“भारत की शिक्षा व्यवस्था असमानता और अन्याय पर आधारित!”

अजित साही अजित साही
ओप-एड Published On :


मेरा बेटा अमेरिका में सरकारी स्कूल में पढ़ता है. इस स्कूल में कोई फ़ीस नहीं होती है. स्कूल बस फ़्री में लाती और ले जाती है. स्कूल में खाना फ़्री मिलता है. किताबें भी फ़्री हैं. पहनने के लिए कोई यूनिफ़ॉर्म नहीं है. घर के कपड़े पहन कर जाता है. अमेरिका में अधिकांश बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ते हैं. गोरे, काले, हिस्पैनिक, देसी, सभी. इस स्कूलों में बहुत अच्छे स्तर की शिक्षा मिलती है.

प्राइवेट स्कूलों में वही बच्चे जा पाते हैं जिनके माँ-बाप अच्छा कमाते हैं, यानी कम से कम पंद्रह-बीस हज़ार डॉलर महीना.

सरकारी स्कूलों के इस सिस्टम का सबसे बड़ा फ़ायदा ये है ग़रीब से ग़रीब इंसान भी अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देने की उम्मीद कर पाता है. परफ़ेक्ट तो कोई सिस्टम नहीं होता है. लेकिन सरकारी स्कूलों में पढ़ाई का स्तर अच्छा होने से आबादी का बड़ा हिस्सा अच्छे भविष्य की कल्पना कर पाता है. सड़क पर रह रहे बेघर इंसान की बेटी और कंपनी में मैनेजर की बेटी एक दूसरे के बग़ल बग़ल बैठ कर ऐसे स्कूलों में पढ़ते हैं. आगे चल कर ये पूरी तरह संभव है और ऐसा होता भी है कि सड़क वाले की बेटी मैनेजर की बेटी से आगे निकल जाती है. ऐसे फ़्री सरकारी स्कूल बच्चों को बारहवीं तक पढ़ाते हैं.

भारत में इसके ठीक उलटा है.

केजी से लेकर बारहवीं तक सरकारी स्कूल तबाह हो चुके हैं. वहाँ सिर्फ़ ठेलेवाले, नौकर चाकरों के बच्चे पढ़ते हैं. प्राइवेट स्कूल महँगी फ़ीस लेते हैं. ज़ाहिर है आबादी का बहुत बड़ा वर्ग प्राइवेट स्कूलों की फ़ीस नहीं दे सकता है. फ़ीस वही दे सकता है जिसके पास पैसा है. भारतीय समाज में आर्थिक संपन्नता वाले वर्ग में हिंदू अपर कास्ट मिडिल क्लास का वर्चस्व होता है. इसलिए इसी वर्ग के लोग अपने बच्चों को मोटी फ़ीस देकर अच्छे प्राइवेट स्कूल में भेज पाते हैं. इस तरह भारतीय समाज परमानेंट दो टुकड़ों में बंटा रहता है.

ग़रीब निचले तबके के निचली कास्ट का बच्चा थर्ड-रेट सरकारी स्कूल में जाता है और बारहवीं आते आते निचली क्लासों में ही ड्रॉपआउट हो जाता है. क्लास में उसके बग़ल में भी ठेलेवाले का बेटा बैठता है, मैनेजर की बेटी नहीं. बारहवीं पास भी कर लेता है तो इस लायक़ नहीं रहता है कि किसी यूनिवर्सिटी में पढ़ सके. सरकारी स्कूल से पास करने वाला बच्चा कभी भी प्राइवेट सेक्टर में बड़ा अधिकारी नहीं बन पाता है. वो बड़ा होकर ठेला ही चलाता है. अगर मेरा बेटा भारत में होता तो मैं भी मोटी फ़ीस देकर उसको ऐसे ही प्राइवेट स्कूल में भेज रहा होता. उसका संपर्क भी समाज के निचले तबसे से ख़त्म हो चुका होता.

इस तरह स्कूली व्यवस्था से भारत के समृद्ध और संपन्न अपर कास्ट हिंदू को निचले तबके से कभी कोई ख़तरा नहीं पैदा होता है. हिंदू अपर कास्ट मिडिल क्लास को कोई डरने की वजह नहीं बनती है कि आने वाले दस साल बाद उनका बेटा पीछे रह जाएगा और खटिक का बेटा उससे ज़्यादा तेज़ निकल जाएगा और परसों उसका मैनेजर और ब़ॉस बन जाएगा.

भारत में यूनिवर्सिटी का सिस्टम अपर और लोअर कास्ट की इस खाई को और गहरा कर देता है.

जबकि अमेरिका में बारहवीं के बाद उच्च शिक्षा एकदम से बहुत महँगी हो जाती है, भारत में बारहवीं के बाद उच्च शिक्षा एकदम से सस्ती हो जाती है. प्राइवेट स्कूल में पढ़ा भारतीय बच्चा अगर ठीक अंक ले आता है तो किसी न किसी यूनिवर्सिटी में निश्चित दाख़िला पा लेता है. जो तेज़ होता है वो दिल्ली, मुंबई, बैंगलाोर में पढ़ने चला जाता है, और बीएससी, एमएससी करते ही विदेश भाग लेता है. ग़रीब निचली जाति का बच्चा सरकारी स्कूल से बारहवीं पास करने के बाद अगर बीए पहुँच भी जाता है तो थर्ड क्लास में पास होता है और अपने पिता की तरह नौकर बनने या ठेला खींचने लायक़ ही रह जाता है. यही वजह है कि आप आए दिन ख़बर पढ़ते हैं कि दो हज़ार चपरासी की नौकरियों के लिए पच्चीस लाख ग्रेजुएट या पोस्ट-ग्रेजुएट ने अप्लाई किया है.

अमेरिका में यूनिवर्सिटी में पढ़ने के लिए लाखों का लोन लेना पड़ता है. बहुत सारे बच्चे बारहवीं के बाद पढ़ाई छोड़ देते हैं क्योंकि उनके नंबर इतने हाई नहीं होते हैं कि वो अच्छी जगह ए्डमीशन पा सकें. यूनिवर्सिटी में ज़्यादातर वही पहूंचते हैं जो पढ़ाई में तेज़ रहे होते हैं. जितनी बड़ी यूनिवर्सिटी उतना तेज़ बच्चा जिसे स्कॉलरशिप मिलती है. और ऐसे बच्चों में बहुत सारे — बहुत ही सारे — वो होते हैं जो सरकारी स्कूल में फ़्री पढ़े होते हैं जैसे मेरा बेटा आज पढ़ रहा है.

अजित साही वरिष्ठ पत्रकार हैं।