एक निष्पक्ष अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के बीच प्रतिस्पर्धा, किसानों और मज़दूरों को सर्वोच्च प्राथमिकता देने के साथ-साथ दलितों, महिलाओं, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों के साथ-साथ कश्मीरी पंडितों के प्रति हो रही हिंसा को रोकने क संकल्प जताकर उसने अपने व्यापक और समावेशी दृष्टि का परिचय दिया है। नफ़रत की राजनीति के ख़िलाफ सद्भाव का माहौल बनाने को राजनीतिक एजेंडे मे शामिल किया गया है और जाति जनगणना की अपनी माँग भी दोहराई गयी है। कुल मिलाकर एनडीए के सामने इंडिया ने एक बड़ी लकीर खींच दी है।
बीजेपी को उम्मीद थी कि नेतृत्व का सवाल इस गठबंधन को बनने नहीं देगा या ममता बनर्जी और केजरीवाल की कांग्रेस विरोधी भूमिका को देखते हुए साथ आना मुमकिन नहीं होगा, लेकिन ये सारे आकलन ग़लत निकले। कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे का यह कहना कि ‘उनकी पार्टी को सत्ता या प्रधानमंत्री पद में कोई दिलचस्पी नहीं है’, इस दौर का एक दुर्लभ बयान है। इस बयान में राहुल गाँधी की भारत जोड़ो यात्रा की गूँज साफ़ सुनाई पड़ती है। राहुल गाँधी ने बिना किसी सत्ता की लालसा के कन्याकुमारी से कश्मीर तक की लगभग चार हजार किलोमीटर की पदयात्रा करके साबित किया था कि कुछ चीज़े सत्ता से बड़ी होती हैं। ‘नफ़रत के बाज़ार में मुहब्बत की दुकान’ खोलने के लिए जो भी त्याग करना पड़े कम है।
ज़ाहिर है, कांग्रेस की ओर से हो रहे इस गंभीर प्रयास के ख़तरे को बीजेपी समझती है। यह संयोग नहीं कि 18 जुलाई को ही नौ साल से भुला दिये गये एनडीए की बैठक बुलाई गयी और उसमे 38 पार्टियों के शामिल होने को सुर्खी बनवाया गया। लेकिन इससे यह भी साफ़ हुआ कि कल तक ‘एक अकेला सब पर भारी’ होने का दावा कर रहे महाबली मोदी विपक्षी एकता को लेकर किस कदर चिंतित हैं। यह संयोग नहीं कि जिन चिराग़ पासवान का घर खाली कराके सामान सड़क पर फेंक दिया गया था, उन्हें एनडीए की बैठक में मोदीजी गले लगा रहे थे या फिर जिन मेघालय के मुख्यमंत्री कॉनराड संगमा को दुनिया की सबसे भ्रष्ट सरकार चलाने का तमगा दे चुके थे, एनडीए की बैठक में उनका स्वागत कर रहे थे।
पीएम मोदी की बौखलाहट 18 जुलाई को दिये गये उनके हर भाषण में झलकी। एयरपोर्ट का उद्घाटन करते हुए भी वे विपक्षी एकता की ही चर्चा कर रहे थे। लेकिन वे जो आरोप लगा रहे हैं, वे ज़मीन पर असर खो चुके हैं। जब वे वंशवादी होने का आरोप लगाते हैं तो पूरा सोशल मीडिया बीजेपी के वंशवादी नेताओं के चेहरों से भर जाता है, जब वे भ्रष्टाचार का हवाला देते हैं तो महाराष्ट्र में हुए हालिया राजनीतिक घटनाक्रम मुँह चिढ़ाने लगता है जहाँ उन अजीत पवार को उपमुख्यमंत्री और एनसीपी के कई विधायकों को मंत्री बनाया गया जिन पर हजारों करोड़ के घोटाले करने का आरोप खुद मोदी जी लगा चुके हैं।
मोदी जी दावा कर रहे हैं कि 2024 में तीसरी बार सरकार बनाने के लिए जनता मन बना चुकी है लेकिन 15 जुलाई को सकाल अखबार की ओर से महाराष्ट्र को लेकर किये गये सर्वे में जनता का मूड बिल्कुल अलग नज़र आया है। इस सर्वे के मुताबिक बीजेपी को 26.8 फ़ीसदी, एनसीपी के अजित पवार गुट क 5.7 पीसदी और एकनाथ शिंदे वाली शिवसेना को 4.9 फ़ीसदी यानी एनडीए गठबंधन को कुल 37.4 फ़ीसदी वोट ही मिल रहे हैं जो एक महीने पहले हुए सर्वे से दो फ़ीसदी कम हैं। बीजेपी को तो 7 फ़ीसदी का नुकसान उठाना पड़ रहा है। तब बीजेपी को 33.8 फ़ीसदी वोट मिल रहे थे। कांग्रेस, एनसीपी और शिवसेना की महाविकास अघाड़ी को 46.7 फ़ीसदी वोट मिलता दिख रहा है जो एनडीए से 9.3 फ़ीसदी ज़्यादा हैं।
यानी जनता ‘सरकार लूटने’ या ‘खरीदने’ के खेल से ऊब चुकी है। नफ़रत, हिंसा और आर्थिक बदहाली की नियति को बदलना चाहती है। ऐसे में लोकतंत्र का तकाज़ा है कि वह विपक्ष की ओर उम्मीद भरी निगाहों से देखे। खासतौर पर जब वहाँ राहुल गाँधी जैसा संत राजनेता खड़ा है जिसकी रुचि राजदंड पाने मे नहीं, दुखियारों को गले लगाने में है, उनके ज़ख्मों पर मरहम रखने पर है।
लेखक मीडिया विजिल के संस्थापक संपादक हैं।
(यह लेख सत्य हिंदी में पहले छप चुका है।)