नेताजी सुभाष चंद्र बोस की 125वीं जयंती को मोदी सरकार ने ‘पराक्रम दिवस’ के रूप में मनाया। खुद मोदी जी कोलकाता गये और वहाँ विक्टोरिया मेमोरियल में आयोजित भव्य कार्यक्रम में शामिल हुए। नेताजी जी की विरासत पर पूरी दावेदारी ठोंकी। अंदाज़ कुछ यों था कि उनकी सरकार नेताजी की सपनों का भारत बना रही हैं!
इस सारी ठसक के बावजूद वे ‘बोस फ़ाइल्स’ के बारे में एक शब्द बोलने का भी ‘पराक्रम’ नहीं दिखा सके। याद कीजिए 2016 का विधानसभा चुनाव जिसमें मोदी जी ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस के गायब होने के पीछे किसी षड़यंत्र का इशारा किया था और कहा था कि जल्द ही ‘बोस फ़ाइल्स’ उनकी सरकार सार्वजनिक करेगी। नेताजी के परिजनों को बीजेपी में शामिल करने का अभियान चला था। लेकिन चुनाव ख़त्म होने के बाद ‘बोस फ़ाइल्स’ का क़िस्सा इस क़दर टाँय-टाँय़ फ़िस्स हुआ कि इस बार कोलकाता पहुँचे पर मोदी जी की ज़बान से एक बार भी ह शब्द नहीं फूटा।
आख़िर क्यों हुआ ऐसा?
इस सवाल के जवाब से पहले जान लें कि ‘बोस फ़ाइल्स’ को लेकर उत्सुकता क्यों थी और इसका मतलब क्या है?
सुभाषचंद्र बोस देशभक्ति के शिखर प्रतीक हैं। आज़ाद हिंद फ़ौज बनाकर ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ युद्ध छेड़ेन की उनकी रणनीति ने उनकी शोहरत आसमान पर पहुँचा दी थी लेकिन 1945 में विमान दुर्घटना के बाद उन्हें लेकर तमाम क़िस्से रचे गये। उनके असमय जाने पर विश्वास न होना स्वाभाविक था, लेकिन इसका फ़ायदा उठाकर गाँधी, नेहरू के ख़िलाफ़ एक कुत्सित अभियान चला। मौत के पीछे साज़िश की बात इस कदर प्रचारित की गयी कि तमाम लोग विश्वास करने लगे। कोई कहता कि उन्हें साइबेरिया भेज दिया गया था तो कोई बताता कि उन्हें मरवा दिया गया। ज़ाहिर है, निशाने पर थी केंद्र में जमी बैठी कांग्रेस सरकार और साज़िश की थ्योरी पर यक़ीन करने वाले मानते थे कि कांग्रेस जब केंद्र से हटेगी तो असलियत सामने आयेगी।
बहराहल, गै़र कांग्रेस सरकारें आती रहीं, ये कभी मुद्दा नहीं बना। छह साल बीजेपी के अटल बिहारी वाजपेयी जी ने भी राज किया पर ऐसे विवादों का कभी राजनीतिक इस्तेमाल नहीं किया। पर मोदी जी तो मोदी जी हैं। उन्होंने ‘बोस फ़ाइल्स ‘यानी सुभाषचंद्र बोस से जुड़े ‘गोपनीय दस्तावे’ज़ों का शिगूफ़ा छेड़कर यह यक़ीन दिलाया कि बस अब सारा रहस्य खुलने ही वाला है। शायद यह यक़ीन रहा हो कि सरकार के पास मौजूद नेताजी सुभाष बोस से जुड़े क़ागज़ात में कुछ न कुछ नेहरू के ख़िलाफ़ ज़रूर मिलेगा, जिसका राजनीतिक इस्तेमाल हो सकेगा।
लेकिन हुआ उल्टा!
पहली बार जब ‘बोस फाइल्स’ से जुड़े दस्तावेज़ सामने आये तो नेहरू की छवि और उज्ज्वल हो गयी। पता चला कि वे तो सुभाष बोस की विदेश में पल रही बेटी के लिए कांग्रेस की ओर से सालाना छह हज़ार रुपये भिजवाते थे। नेहरू ने कभी सार्वजनिक रूप से इसकी चर्चा भी नहीं की।
2016 में कुछ फ़ाइलें सार्वजनिक हुईं जिनसे पता चला कि अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी (एआईसीसी) ने 1954 में नेताजी की बेटी की मदद के लिए एक ट्रस्ट बनाया था, जिससे उन्हें 500 रुपये प्रति माह आर्थिक मदद दी जाती थी। दस्तावेजों के मुताबिक, 23 मई, 1954 को नेताजी जी की बेटी अनिता बोस के लिए दो लाख रुपये का एक ट्रस्ट बनाया गया था। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री बी. सी. रॉय उसके ट्रस्टी थे।
23 मई, 1954 को नेहरू ने एक दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर किए। इसमें लिखा है , “डॉ. बी. सी. राय और मैंने आज वियना में सुभाष चंद्र बोस की बच्ची के लिए एक ट्रस्ट डीड पर हस्ताक्षर किए हैं। दस्तावेजों को सुरक्षित रखने के लिए मैंने उनकी मूल प्रति एआईसीसी को दे दी है।” एआईसीसी ने 1964 तक अनिता को 6,000 रुपये वार्षिक की मदद की। 1965 में उनकी शादी के बाद यह आर्थिक सहयोग बंद कर दिया गया। यह मत समझिए कि तब 500 रुपये महीने कोई छोटी रकम थी। बड़े–बड़े अफ़सरों को भी इतना वेतन नहीं मिलता था।
ज़ाहिर है, नेहरू की छवि धूमिल करने के अभियान को इससे धक्का लगा। ऐसा लगता है कि आगे भी ऐसा कुछ मोदी के रणनीतिकारों को नहीं मिला जिसका इस्तेमा नेहरू और इस बहाने काँग्रेस और गाँधी परिवार के खिलाफ हो पाता। थक-हारकर ‘बोस फाइल्स’ का मुद्दा भुला दिया गया। ये अलग बात है कि व्हाट्सऐप पर पुराने साज़िशी क़िस्से आज भी घूम रह हैं।
नेताजी पर ज़्यादा बात होने का मतलब उनके विचारों तक जाना भी है। इससे संघ और बीजेपी के लिए बड़ा ख़तरा है क्यों कि उससे सुभाष बोस की सावरकर और हिंदू राज अभियान विरोधी वैचारिकी और स्पष्ट हो जाती है। दरअसल, हिंदू महासभा को एक कट्टर सांप्रदायिक मोड़ देने वाले सावरकर 1937 में इसके अध्यक्ष बने। अंग्रेज़ों से सहकार और काँग्रेस के नेतृत्व में चल रहे राष्ट्रीय आंदोलन का तीखा विरोध उनकी नीति थी। यह वह समय़ था जब हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग के सदस्य, काँग्रेस के भी सदस्य हो सकते थे। कई तो पदाधिकारी तक बनते थे। सुभाषचंद्र बोस ने काँग्रेस के अध्यक्ष बनने पर इस ख़तरे को महसूस किया और 16 दिसंबर 1938 को एक प्रस्ताव पारित करके काँग्रेस के संविधान में संशोधन किया गया और हिंदू महासभा तथा मुस्लिम लीग के सदस्यों को काँग्रेस की निर्वाचित समितियों में चुने जाने पर रोक लगा दी गई।
ज़ाहिर है, सावरकर को अपना नायक बताने वाले मोदी जी को इन सुभाष बोस के इस रूप से झटका लग सकता है। सुभाष बोस ने 12 मई 1940 को बंगाल के झाड़ग्राम में एक भाषण दिया था जो 14 मई को आनंद बाज़ार पत्रिका में छपा। उन्होंने कहा–
‘हिंदू महासभा ने त्रिशूलधारी संन्यासी और संन्यासिनों को वोट माँगने के लिए जुटा दिया है। त्रिशूल और भगवा लबादा देखते ही हिंदू सम्मान में सिर झुका देते हैं। धर्म का फ़ायदा उठाकर इसे अपवित्र करते हुए हिंदू महासभा ने राजनीति में प्रवेश किया है। सभी हिंदुओं का कर्तव्य है कि इसकी निंदा करें। ऐसे गद्दारों को राष्ट्रीय जीवन से निकाल फेंकें। उनकी बातों पर कान न दें।
ज़ाहिर है बोस से जुड़ा हर दस्तावेज़ उनके और नेहरू की निकटता की मुनादी है। कांग्रेस में सुभाष बोस का विरोध सरदार पटेल ने सबसे ज्यादा किया था जो मोदी जी के दूसरे नायक हैं। दोनों के बीच संपत्ति का मुकदमा भी चला था। पटेल सुभाष बोस की वामपंथी सोच के सख्त खिलाफ थे जबकि नेहरू साथ थे। यही वजह है कि बोस ने नेहरू को योजना आयोग का अध्यक्ष बनाया था। आज़ाद हिंद फ़ौज की एक ब्रिगेड का नाम भी नेहरू के नाम पर रखा। उधर, नेहरू ने लालकिले में आजाद हिंद फ़ौज के अफसरों पर चले मुकदमे में उन्हें बचाने के लिए काला कोट पहना था। लाल किले के बतौर प्रधानमंत्री अपने पहले भाषण में सुभाष बोस को बहुत इज़्ज़त से याद किया।उनकी बनवायी जनगणमन की धुन को राष्ट्गान का दर्जा दिया। उनके नारे ‘जय हिंद’ को अभिवादन बतौर स्वीकार किया और 1957 में ही नेताजी रिसर्च ब्यूरो स्थापित किया जिसकी जिम्मा नेता जी के बतीजे शिशिर बोस को सौंपा।
पुनश्च: आजकल बीजेपी टीपू सुल्तान के ख़िलाफ़ भी अभियान चला रही है लेकिन उसके बहुत से समर्थकों को यह जानकार धक्का लग सकता है कि नेताजी सुभाषचंद्र बोस टीपू सुल्तान को अपना नायक मानते थे। टीपू के प्रतीक चिन्ह ‘बाघ’ को आज़ाद हिंद फ़ौज के झंडे और वर्दी पर टंकित किया गया था।
लेखक मीडिया विजिल के संस्थापक संपादक हैं।